दविंदर कौर उप्पल।
मतदाता के रूप में मैं अपने मतदान केंद्र की व्यवस्था से काफी असंतोष हुआ।
स्कूल भवन में 6 पोलिंग बूथ थे। 8 बजे से पहले ही मुख्य गेट के बाहर लाइनें लगनी शुरू हो गईं थीं। मै भी लगभग 7.50 पर पहुंच गई थी। गेट पर खड़े विनम्र पुलिस कर्मी की घड़ी के अनुसार 8.00 बजे भवन के अंदर जाना शुरू हुआ। वैसे मेरी घड़ी कह रही थी कि उन्होंने 8.00 कुछ देर से बजाए। बड़ी बात नहीं थी। देर हो ही जाती है।
मतदाता के रूप में अपने पर्याप्त लंबे अनुभव और परिवार के 7 भाई बहनों के सरकारी अध्यापक की नौकरी में रहने के कारण, समय समय पर उनके द्वारा चुनाव में निभाई गई जिम्मेदारियों के सुने विवरण के आधार पर कह सकती हूं कि इस बार मेरे मतदान की व्यवस्था लचर थी।
बूथ क्रमांक 5 के सामने लगी लाइन लंबी होती जा रही थी। लग रहा था कि कोई वोट देकर कोई बाहर अा ही नहीं रहा। फिर जब अंदर गई तो धीमी गति के कई कारण समझ में आए।
दरवाजे के अंदर जाते ही दाहिनी ओर दरवाजे के पास ही दो पुरुष बैठे थे। समझ में आ गया कि ये राजनैतिक दलों के एजेंट हैं । सबसे पहले उनमें से वरिष्ठ दिखने वाले से एक एजेंट ने मेरी 'परची' लेकर, उसे एकदम आंख के पास लेजाकर उसका नंबर देखा, फिर दूसरे एजेंट ने पहले से नंबर पूछ लिया और अपनी सूची में निशान लगा लिया। ( मेरे मन में यह प्रश्न जरूर आया कि क्या एक मतदाता के लिए यह वांछनीय है कि किसी दल के एजेंट को वह अपना मतदाता नंबर दे। इस संबंध में चुनाव आयोग द्वारा वितरित निर्देशिका में कोई संकेत नहीं था।)
दरवाजे से थोड़ा अन्दर जाते ही सामने एक चुनाव कर्मी पूरी सूची लेकर बैठे थे। उन्हें चुनाव आयोग द्वारा दी गई परची के
आधार सूची में मेरा नाम खोजने में बहुत मुश्किल जा रही थी। मुझे इसके तीन कारण समझ में आए -
1. उन कर्मी में, मेरी मतदाता संख्या के आधार पर तुरन्त सूची की पृष्ठ संख्या का अनुमान लगाने के चातुर्य की कमी थीं ( जो की एजेंट ने बहुत जल्दी लगा की थी)।
2. उन कर्मी की दृष्टि कमजोर थी, क्योंकि पृष्ठ सामने आने पर भी उन्हें चेहरा पहचानने और नाम पढ़ने में समय लग रहा था। मैंने जब अपना चित्र उल्टी दिशा से पहचान लिया तो उनसे कहा कि देखिए यह है मेरा चित्र। फिर उन्होंने "हां -हां " कहा और पास बैठी महिला कर्मी को मेरा नम्बर बताया; इस महिला ने मेरी लिए एक छोटी से पर्ची बनाई और मैं उंगली में स्याही लगाने वाली महिला के पास चली गई।
3. कमरे में उस जगह पर प्रकाश व्यवस्था बहुत कम थी जहां सबसे पहले जिम्मेदार कर्मी बैठे थे और उन्हें सूची उठाकर पढ़ने के लिए, दरवाजे से आ रहे प्रकाश का सहारा लेना पड़ रहा था।
4. उन कर्मियों को दिया गया फर्नीचर याने कुर्सी -टेबिल बहुत ही असुविधाजनक था। कुर्सी पर ध्यान नहीं दे पाई पर उन्हें झुकना पड़ा था, टेबिल तो बहुत ही नीचा और छोटा था ( चाय के टेबिल की तरह का ) जिस पर पूरी तरह सचेत होकर, स्मार्टली, काम करना हो ही नहीं सकता था।
यह एक स्कूल का भवन था, स्वाभाविक ही इसमें अध्यापकों और विद्यार्थियों के लिए ऊंचे, लिखने वाले टेबिल होंगे। सोचने की बात है कि चुनाव व्यवस्था में उनका उपयोग क्यों नहीं हुआ। स्कूल मना तो कर ही नहीं सकता था। या टेबिल किराए से लेने चाहिए थे। 9 घंटे की चुनाव जिम्मेदारी में कर्मियों के लिए स्मार्ट बैठक व्यवस्था होनी चाहिए थी। उनके टेबिल पर प्रकाश व्यवस्था ( जरूरत पड़ने पर टेबिल लैंप होना चाहिए
था) पर्याप्त होनी चाहिए थी।
बूथ में एक और कर्मी थे, जो खड़े हुए थे और थोड़ा टहल रहे
थे। वे शायद आकस्मिक मदद करने के लिए थे। मैंने जब वोट दे दिया और मशीन से आवाज अा गई तो निशान लगाने वाली महिला ने कहा - "हो गया"।मैं दी गई निर्देशिका के अनुसार अपने वोट का या परची का चित्र देखना चाहती थी तो थोड़ा समय लिया। टहलने वाले कर्मी " हो गया, हो गया " कहते उस मशीन की आने लगे, मैंने उन्हें थोड़ा ऊंची आवाज में बरजा कि वे वहां नहीं आ सकते। खैर उन्होंने तुरन्त अपने कदम पीछे खीच लिए।
अगली बार की मातदाताओं की निर्देशिका में यह भी बताया जाना चाहिए कि मतदाता बूथ में कितने चुनाव संबंधी कर्मी होंगे, पार्टी एजेंटों को परची दिखाना चाहिए या नहीं आदि आदि।
चुनाव मुबारक हो।
कुल मिलाकर यह सब लिखने का आशय है कि चुनाव मतदान में जिम्मेदारी निभाने वाले कर्मियों को(जिनमें से अधिकतर अध्यापक होते हैं) प्रकाश और बैठने की बेहतर सुविधाएं दी
जानी चाहिए जिससे वे थके से , डरे से, पराजित से ना दिखाई दें। उनके चेहरों पर मुस्कुराहट हो, मतदाता से संवाद करती मुस्कुराहट।
लेखिका माखनलाल पत्रकारिता वि.वि. में प्रोफेसर और सागर में व्याख्याता रही हैं। यह आलेख उनके फेसबुक पोस्ट से लिया गया है।
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