Breaking News

वेलकम टू द वर्ल्ड ऑफ कैंसर : विभा रानी की कविताएं

वामा, वीथिका            Oct 07, 2016


डॉ.प्रकाश हिंदुस्तानी।

सेलेब्रेटिंग कैंसर’ सीरिज के तहत विभा रानी का कविता संग्रह समरथ प्रकाशित किया गया है। प्रकाशक भी अवितोको रूम थिएटर की अवधारणा प्रस्तुत करने वाला अवितोको है। अवितोको का मतलब है अजय (ब्रह्मात्मज), विभा (रानी), विधा (सोम्या) और कोशी। हाल ही में विभा रानी कैंसर पर विजय पाकर सामान्य जीवन में लौटी है। उनका यह काव्य संग्रह द्वैभाषिक है। हिन्दी की कविताओं के साथ-साथ सभी कविताओं का अंग्रेजी अनुवाद भी मौजूद है। अनुवादक हैं निगहत गांधी, स्वप्निल दीक्षित और पत्रकार वत्सला श्रीवास्तव। विभा रानी का कहना है कि यह किताब और इसकी कविताएं ज्यादा बड़े पाठक वर्ग तक पहुंचे, इसीलिए इसे हिन्दी के साथ-साथ अंग्रेजी में भी प्रकाशित किया गया है। विभा रानी इंडियन ऑयल कार्पोरेशन लिमिटेड में अधिकारी हैं। कविताएं भी लिखती हैं और रंगमंच पर अभिनय भी करती हैं। वे 15 से अधिक नाटक, दो फिल्में, एक टीवी सीरियल और 20 किताबें लिख चुकी हैं। मैथिली फिल्म ‘मिथिला मखान’ को राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुका है। इसके गाने विभा रानी ने ही लिखे हैं। अपने निवास पर वे अवितोको रूम थिएटर के रूप में रंगमंच को लोकप्रिय बनाने की दिशा में कार्य कर रही हैं। लोक कलाओं से ही उनका गहरा नाता है और वे अपने आप को लोक कलाकार कहने में फख महसूस करती हैं।  समरथ की कविताएं उन्होंने उन सभी लोगों को समर्पित की है, जिन्होंने कैंसर को कैंसर मानने से इनकार किया और जीवन को जीने का हर भरोसा और मौका दिया। यह किताब उन लोगों के नाम भी समर्पित है, जिन्हें कैंसर ने अपने खाते में दर्ज कर लिया। संग्रह की भूमिका में विभा रानी ने लिखा है कि कैंसर! यानी- रोगी और उसके अजीजों की जैसे जीते-जी मौत। यहीं हम आज तक मानते-समझते आए हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि कैंसर एक बेहद खतरनाक और जानलेवा बीमारी है। शायद ही कोई हो, जो चाहेगा कि उसे या उसके करीबियों में से किसी को भी यह रोग लगे... मैंने भी कभी नहीं सोचा था। तमाम जांच-पड़ताल के बाद जब विभा रानी को कैंसर होने की पुष्टि हुई, तब उनके सामने दो ही स्थितियां थी कि या तो वो हालत का मुकाबला रो कर करें या हंसकर करें। विभा रानी ने दूसरा विकल्प चुना। इसी कारण वे खुद भी हंस सकी और उनके आसपास के लोग भी मुस्कुरा सके। उन्हें लगा कि कैंसर से माहौल वैसे ही गमगीन बन जाता है, तो क्यों न इससे जूझने जैसे शब्द के बदले इसे ‘मनाने’ या ‘सेलेब्रेट करने’ जैसे शब्द का इस्तेमाल किया जाए। इससे हमें खुद के ऊपर हंसने और जीवन को सकारात्मक पहलू से देखने की बड़ी आसान राह मिल गई। इलाज के दौर में उन्होंने सेलेब्रेटिंग कैंसर लेख लिखा। जो ‘बिंदिया’ पत्रिका में छपा। इस लेख से भी बहुतों को कैंसर को समझने की प्रेरणा मिली। विभा रानी ने अक्टूबर 2013 से अगस्त 2014 के बीच के 11 महीने कैंसर को नए-नए रूपों में देखा। इस दौरान उन्होंने कुछ कविताएं भी लिखी। इनमें से कुछ कविताएं बैंगलुरू के कविता महोत्सव में पढ़ी जा चुकी है।

विभा रानी की कुछ कविताएं यहां प्रस्तुत है:

कैंसर का धुआं!

सिगरेट का धुआं धुएं में भविष्य भविष्य में वर्तमान, वर्तमान में अतीत सिगेरट का धुआं, जीवन का धुआं!

कैंसर - अविकल, अविचल!

हम समझदार हैं, वर्तमान हमसे कांपता है, भविष्य हम पर इतराता है, अतीत मुंह चुराता है, वक्त के जबड़े में हम हमारी हथेली में सिगरेट, धुआं, शराब, तम्बाकू, गुटखा और अपने होने का ताकतमय एहसास, अदम्य है आकर्षण नीति शोभती हैं किताबों में, हम हैं अविरल, अविकल, अविचल!

गांठ

गांठ मन पर पड़े या तन पर भुगतते हैं खामियाजे तन और मन दोनों ही एक के उठने या दूसरे के बैठने से नहीं हो जाती है हार या जीत किसी एक या दोनों की। गांठ पड़ती है कभी पेड़ों के पत्तों पर भी और नदी के छिलकों पर भी। गांठ जीवन से जितनी जल्दी निकले उतना ही अच्छा। पड़ गए शगुन के पीले चावल, चलो, उठाओ गीत कोई। गांठ हल्दी तो है नहीं जो पिघल ही जाएगी कभी न कभी बर्फ की तरह।

गांठ : मनके-सी!

एक दिन मैंने उससे कहा देखो न! गले में पड़े मनके की तरह उग आई हैं गांठें। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि गले से उतारकर रखी गई माला की तरह ही हौले से गांठ को भी निकालकर रख दें किसी मखमली डब्बे में बंद उसकी आंखों में दो मोती चमके और उसने घुट घुट कर पी लिया अपनी आंखों से मेरी आंखों का सारा पानी। गांठ गाने लगी आंखों की नदी की लहरों की ताल पर हैया हो... हैया हो... माझी गहो तवार, हैया हो..।

छोले, राजमा, चने सी गांठ!

उपमा देते हैं गांठों की अक्सर खाद्य पदार्थों से चने दाल सी, मटर के साइज सी भीगे छोले या राजमा के आकार सी छोटे, मझोले, बड़े साइज के आलू सी। फिर खाते भी रहते हैं इन सबको बिना आए हूल बगैर सोचे कि अभी तो दिए थे गांठों को कई नाम-उपनाम उपनाम तो आते हैं कई-कई पर शायद संगत नहीं बैठ पाती कि कहा जाए- गांठ- क्रोसिन की टिकिया जैसी बिकोसूल के कैप्सूल जैसी। सभी को पता है आलू से लेकर छोले, चने, राजमे का आकार-प्रकार क्या सभी को पता होगा क्रोसिन-बिकोसूल का रूप रंग? गांठ को जोड़ना चाहते हैं- जीवन की सार्वभौमिकता से और तानते रहते हैं उपमाओं के शामियाने-चंदोबे!

कैंसर का जश्न!

क्या फर्क पड़ता है! सीना सपाट हो या उभरा चेहरा सलोना हो या बिगड़ा सर पर घने बाल हों या हो वह गंजा! जिंदगी से सुंदर, गुदाज और यौवनमय नहीं है कुछ भी। आओ, मनाएं, जश्न- इस यौवन का जश्न- इस जीवन का!

पॉप कॉर्न सा ब्रेस्ट!

पॉप कॉर्न सा उछलता बिखरता ब्रेस्ट कैंसर। यहां-वहां, इधर-उधर जब-तब, निरंतर। प्रियजन, नाते-रिश्तेदार हित-मित्र, दोस्त-यार। किसी की मां किसी की बहन किसी की भाभी किसी की बीबी कोई नहीं तो अपनी पड़ोसन। दादी-नानी भी नहीं है अछूती न अछूता है रोग। आने पर ब्रेस्ट कैंसर की सवारी खोजते हैं आने की वजह? लाइफ स्टाइल? स्ट्रेस? लेट मैरिज? लेट संतान? एक या दो ही बच्चे? नहीं कराया स्तन-पान? डॉक्टर और विशेषज्ञ हैं हैरान नहीं पता कारण नहीं निष्कर्ष इतना आसान हर मरीज के अपने लक्षण अपने-अपने कारण। पूछते हैं सवाल एक से- कैसे हो गया? जवाब जो होता मालूम तो फेंक आते किसी गठरी में बांधकर किसी पर्वत की ऊंचाई पर या पाताल की गहराई में पॉप कॉर्न से कैंसर के ये दाने।

कैंसर- जीवन का एक पड़ाव!

अपना हौसला अपनोें का प्यार अपना इलाज अपनी देखभाल एक अपना सा अहसास सांस के साथ इत्ता भर तो चाहिए जिंदगी के हर मोड़ पर। कैंसर भी इसी जीवन का है एक पड़ाव- जिसकी जलती धूप में मिलती है आशाओं की छांव। मन को ना मारो मन को ना हारो मन को ना रोको मन को ना टोको। मन से बस इतना ही कहो यह सबकुछ जो है, अपना है, अपना! जियेंगे इसी अपने की धूप-छांह के संग कैंसर हो या काली रात!

कैंसर का राग!

दस मिनट में ही हांफ जाती है सांस चलने या बोलने में। सीना बजाने लगता है धौंकनी का राग सर छेड़ता है तान गिन-गिन का मन घूमता है गोल गोल या तन पता नहीं चल पाता कुछ भी। सब जैसे एक में गड्ड-मड्ड। नाखूनों पर चढ़ गया है गाढ़े गुड़ सा पॉलिश नसों में फैल चुका है केमो का काला संजाल मुंह में छाले और पेट में आग का जंगल कहां समा ले जाता है सारा खाना खोज पाया है जंगल में भला इनका सामान कोई बदन की दर्द भरी ऐंठन ता थई ता थई बोले या नाचे बीथोवेन की दर्द भरी कसकती धुन पर। या ठुमके जैज, वायलिन या गिटार पर या पंजाबी या बॉलीवुड के गीतों की धुन पर। जमती हवा पिघलकर निकलती है बदन के हर रास्ते बादल से भी बड़ा और आसमान से भी ऊंचा राग है कैंसर और केमो का बच तो सकते नहीं, तो आओ मनाएं जश्न कैंसर के राग का, केमो के फाग का यकीनन इसी से निकलेगा राग जीवन का!

भीगे कंबल सा माहौल!

आप मानें या न मानें पल भर को हो तो जाता है भीगे कंबल सा भारी माहौल सूखे मलमल सा हल्का भी, जब डॉक्टर करता है मजाक एक हलकी मुस्कान के साथ- ‘वेलकम टू द वल्र्ड ऑफ कैंसर’ या ‘केमो डोंड सूट एनीवन!’ जब देता है उदाहरण कैंसर सेल्स का आतंकवादी से और इलाज को एनएसजी कमांडो से। उसे भी पता है और मरीज को भी कि बड़े-बड़े मेडिकल टम्र्स से नहीं हो सकता भला आम मरीज का उन्हें समझाने के लिए सुनाने ही पड़ेंगे किस्से दादी-नानी की तरह सुननी ही पड़ेगी बकवास जैसी जिज्ञासाएं मरीजों की। समझाना ही पड़ेगा, दिलाना ही होगा यकीन का झुनझुना और उसके नीचे से कराने होंगे सारे कागजादों पर दस्तखत... कि हो रहा है यह इलाज रोगी की इच्छा से। होने पर कोई ऊंच-नीच, नहीं होंगे हम जिम्मेदार। हमारी गर्दन और नाई का उस्तरा देना हमारी मजबूरी हो, चलाना उनका अधिकार! क्या यह संभव है कि हर व्यक्ति रखे हर मेडिकल टर्म या जीवन के हर क्षेत्र की जानकारी? इसीलिए डॉक्टर करते हैं हल्का माहौल छोड़ते हैं एकाध पीजे, बनाते हैं अपनी रणनीति सर्फ कर देते हैं तारीफ उनके गुणों की। फलता-फूलता है इस तरह से मेडिकल व्यवसाय। वो सहाय, हम निस्सहाय। उनकी बढ़ती और हमारी खाली होती जाती गठरी। मोटापा कठरी और मन का- सुनिश्चित तो करना है आपको ही इसलिए सीखना होगा मुस्काना-आपको भी और आपको ही।



इस खबर को शेयर करें


Comments