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पुस्तक समीक्षा:रचना का रंगरसिया असाधारण है, उसके इश्क का कर्ज कैसे उतारे?

वामा            Apr 29, 2022


संजय स्वतंत्र।
रोटी की भूख गहरी होती है या प्यार की? मां की छाती से उतरता दूध भी तो प्यार ही है। तो इस रोटी और प्यार की भूख के बीच सम्मान और स्नेह से गुंथे भाव को जब मैं तौलता हूं, तो प्रेम का पलड़ा कहीं अधिक भारी पाता हूं।

दो रोटी बाद में खा लेंगे, मगर मनुष्य को पहले प्रेम चाहिए। एक ऐसा प्रेम जिसकी धुन हवा में लहराती हो। आपके कानों में चुपके से आकर गुनगुनाती हो। यूं ही नहीं कहते कि इश्क इबादत है।

इन दिनों नई कवयित्रियों की रचनाओं में जाति-धर्म से मुक्त नए समाज की रचना करने की चाहत लिए नायिकाएं अकसर रूहानी प्रेम की खूशबू घोलती नजर आती हैं। वह पुरुष की शक्ति हैं। वह अनंत काल से तृषित नेत्रों में जल बन कर तैर जाती हैं।

वे इसकी तृप्ति हैं- जब यार देखा नैन भर, दिल की चिंता गई उतर। इस तरह पुरुष की सारी चिंताओं को वह अपनी बांहों में समेट लेती हैं। क्योंकि उनका जन्मों का नाता है।

लेखिका और कवयित्री रचना भोला यामिनी का काव्य संग्रह ‘मन के मंजीरे’ पाठकों को बेहद आकर्षित करता है। उनकी कविताएं रूहानी प्रेम की अनंत यात्रा पर ले जाती हैं।

ये कविताएं और कुछ नहीं दरअसल लव नोट्स हैं।

 

रचना जी कहती हैं-यह प्रेम है किसी के लिए, जो मेरे जीवन में ईश्वर के अनकहे वचनों का संदेश बन कर आया।

अपने आत्मीय साथी, अपने हमसफर और अपने रंगरसिया को समर्पित रचना जी की कविताओं को पढ़ना रूहानी प्रेम से साक्षात्कार के समान है।

इस प्रेम के लिए एक आत्मीय साथी जरूरी है, चाहे वह साकार हो या निराकार। रचना जी इसे दोनों रूप में देखती हैं। दो जिस्मों के मिलन में क्षण भर का सुख है।

मगर जब दो रूह मिलते हैं तो अखंड और निर्मल सुख की अनंत यात्रा शुरू होती है।

मेट्रो में अकसर दैहिक प्रेम में सिमटी युवा पीढ़ी दिखाई देती है। उनका एक दूसरे को सहज ही चूम लेना जिस्मानी प्रेम ही है जो रूहानी सफर पर शायद ही निकलता हो।

उपभोक्तावाद की भेंट चढ़ चुकी इस पीढ़ी से हम कोई उम्मीद भी नहीं करते। मगर वे कुछ ऐसा भाव तो लाएं जिससे मन के मंजीरे बज उठें।

दैहिक प्रेम में उलझी ऐसी ही जोड़ियों के लिए रचना जी की पंक्तियां जैसे रूहानी दुनिया के दरवाजे खोल देती हैं।

अगर दो जोड़ी होंठ मिले भी तो कायनात के सारे दरवाजे खोल दे और वह देह की मांग से इतर हो-

न भला दो जोड़ी होंठ/आपस में मिलने से भी/कहीं लिपलॉक होता है?/ प्रेम का चुंबन वही/जिसमें होंठ भी/ चुंबन के एहसास से कहीं परे हो जाएं...../आत्मा का पूरा अस्तित्व/चुंबनों की मीठी मार से सराबोर हो उठे/खिल जाए उसका रोम-रोम/तब होता है/ प्रेम से भरा/मदमाता रसीला चुंबन!

रचना जी की कविताएं पढ़ते हुए एक रूहानी अहसास होता है। जब आपकी मुस्कान किसी दूसरे के तन की लिबास बन जाए, तब मानिए कि वही है मुकम्मल प्रेम।

यही वो प्यार है जो दैहिक होने के साथ रूहानी भी है। कविता ‘गुलाबी बोसा’ की ये पंक्तियां बहुत लुभाती हैं-थक जाती हूं/जब दुनियावी लिबासों में/देह को कपड़ों की कैद से/देकर रिहाई/अकसर उसकी मुस्कानें ओढ़ कर/आराम फरमा लेती हूं।

इस कविता में सांसारिक प्रेम का भाव होते हुए भी रूहानी इश्क है- उसके दिल वाली कुंडी/खुली रहती है मेरे लिए/बगैर दस्तक खोल देता है वो दरवाजा/भर लेता है मुझे यूं अपनी बांहों में/जैसे बाद सदियों के मिल रहा हो।

प्रेम में खामोशियों की भी जुबां होती है। रचना जी लिखती हैं-मन का भार कहने से नहीं, कहने और सुनने के बीच मिलने वाले क्षणिक अंतराल में हल्का होता है।

उनकी कविता ‘जुबां खामोशियों की’ में इन पंक्तियों पर मेरी नजरें उलझ कर रह गईं- और प्रेम हमें वहां ले आया/जहां हम दोनों/कुछ भी कहने और सुनने के बीच/मिलने वाले अंतराल को सुनने लगे/दोनों चुप रहते /खामोशियों को/अपनी बात कहनी आ गई थी/उसे एक मनचाही जुबां मिल गई थी।

प्रेम एक सुखद अहसास है। और इस प्रेम में स्पर्श न हो, यह भला कैसे संभव है। मगर इस छुअन में पावनता रखने वाले कितने होंगे?

ऐसी भावना को रचना जी अपनी कविता ‘एहसास तेरा’ में इस तरह व्यक्त करती हैं- जिस दिन तुमने हाथ थामा था/तुम्हारी हथेली की गरमाहट/झट से यूं गले मिली/जैसे जन्मों से बिछड़ी/कोई सखी रही हो। मैंने तुम्हारी हथेली पर ही/अपना घर बना लिया था।

तो एक पावन स्पर्श ही देह की भाषा को महसूस कर सकता है। ‘देह की भाषा’ शीर्षक से कविता में इसे वे यों विस्तार देती हैं-दो हाथों के स्पर्श ने/देह की भाषा पढ़ने को डग बढ़ाए/और अपनी अंगुलियों से अक्षरों को टटोलने लगे। जिस्म की बात नहीं थी, उनके दिल तक जाना था/ लंबी दूरी तय करने में वक्त लगता है।



रचना जी की कविताओं में नायक-नायिका के जिस्म ही नहीं, रूह भी मिलते हैं। इस स्नेहिल छुअन के साथ जब दो मन बतियाते हैं तो वे कहां से कहां पहुंच जाते हैं।

कविता ‘दो मन बतियाए’ में वे लिखती हैं-हम मिलने लगे थे दो मन अपने आप से भी छिप छिप कर बतियाने लगे थे आकर्षण का नियम हमें इतना नजदीक ले आया था कि हमारे बीच हमारे दो जोड़ा सांसों की उपस्थिति भी खलने लगी थी।

वे आगे लिखती हैं-हमने साहस बटोरा और दोनों ने अपनी-अपनी/देह भी उतार कर एक ओर धर दी अब हम देह से भी परे/अपनी आत्माओं के मिलन के बीच मुदित हैं।

इसलिए नायक-नायिका हद से आगे चले भी गए तो क्या हुआ?

वो छुअन भी अलौकिक है-मेरी देह पर धरी/उसकी सारी छुअन/गुलनारी तितलियों में बदल जाती है।

काव्य संग्रह ‘मन के मंजीरे’ में प्रेम को सहेजने का भी भाव है। यहां नायिका की आत्मा के होंठों पर प्रेम के पहले चुंबन की स्मृतियां टंकी हैं।

उस भीगेपन मिठास के साथ जो सदियों उनके बीच जीवित रहीं। कविता संकल्प को पढ़ते हुए उसकी मिठास महसूस की जा सकती है-हमारा यह प्रेम उस बर्तन से रिसते पानी की इक-इक बूंद को समेटने का एक संकल्प ठहरा।

रचना जी की कविताओं में दैहिकता शिद्दत से उभरी है। मगर यह दैहिकता आत्मीयता के साथ अलौकिक प्रेम की ओर ले जाती है। उनकी कविताओं की नायिका जानती है कि दैहिकता की परिणति शैय्या पर पड़ी कुछ सलवटों से अधिक नहीं-

कैसी गहरी थी हमारी अंतरंगता, सब कुछ तो पता था उसे,

जानता वो मेरी देह का एक-एक छोर,वो भी समझता था चूमे गए होंठ बस लार और मांस का मेल भर थे।
किंतु नहीं/नहीं किए उसने/मेरी देहघाटी के भीतर/उतरने और मुझे/मेरी गहराइयों तक पाने के उपाय।

इसलिए रचना जी का ‘रंगरसिया’ असाधारण है। उसके इश्क का कर्ज कैसे उतारे?

यह बड़ा सवाल है। वह हरदम यही सोचती है-एक ही जिस्म में/ बसने की ख्वाहिश नहीं मेरी/ मैं उसकी रूह की/ मेहमां होना चाहती हूं/कैसे अदा करूंगी/कर्ज उसके इश्क का/मेरे तो बदन की रग-रग में/उसकी देह का नमक दौड़ता है।

कवयित्री का यह आशिक सच में दिलदार है। वह परमात्मा के बेहद करीब है। सच कहूं तो वह ईश्वर ही है।

तभी तो वे लिखती हैं-मैं उसकी आत्मा का/एक नन्हा अंश,/उसकी हर बाहर भीतर जाती/श्वास की साक्षी हूं मैं। इसलिए नायिका अपने रंगरेज के सुनहरे स्पर्श की तलबगार है। रचना जी लिखती हैं-उसकी छुअन से/ मेरे जिस्म पर खिलते रहे/नन्हे नन्हे बारहमासी फूल।

कवयित्री ने कविता ‘बारहमासी फूल’ में नायिका के अनन्य प्रेम और उसकी भावना का सुंदर चित्रण किया है-भले ही तन उघड़ा रहा उसके आगे/पर वह सदा मेरी आत्मा का लिबास रहा। ..

नायिका रूहानी होकर भी कई बार जिस्मानी प्रेम में उतरती है और वह मानती है कि नायक के प्रेम के गुमान में आकर उसे देवता नहीं बनना।

उसे अपनी देह के रोमानी रंगीन कैनवस पर उसके सारे असली रंगों के साथ खेलने देती है। क्योंकि-
हाड़ मांस का बना इंसान ही तो था/
उसे इंसानों की तरह प्रेम करने दिया।
वह जो था उसे वही रहने दिया
बस! / अपने जोगी को पाने के लिए/
यही बहुत था।

तो नायिका का यह जोगी सचमुच निराला है। तभी तो वह अपने मासूम भावों को इस तरह अभिव्यक्त करती है कि अचरज होता है। कभी वह उसके इश्क में तिरोहित हो जाती है तो कभी पीले पन्ने वाली डायरी बन कर नायक के कोट के भीतर वाली जेब में नन्हे गुलाबी खरगोश की तरह दुबक जाना चाहती है।

यह शख्स रचना जी के लिए बहुत मायने रखता है। क्योंकि गहरे गुम अंधेरे में वह उजास जैसा है। तभी तो वे लिखती हैं- जुनून-ए-इश्क में/हद से गुजर जाती हूं लोगो/बस आज से मुझे/उसकी सिरफिरी,/उसे मेरा खुदा माना जाए।

कविता ‘देह उत्सव’ में रचना जी की नायिका समागम के दौरान अपनी देह से उठते उत्ताप से अपनी कुंडलिनी जागृत कर लेती है।

फिर रति क्रिया के कई चक्र के बाद वह अपनी तुच्छ भावनाएं भस्म कर लेती है।

जगा लेती है ब्रह्मांडीय आयाम और वह नायक के अधरों के एक स्पर्श से कान्हा की बांसुरी सी बज उठती है। यह कविता इस संग्रह की बेहतरीन कविताओं में से एक है।

यूं कविताएं और भी हैं और सभी पठनीय व सरस हैं। मगर अंतिम कविता ‘मन के मंजीरे’ का जिक्र किए बिना यह काव्य चर्चा अधूरी रहेगी। ये मन के मंजीरे क्या है?

यह और कुछ नहीं अदरख से तीखे मिजाज वाले नायक के लिए रची गई कविताएं हैं, जिसकी तासीर में छिपी है मोहब्बत।

उसी के लिए हैं कविताएं, जिसके कंधे पर सिर रख कर नायिका राहत पाती है। उसके हौसले और भरोसे व अपनेपन के आफताब से खुद तो उस फरिश्ते की नूर बनी ही है, साथ ही ये कविताएं लव नोट्स भी बन गई हैं। यहां उसकी हर अनकही बातें हैं।

उसकी हर अधूरी इबादत है यहां। कह देने और न कह पाने की जद्दोजहद का नतीजा है-मन के मंजीरे।

रचना जी की कविताएं पढ़ते हुए मेरे मन के मंजीरे बज उठे हैं। इतना सहज हो कर लिखा है कि ये कविताएं दिल में उतर जाती हैं। उनकी भाषा में एक रेशमी अहसास है। इतना कि आप फिसल जाएं और एकदम से रूमानी हो जाएं।

आप भी पढ़िए, चेहरे पर इश्क का नूर न चमके तो कहिएगा। एक ऐसा संग्रह जिसे आप संजो कर रखना चाहेंगे। एक बार फिर से बहुत बहुत बधाई रचना जी।

विश्व पुस्तक दिवस पर मुझे आपके संग्रह पर लिखी समीक्षा शिद्दत से याद आई।
एक पेशेवर पत्रकार होने के नाते
मुझे प्राय: अच्छी पुस्तकें पढ़ने के लिए
अन्य लेखक मित्रों की अपेक्षा उतना
अवकाश नहीं मिलता। मगर जब भी
अवसर मिलता है, मैं पढ़ने से नहीं चूकता।
इन दिनों मैं जेएनयू की प्रोफेसर
गरिमा श्रीवास्तव की बहुचर्चित डायरी
देह ही देश पढ़ रहा हूं। गरिमा हिंदू कालेज दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्रा रही हैं, जहां कुछ साल मैं उनसे आगे था।

 



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