संजय स्वतंत्र।
अपराजिता जैसी ज्यादा उम्र की युवतियां शादी न कर के भी कितनी खुश हैं। वे अपने जीवन के फैसले खुद करती हैं। बूढ़े हो चले मां-बाप का ख्याल रखती हैं। सबसे बड़ी बात कि अपनी जिम्मेदारियां पूरी करते हुए खुश रहना जानती हैं। अपने सभी सपने पूरी करती हैं। वे शादी न कर के भी सेटल हैं। क्योंकि वे आत्मनिर्भर हैं। किसी भी चीज के लिए मोहताज नहीं। लास्ट कोच शृंखला में ऐसी ही एक सशक्त युवती की कहानी आपके लिए।
खिड़कियों से धूप चुपके से कमरे में चली आई है। तेज अलार्म के साथ नीलाभ की नींद टूट गई है। पान की खुशबू अब भी घुली हुई है मुंह में। कल रात खाई कढ़ी-चावल की खुशबू सांसों में है। अपराजिता ने अपने हाथों से बना कर उसे खिलाया था। उसकी वह बात याद आ रही है, ‘दो मित्र गलत समय पर मिले न। मगर मिले तो सही। मैं कहीं भी रहूं। कभी भुलूंगी नहीं आपको। यह मेरी मित्रता का बिना किसी शर्त अलिखित अनुबंध है। आप मेरे जीवन के पहले पुरुष हैं, जिसने निस्वार्थ भाव से मित्रता निभाई। कभी कुछ नहीं मांगा। मांगा भी तो क्या? सिर्फ कढ़ी-चावल!’ उसकी खिलखिलाहट अब भी कानों में गूंज रही है। उसकी नीली चूड़ियों की खनक सुनाई पड़ रही है।
नीलाभ की नजर टेबल पर रखे अलार्म क्लॉक पर चली गई है। सेकंड की सुई टिक-टिक कर घूम रही है। घड़ी कितनी देर से जगा रही है और मैं सोया हूं। समय हमेशा मनुष्य को आगाह करता है, मगर वह जागता तब है, जब बहुत देर हो चुकी होती है। मुझे भी जाग जाना चाहिए। साब जी चाय लो। कमरे की सफाई के बाद विमला की बेटी ने उसे जगाते हुए कहा, तो वह जैसे कल से आज में लौट आया। सचमुच समय मुट्ठी में रेत की तरह है। फिसल ही जाता है। सात महीने कैसे बीत गए, पता ही नहीं चला। अपराजिता से मानो सात जन्मों का रिश्ता लगने लगा है।
नीलाभ हड़बड़ा कर बिस्तर से उठा। तरोताजा होने के बाद चाय पीते हुए सोचने लगा। नौकरी और करिअर बनाने की चिंता में आधी उम्र निकल गई। आज शादी न कर के भी खुश हूं। मगर मां-बाप सुनते कहां हैं? दरअसल, उन्हें समाज चैन से बैठने ही नहीं देता। अरे आप की बेटी तीस साल की हो गई और आपको फिक्र तक नहीं। शर्माजी आपका बेटा चालीस साल का हो गया। अब क्या बुढ़ापे में शादी करोगे उसका? और न जाने कितनी दिल दुखाने वाली बातें। ऐसे तंज से अकसर मां-बाप उकता जाते हैं और बच्चों पर दबाव बनाना शुरू कर देते हैं।
समय ने इशारा कर दिया है। मैं क्यों नहीं सुन रहा? नीलाभ ने सोचा। आज ही बात करूंगा अपराजिता से। वह इस बारे में सोच ही रहा था कि अपराजिता का फोन आ गया। कॉल पिक करते ही उसकी आवाज गूंजी- गुड मॉर्निंग। उठ गए आप? सुनिए न। मुझे शादी के लिए एक लहंगा लेना है। यह सुनते ही नीलाभ खिल उठा। उसने धप्प से उसके दिल में उतरते हुए कहा, मुझसे करोगी शादी? अरे अरे मैं लहंगा खरीदने जा रही हूं। शादी करने नहीं। वैसे मैं बिना शादी किए ही खुश हूं। आप मेरे साथ खुश नहीं हैं क्या? सुनिए एक सहेली की शादी है। उसी में जाना है। एक वेडिंग गाउन मेरे लिए पसंद कर दीजिए न। चलिएगा आज मेरे साथ चावड़ी बाजार? उसने इसरार किया। हां चलूंगा, नीलाभ ने जवाब दिया।
अपनी गाड़ी मेट्रो की पार्किंग में लगा कर वह लास्ट कोच में बैठ गया। नीलाभ सोचने लगा। अपराजिता जैसी ज्यादा उम्र की युवतियां शादी न कर के भी कितनी खुश हैं। वे अपने जीवन के फैसले खुद करती हैं। बूढ़े हो चले मां-बाप का ख्याल रखती हैं। सबसे बड़ी बात कि अपनी जिम्मेदारियां पूरी करते हुए खुश रहना जानती हैं। वे शादी न कर के भी सेटल हैं। यह क्या कम बड़ी बात है? ...... तभी बीप की ध्वनि ने नीलाभ का ध्यान खींचा। यह अपराजिता का मैसेज है- चांदनी चौक स्टेशन के बाहर मिलिए। उसने जवाब दिया- जी हुजूर। जो हुकुम। इस पर अपराजिता ने खुशी जताने के लिए स्माइली भेजी है।
अगला स्टेशन गुरुतेग बहादुर नगर है। दरवाजे बायीं ओर खुलेंगे। उद्घोषणा हो रही है। स्टेशन पर मेट्रो रुकते ही कई यात्री सवार हो गए हैं। इनमें कॉलेज की लड़कियां भी हैं। आजकल फिर पुराना फैशन लौट आया है। एक युवती के बड़े-बड़े झुमकों ने नीलाभ का ध्यान खींच लिया है। वह साड़ी में पुरानी फिल्म परख की नायिका जैसी लग रही है, जो गांव की पगडंडियों पर मिले झुमके को पाकर गाती फिरती है-
मिला है किसी का झुमका, ठंडे-ठंडे हरे-हरे नीम तले, सुनो क्या कहता है झुमका प्यार का हिंडोला यहां, झूल गए नैना, सपने जो देखे मुझे, भूल गए नैना, हाय रे बेचारा झुमका। बेचारा यह झुमका बरसों बाद फिर लौट आया है। आधुनिक विचारों वाली युवतियों के कानों में फिर से झूलने लगा है।
ऐसा झुमका उसको कितना अच्छा लगेगा। नीलाभ ने सोचा। उसकी आंखों के आगे अपराजिता का चेहरा सामने आ गया है। मोतियों सी दंतपंक्तियों के बीच गुलाबी होठों से कोई प्यारी सी बात दबाती अपराजिता अकसर उसके ख्यालों में बेधड़क चली आती है।
आज तो वह एक बड़ा सा झुमका दिला कर रहेगा। फिर सोचा कि वह इस बात से कहीं नाराज न हो जाए कि मैं तो उसके पीछे ही पड़ गया हूं। आखिर वह एक स्वाभिमानी युवती है। पुरुषों को स्त्रियों की खुद्दारी से डर लगता है। और डरना भी चाहिए। उनकी निजता और सीमाओं का ध्यान रखना ही चाहिए।
खैर नटखट झुमके से याद आया कि अपराजिता के माता-पिता की शादी कभी सफल नहीं रही। दोनों कुछ सालों बाद अलग हो गए थे। मां ने ही अपरा को पाला। शादी के प्रति उपेक्षा का भाव और खुद अपने दम पर जीने का उसमें जज्बा शायद इसी कारण आया। नहीं तो लड़कियों के सभी शौक हैं अपराजिता में। वह जितनी मार्डन हैं, उतनी ही पारंपरिक भी। फिर शादी को लेकर उसका नकारात्मक भाव क्या पितृसत्तात्मक व्यवस्था का विरोध है? कौन जाने? मैं भी नहीं जानता। नीलाभ ने सोचा इस बीच कई स्टेशन निकल गए हैं। अगला स्टेशन चांदनी चौक है। दरवाजे दायीं ओर खुलेंगे। उद्घोषणा हो रही है। वह सीट से उठ गया।
स्टेशन के बाहर अपराजिता खड़ी है। नीली जींस और सफेद शर्ट में वह खूब फब रही है। नीलाभ को देखते ही वह मुस्कुरा उठी है। उसका चेहरा गुलमोहर हो गया है। एकदम नारंगी सा। उसके अधरों पर गुलाब खिल उठे हैं। नीलाभ ने लपक कर उसके दोनों हाथों को थाम लिया। स्टेशन से बाहर वे निकले तो जून की तपती धूप ने दोनों को बेचैन कर दिया। रिक्शे पर बैठते ही वह बोली, मेरा तो गला सूख रहा है। नीलाभ ने अपने आफिस बैग से पानी की बोतल निकाल कर देते हुए कहा- लो पियो।
तभी रिक्शे वाले ने कहा, कहां चलेंगे बाबू? अपराजिता ने जबाब दिया, परांठे वाली गली ले चलो भैया।अरे वहां कहां ले जा रही हो मुझे, नीलाभ ने टोका तो उसने कहा, भूख नहीं लगी है क्या? सुबह से आपने कुछ नहीं खाया होगा। मालूम है बस चाय पीकर चले आए होंगे बाबू साहब। है न? चलिए पहले कुछ खा लेते हैं। फिर होगी शॉपिंग। धूप के कारण पसीने से तरबतर रिक्शे वाले ने सिर पर अंगोछा धर लिया है। सड़क पर पैदल यात्री बेहाल हैं। चलना मुुश्किल है। रिक्शे रेंगते हुए चल रहे हैं। ठेले वालों ने मुश्किलें बढ़ा दी हैं। कुछ ही मिनट में वे परांठे वाली गली के पास पहुंच गए।
रिक्शे से उतरते ही अपराजिता ने कहा, चलिए मैं आज आपको परांठे खिलाती हूं। वह एक दुकान में उसे ले जा रही है। वहां बैठने तक की जगह नहीं। फिर भी अपरा ने जगह बना ली है। उसी के आदेश पर वेटर दो थालियों में मटर और काजू के परांठे रख गया है। साथ में इमली की चटनी, तरी में डुबकी लगाते आलू और दो गिलास में ठंडी लस्सी। गरमा-गरम परांठों पर अपराजिता टूट पड़ी है। नीलाभ को यूं ही बैठे देख कर बोली, अरे सोच क्या रहे हैं। शुरू हो जाइए। बेहिचक डट कर खाइए। कुछ नहीं होगा।
जम कर परांठे खाने के बाद वह खरीदारी के लिए तैयार है। दोनों पैदल ही पुरानी दिल्ली की गलियों की खाक छानने निकल पड़े हैं।
नई सड़क पर दोनों ने कई दुकानों के चक्कर लगाए। एक से बढ़ कर एक परिधान देखे, मगर एक भी पसंद न आया। वहीं सड़क पर कोई न कोई दलाल मिल जाता। सब यही कहते, मैडम, हमारी दुकान पर चलिए। वहां आपको काफी वेराइटी मिलेगी। आखिरकार एक दुकान पर अपराजिता को नीले रंग का लहंगा पसंद आ गया। उसका मन मयूर नाच उठा। अरे यही तो चाहिए था मुझे, अपराजिता ने झूमते हुए कहा। ट्रायल रूम में उसे पहन कर वह बाहर आई है। उसने इठलाते हुए पूछा, कैसी लग रही हूं मैं? पैदल चल कर थक गए नीलाभ के चेहरे पर मुस्कान तैर गई है।
शोरूम से लहंगा पैक करवा कर अपराजिता बाहर निकली तो उसके कदम किनारी बाजार की ओर बढ़ चले। तंग गलियों में चलना कितना मुश्किल है। आलम यह कि इन गलियों में स्कूटर सवार से लेकर रिक्शेवाले भी घुस आते हैं। वे आवाज लगाते हुए चलते हैं-भाई जी जरा देख के। बहन जी जरा संभल के। आभूषणों की छोटी-छोटी दुकानें यहां हैं। तभी अपराजिता एक दुकान में घुस कर झुमकियां देखने लगी है। नीलाभ उसके पीछे जाकर खड़ा हो गया। फिर उसके कानों में फुसफुसाते हुए बोला, देवी जी, कैसे पता चला कि मैं भी आपके लिए झुमके ही तलाश रहा हूं। श्रीमन हम आपका चेहरा देख कर जान जाते हैं कि आपके दिल में क्या चल रहा है।
उसने एक के बाद एक कई झुमके देख डाले। कोई पसंद न आया। फिर अपराजिता छोटी सी एक दुकान में जाकर स्टूल पर बैठ गई। नीलाभ से कहा, आइए बैठिए न। शोकेस में टंगे झुमकों के बीच चांद के आकार का झुमका उसे पसंद आया है। तो चांद को चांद चाहिए। उसे कानों से लगा कर अपराजिता बोली, देखिए तो कैसा लग रहा है। नीलाभ ने कहा, अच्छा है। इस पर उसने कहा, क्या बहुत अच्छा नहीं है क्या। रुकिए मैं पहन कर दिखाती हूं।
उसने अपने कान की हीराजड़ित बालियां उतार कर नीलाभ की दायीं हथेली पर रख दी है। संभालिए इसे। मैं जरा ये वाली पहन कर दिखलाती हूं, उसने कहा। नीलाभ ने मुट्ठी बंद कर ली है। दोनों बालियों में गरमाहट है। ऐसा लग रहा है, मानो अपराजिता उसकी हथेलियों पर उतर आई है। वह कहीं खो न जाए, यह अहसास होते ही नीलाभ ने कस कर मुट्ठी भींच ली है। जैसा कि आदत है। अपराजिता अब मोलभाव करने लगी है। चांद को चांद जैसा बड़ा झुमका पसंद आ गया है। उसमें मोतियों का काफी काम है। नीलाभ ने इसे खुद खरीदने की पेशकश की तो स्वाभिमानी अपराजिता ने उसके प्रस्ताव को ठुकराते हुए कहा- नहीं पैसे तो मैं दूंगी। आप मेरे साथ हैं, यही क्या कम है।
झुमकों की भी खरीदारी हो गई तो दोनों लौट चले। किनारी बाजार की गलियों में चलते हुए अपराजिता ने नीलाभ को स्कूटर-मोटरसाइकिल से टकराने से कई बार बचाया। वह उसकी हथेलियों को थाम कर कई बार वह पसीजा। कई बार खुद में गुम हुआ। बीच-बीच में वह पूछ लेती, कहां खो जाते हैं आप। मैं साथ चल रही हूं और आपको मेरी फिक्र नहीं। मुझे आपकी करनी पड़ रही है। यह कहते हुए वह किनारे खड़े ठेले वाले के पास जाकर खड़ी हो गई।
ठेले पर कमलगट्टे बेच रहे शख्स की आंखों में उम्मीद की लौ दिख रही है। बेचारा ग्राहक के इंतजार में काफी देर से खड़ा होगा। नीलाभ के लिए यह कोई नया फल है। अपरा फिर मोलभाव करने लगी है। उसने दो कमलगट्टे खरीद लिए हैं। नीलाभ ने अचरज से पूछा, इसे खाओगी कैसे? अभी बताती हूं, यह कहते हुए वह नाखून से उसे छीलने लगी है। कमलगट्टे के छोटे-छोटे सफेद बीज बाहर निकल आए हैं। सचमुच यह तो अद्भुत फल है। इसे मैं पहली बार खाने जा रहा हूं, नीलाभ ने कहा। मुख्य सड़क आने तक अपराजिता बीज छील-छील कर उसे खिला रही है।
वे रिक्शे पर बैठ गए हैं। सड़क पर अंधेरा हो चला है। रास्ते में एक दूसरे का चेहरा तक नहीं दिखाई दे रहा था। नीलाभ ने अपराजिता की नरम हथेली को अपने हाथ में लेते हुए कहा, ‘सुनो अपरा मुझसे शादी कर लो। अब ये मौन संवाद और ये अकेलापन सहा नहीं जाता।’ इस पर अपराजिता ने धीमे से कहा, ‘पागल हो गए हैं क्या। रिक्शेवाला सुनेगा तो क्या सोचेगा, हमारे बारे में। मैं शादी न कर के भी सेटल हूं आपके साथ। आप हमेशा मेरे दिल में रहते हैं।’ अंधेरे का फायदा उठाते हुए अपरा ने नीलाभ के गालों को चूमते हुए हुए धीरे से कहा, ‘मगर आप मेरे बच्चों के पापा बन सकते हैं।’ वह हंस रही है। उसकी बात सुन कर वह अचरज में डूब गया है।
नीलाभ ने उसकी हथेलियों को सहलाते हुए कहा, ‘पागल हो गई हो। बिना शादी किए बच्चे?’ ‘अरे बाबा मैं बच्चे पैदा नहीं कर रही। अनाथालय जाकर एक बच्ची गोद लूंगी। फिर मैं मम्मी और आप पापा’, अपराजिता ने उसके बालों को सहलाते हुए कहा, सुनिए मिस्टर नीलाभ, इसमें कुछ भी गलत नहीं। उस बच्ची को पाल कर एक नारी को ही सशक्त बनाऊंगी। और खुद भी सशक्त बनूंगी। आप मेरा साथ देंगे न? नीलाभ ने पलकें झपकाते हुए कहा, हां, हमेशा अपराजिता।
बातों-बातों में वे मेट्रो स्टेशन के सामने पहुंच गए हैं। रिक्शे से उतरते ही एक नन्हीं बच्ची ने उनके आगे हाथ पसार दिया है। नीलाभ और अपरा, दोनों नेअपने हाथ स्नेह से उसकी ओर बढ़ा दिए हैं। अपराजिता ने पूछा, क्या खाओगी बच्ची? चाकलेट खाओगी? बच्ची की आंखें चमक उठी हैं। नीलाभ ने उसे गोद में उठा लिया है। अपराजिता ने अपने बैग से कई चाकलेट निकाल कर उसकी मुट्ठी में धर दिए हैं। नीलाभ ने बच्ची की जेब में पचास का नोट रख कर कहा, बिस्कुट खाओगी? ....... वे सामने चाय की दुकान की ओर बढ़ चले हैं। दुकान पर गीत बज रहा है-
सजी नहीं बारात तो क्या,
आई न मिलन की रात तो क्या,
ब्याह किया तेरी यादों से
गठबंधन तेरी वादों से,
बिन फेरे हम तेरे
यह गीत काफी देर तक गूंजता रहा। देर तक चुभता भी रहा। राजीव चौक स्टेशन पर विदा करते समय अपराजिता उदास दिख रही है। नीलाभ उसके चेहरे को पढ़ रहा है। उसकी आंखें नम हैं। लास्ट कोच में लौटते हुए वह सोच रहा है। कुछ रिश्ते सामाजिक बंंधन के मोहताज नहीं होते। जहां बंधन है, वहां घुटन है। यों भी स्त्री-पुरुष के हर रिश्ते में चुटकी भर सिंदूर मायने नहीं रखता। न सात फेरों की दरकार होती है। हर स्त्री अपने पुरुष से समय और सम्मान चाहती है। वह उसमें अपने पिता को ढूंढ़ती है। और पुरुष उसमें अपनी मां को तलाशता है। वैसा ही प्यार... वैसी ही देखभाल, वैसी ही चिंता, जैसे एक मां करती है।
तभी बीप की ध्वनि ने नीलाभ का ध्यान खींच लिया है। यह अपराजिता का मैसेज है- कहां पहुंचे? अपना ध्यान रखिए। बहुत कमजोर हो गए हैं आप। और हमेशा मुस्कुरते रहिए। मैं कहीं भी रहूं, हमेशा आपके पास ही हूं। नीलाभ ने भी मन ही मन कहा तुम अकेली नहीं परा मैं हूं न। तुम्हारी मुस्कान में मैं ही हूं। इसलिए मैं भी कहां दूर हूं। मेट्रो तेज रफ्तार से चली जा रही है। अपराजिता उसकी आंखों के सामने है। वह उसके बालों को सहला रही है । सचमुच वो मां बन गई है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।
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