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हिंदीभाषी समाज में महिलायें? सवाल सिर्फ नुमाइंदगी का नहीं

वामा            Aug 24, 2015


प्रगति सक्सेना हिंदीभाषी समाज पर अगर सरसरी नज़र डालें तो लगता है हर तरफ औरतों की ही बात हो रही है। विज्ञापनों, फिल्मों, टीवी, साहित्य, कला, राजनीति, प्रशासन, पुलिस और पुलिस के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों में भी महिलाएं शामिल हैं। दूसरी तरफ, नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की वर्ष 2013 की रिपोर्ट कहती है कि दिल्ली, उत्तरप्रदेश और राजस्थान में महिलाओं के खिलाफ सबसे ज़्यादा अपराध दर्ज किए गए हैं। ऐसे में कवि अनामिका की ये पंक्तियां याद आती हैं- "पढ़ा गया हमको, जैसे पढ़ा जाता है काग़ज़, बच्चों की फटी कॉपियों सा देखा गया हमको जैसे कुफ्त हो उनींदे देखी जाती है कलाई घड़ी सुना गया हमको, यों ही उड़ते मन से, जैसे सुने जाते हैं फिल्मी गाने भोगा गया हमको, बहुत दूर के रिश्तेदारों के दुख की तरह...." इन अलग-अलग स्थितियों को देखकर ये सवाल उठना लाज़मी है कि हिंदीभाषी समाज में औरतों की क्या भूमिका, क्या दशा रही है। ये सवाल भी मन में आता है कि यहां नारीवादी चिंतन किस तरह का है- वह जो सोशल मीडिया पर दिखता है, या वह जो फिल्मों में दिखाया जाता है? या वो जिसकी नींव खाप जैसे संगठन मनमर्ज़ी से बदलते रहते हैं। वैचारिक और सैद्धांतिक तौर इस सवाल का कोई साफ जवाब नहीं मिलता। जबकि यही चिंतन समाज की मानसिकता और रवैए को बदल सकता है। नारीवादी विचारक और लेखिका अर्चना वर्मा कहती हैं दिक्कत ये है कि हमारा समाज आज भी एक छुटभैय्या मानसिकता लिए है और एक बने बनाए चौखटे से बाहर नहीं निकलना चाहता। दूसरी तरफ, सोशल मीडिया पर एक उग्र किस्म का फेसबुकिया नारीवाद है जो सिर्फ रहन-सहन और फैशन तक ही सीमित है। हालांकि अर्चना ये बात ज़रूर मानती हैं कि इन उग्र महिला सरोकारों की भी वैचारिक स्तर पर अहम भूमिका हो सकती है। कवि और नारीवादी लेखिका अनामिका का कहना है कि हिंदी ही नहीं बल्कि दूसरी भारतीय भाषाओं में भी नारीवादी लेखन हो रहा है लेकिन उसे गंभीरता से नहीं लिया जाता। वे कहती हैं, "अंग्रेज़ी पढ़े-लिखे लोग ये मान लेते हैं कि इस तरह का इन्फॉर्मल चिंतन बहुत कच्चा है, पूरी तरह विकसित नहीं है। फिर डिस्ट्रीब्यूशन की समस्या इस लेखन को आम पाठक तक नहीं पहुंचने देती।" अभय कुमार दुबे उन चंद पुरुष समाजशास्त्रियों में से हैं जिन्होंने इस मुद्दे पर गंभीर लेखन किया है। अभय का कहना है कि हिंदी दूसरी भाषाओं की तुलना में अभी नई है, इसलिए महिला-विमर्श पर बहुत काम नहीं हो पाया है लेकिन साहित्यिक विमर्श में औरतों पर बहुत कुछ लिखा गया है। वे मानते हैं कि पुरुष महिलाओं के बारे में बात करते रहे हैं लेकिन उन पर कोई चर्चा नहीं करते और पूरी दुनिया में यही नज़रिया पाया जाता है। जेएस मिल जैसे इक्का-दुक्का विचारकों के अलावा पुरुषों ने नारीवादी चिंतन में सक्रिय भूमिका नहीं निभाई है। अभय दुबे का मानना था कि औरतों को खुद ही अपने लिए बोलना होगा, पुरुष उनकी नुमाइंदगी नहीं करेंगे। सवाल सिर्फ नुमाइंदगी का नहीं है क्योंकि औरत महज एक सामाजिक-आर्थिक इकाई नहीं है। वो मानव समाज का आवश्यक अंग है। महिला-विमर्श तभी पूरा हो सकता है जब पुरुष के बरक्स महिला की बात की जाए और उसमें पुरुष भी हिस्सा लें। 19वीं सदी में जेएस मिल ने महिला-पुरुष संबंधों को एक वाक्य में बताया था- 'महिला पुरुष की अंतरंग दास है। ' करीब 150 साल बाद भी हालत कमोवेश ऐसी ही है। बल्कि कहीं न कहीं औरतों के लिए समाज ज़्यादा हिंसक और असहनशील होता नज़र आता है। अगर वैचारिक ज़मीन पर महिलाओं की भूमिका, उनके ऐतिहासिक सामाजिक उत्थान-पतन को फिर से परिभाषित किया जाए तो शायद हम भी नारीवाद को एक फैशन या प्रचलन की तरह नहीं बल्कि एक ठोस विचारधारा की तरह समझ सकें। ताकि अनामिका के इन शब्दों को स्त्रियां असल ज़िंदगी में भी महसूस कर सकें। "हमें देखो तो ऐसे ,जैसे कि ठिठुरते हुए देखी जाती है बहुत दूर जलती हुई आग, सुनो हमें अनहद की तरह, और समझो, जैसे समझी जाती है नई नई सीखी हुई भाषा!" बीबीसी


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