संजय शेफर्ड।
लड़कियां रहस्य नहीं होती। लड़कियां वैसी ही होती हैं। एक परिवार में जैसे कि एक मां, एक बहन, एक बेटी होती है। बेहद ही साधारण जीवों में से एक बेहद ही साधारण जीव।
जिसे एक बाप अपनी पलकों पर रखता है। चलते-चलते पांव थक जाएं तो उठाकर अपने कंधे पर बैठा लेता है। भाई लड़ता है, झगड़ता है और दुनिया में सबसे ज्यादा प्यार करता है।
एक मां कहने को तो एक लड़की को जन्म देती है लेकिन सच्चाई यह है कि अपनी बेटी के रूप में एक मां दुबारा जन्म लेती है। मैंने एक ही जन्म में एक मां को अपनी बेटी के रूप में सात-सात बार जन्म लेते देखा है।
कितनी साधारण बात है। जब एक लड़का एक लड़की से या फिर एक लड़की एक लड़के से प्यार करना सीखती है। भाई का पहला प्यार बहन, बहन का पहला प्यार एक भाई ही तो होता है।
फिर समीकरण कैसे बदल गए ? एक लड़की अपने अति साधारण रूप मां, बहन, बेटी से इतर रहस्य कैसे बन गई ? जिसे हर कोई चमड़ी दर चमड़ी बस उधेड़ना चाहता है।
बाप के कंधे, भाई की अंगुलियां, दोस्त की छाती, कहीं भी भरोसा नहीं कायम रह सका है।
एक औरत जो एक पुरुष के थके हुए माथे पर अपनी नर्म हथेलियां रखकर हर दर्द जीत लेती है।
एक औरत जो पैरों की थकान को अपनी अंगुलियों में समेट लेती है। वह अब पुरुषों की नजर में सिर्फ देह है, मांस का लबादा। इस देह अथवा मांस के लबादे में कोई मां, बहन, बेटी नहीं है और वह देह यह समझा पाने में दिन ब दिन नाकाम होती जा रही है कि तुम पुरुष हमीं में से किसी के बाप, भाई और बेटे हो। तुम हमारा ही खून हो अथवा तुम हमारे ही रक्त बीज हो।
कितनी विध्वंशक स्थिति है? बात इस निर्णायक मोड़ पर आ गई है कि पुरुष की सम्पूर्ण जाति बहसी भेड़िया है और भेड़िया भला किसी का बाप भाई और बेटा कैसे हो सकता है? हर घर-परिवार अपने बाप, बेटे और भाई को बरी कर चुका है। हर घर-परिवार महज़ अपनी मां, बहन, बेटी की सुरक्षा को देश की स्त्रियों की सुरक्षा मान चुका है।
समाज की सबसे छोटी इकाई को बरी किया जा चुका है। मतलब लड़ाई स्त्री-पुरुष की नहीं स्त्री-पुरुष विमर्श की लड़ाई है। मतलब यह कि इस लड़ाई को परस्पर जमीनी हकीकत से परे वैचारिकता की तरफ ठेला जा रहा है।
अब उन अति संवेदनशील घटनाओं पर जिसके लिए सपरिवार (जिसमें पुरुष और स्त्री दोनों होते हैं) हम सब किसी जगह मौन बैठकर आंसू बहाने के बाद, सिर्फ यह कहकर लड़कियों के भविष्य को सुनिश्चित कर लेते कि वह लड़की जिसका बलात्कार हुआ, वह लड़की जो मारी गई वह हमारी ही बहन बेटी और मां की तरह थी।
वह लड़का जिसने बलात्कार किया, जिसने उसे मारा वह भी हमारे ही बाप, बेटे, भाई की तरह किसी ना किसी लड़की का बाप, बेटा और भाई था।
यह दुखद है कि हमारे परिवार के पुरुष दूसरों के घर की स्त्रियों के प्रति अपने परिवार की स्त्रियों जैसी भावना नहीं रखते। लेकिन अफसोस यह बात परिवार तक आई ही नहीं। परिवार में आने से पहले ही सामाजिक बना दी गई।
कितने पुरुषों और स्त्रियों ने सपरिवार एक मत होकर अपने घर में इस बात पर अफसोस जाहिर किया? कितने पुरुषों ने अपने घर की स्त्रियों से यह कहा कि जो कुछ हुआ एक पुरुष के नाते हम शर्मिन्दा हैं? कुछ ने किया भी होगा तो सोशल मीडिया पर पब्लिक स्टंट की तरह से, है ना!
हम सब जो स्वयं अपने परिवार को एक मत नहीं कर सकते, हाथ में कैंडल लेकर सड़क पर निकल गए हैं। भाई हम सब किसको समझाना चाहते हैं?
यह बलात्कारी आसमान अथवा किसी दूसरे ग्रह से उतरकर नहीं आते। यह हमारे ही घर, हमारे ही अंदर बैठे हैं। खुदके अंदर झांककर तो देखो। क्या पता दो-चार बलात्कारी तुम्हारे अंदर से भी निकल आयें।
जाहिर सी बात है कि यह लड़ाई (जीवन में नहीं) महज़ कागज़ पर लड़ी जानी है। अब हम लोग अपने आपको एक से बढ़कर एक बुद्धजीवी के रूप में खुद को प्रदर्शित करने में लग गए हैं। अब इन घटनाओं पर अंततः राजनैतिक रोटियां सेंकी जाएंगी।
बलात्कार जैसी चीज को कभी वामपंथ तो कभी संघ के चश्में से देखा जाएगा। भाई तुम लोग कौन सी लड़ाई लड़ रहे हो? और किसके खिलाफ लड़ रहे हो?
यह सिर्फ और सिर्फ मानवता की लड़ाई है, यह सिर्फ और सिर्फ सामूहिक रूप से शर्मिन्दा होने का समय है।
जिस देश में 28 दिन की लड़की तक सुरक्षित नहीं हो, जिस देश में प्रतिदिन 100 बलात्कार दर्ज हो रहे हों, उस देश के मुखिया को देश में राष्ट्रीय शोक की घोषणा कर देनी चाहिए।
और ऐसा नहीं होता है तो खुदको टटोलिये! कहीं अगला बलात्कारी हमारे खुदके अंदर तो नहीं छुपकर बैठा है?
फेसबुक वॉल से।
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