मानवीय संवेदना,अस्मिता के सामने बर्बर और विरोधी समय
वामा
May 14, 2016
अशोक गुप्ता।
मानवीय संवेदना और अस्मिता के सामने यह एक बर्बर और विरोधी समय है, और इसकी लगाम पूरी तरह बाज़ार के हाथ में है। बाज़ार ने हर छोटी बड़ी शह को विक्रयशील पदार्थ में बदल दिया है। बाज़ार के हाथों सब बिकने को तैयार है और बाज़ार जिसे खरीदने के लिए चुन लेता है उसकी संवेदना और विवेक की नस को कुचल कर ही उसे अपने बेड़े में शामिल करता है और फिर उसकी प्रतिभा का अपने ढंग से इस्तेमाल करता है। बाज़ार के इस करिश्मे में ज़बरदस्त चकाचौंध है कि इसके आगे समाज और जन जीवन में कुछ भी घटता हुआ नजर आना बंद हो जाता है. यह सचमुच एक नृशंस बर्बरता है, लेकिन है, और बाकायदा है।
एक ओर आंधी में टूटते पेड़ के पत्तों की तरह ऐसी खबरों से धरती ढंकती जा रही है, जिनमें नवजात जन्मी बच्चियों से लेकर साथ सत्तर बरस की वृद्धाओं के साथ बलात्कार हो रहा है, बलात्कार के बाद हत्याएं हो रही हैं और इस प्रक्रिया को एक खेल की तरह खेलते हुए उसका उन्माद जिया जा रहा है। अन्यथा, स्त्री देह में तमाम तरह की वस्तुओं को ठूंसने का क्या अर्थ हो सकता है…
इस कृत्य का प्रलाप बाज़ार के सेंसेक्स की तरह संवेदनशील है। देखिये ज़रा से अनुकूल संकेत के बाद ऐसे आरोपियों की भीड़ लग गयी है जो नाबालिग बताये जा रहे हैं। वह हैं तो नाबालिग लेकिन अपनी कारगुजारी में किसी बिसहे से कम नहीं हैं। बारह चौदह बरस का किशोर नन्हीं बच्ची या लड़की से न केवल बलात्कार कर गुजरने में माहिर है बल्कि उसका मनोबल पीड़िता की हत्या कर देने के लिये भी सबल है।
निर्भया काण्ड के बाद ऐसी घटनाओं ने देश भर के रोजनामचे में अपनी अव्वल नंबर की जगह बना ली है। और अभी तक कोई ऐसा शोध, ऐसा सामाजिक मनोवैज्ञानिक विश्लेषण सामने नहीं आया है जो यह बता सके कि ऐसी कौन सी मनःस्थिति है जो पुरुष को अकस्मात् मानव से मात्र शिश्न में बदल दे रही है, और ईश्वर ने किसी के भी शिश्न में आँखें नहीं दी हैं। इसलिए पुरुष चाहे वह पिता की भूमिका में हो, भाई की भूमिका में हो या गुरु हो, वह संबंध निरपेक्ष किसी भी इंसानी मादा के ऊपर शिश्न बन कर उतर जा रहा है।
सामाजिक परिदृश्य इस दुराचरण से भरा हुआ है और समाज को यह जानना बाकी है कि इस पुरुष की इस भीषण मानसिक स्थिति का कारण क्या है…
ऐसे में, कम से कम यह तो हो ही सकता है कि समाज को ऐसी आबोहवा, ऐसी परिस्थितियों और ऐसी सामग्री से तब तक दूर रखा जाय जब तक ऐसा कोई शोध सामने न आ जाय कि इन घटनाओं का संबंध पुरुष में उद्दीपनकारी उन्माद संचालन से नहीं है।
फिलहाल अभी तो यही मुक्कमल तौर पर माना जा रहा है कि इस दौर का पुरुष किसी भी नशीले विचलन को संयमपूर्वक सह पाने में समर्थ नहीं है और उस विचलन की दशा में वह किसी के भी साथ कोई भी अनर्गल और मर्यादाहीन आपराधिक कृत्य कर सकता है।
क्या इस तर्क के आधार पर हमारी सामजिक व्यवस्था कोई ‘रोकथाम’ जैसी नीति या गतिविधि अपना रही है ?
उत्तर है, ‘नहीं’ बल्कि बाज़ार उस उन्माद्कारी आचरण को हवा दे रहा है, कि नशे की संस्कृति व्यापक हो और घातक नशीले पदार्थों का प्रयोग प्रगतिशीलता का लक्षण माना जाय। उपभोक्ता गर्व से कहें कि उन्हें तो ‘इसके’ बिना रात को नींद नहीं आती।
क्या ‘इसके’ का खुलासा करना ज़रूरी है ? यदि हाँ, तो लीजिये, पहला नाम तो शराब का ही है। कोई भी व्यवस्था चाहे वह राजनैतिक हो या न्यायिक, शराब के प्रचलन पर रोक नहीं लगा सकती. कारण स्पष्ट है, शराब का प्रचलन बाज़ार की मांग है। बात ख़त्म।
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