अन्न दाता बनाम कर्ज दाता

वीथिका            Apr 08, 2015


संजय जोशी 'सजग ' मैं किसान हूँ राष्ट्र की शान कहलाता था अन्न दाता ,धरती पुत्र के नाम से जाना जाता हूँ हमारी मेहनत और लगन से देश आज अन्न के मामले में आत्म निर्भर है और उसी देश में मैं भूखा सोता हूँ । प्रकृति की मार ,बिजली की कटौती ,खाद- बीज समय पर नहीं मिलना व कर्ज के बोझ से आजादी के इतने वर्षों बाद भी यह कहावत सच लगती है कि किसान कर्ज में जन्म लेता है और कर्ज में ही मरता है सरकार आती है और चली जाती है किसान वहीं का वहीं । हर राजनीतिक दल ने हमारा भरपूर उपयोग किया है और कर रहे है ,कभी जय जवान जय किसान के नारे लगते थे तो कभी तो चुनाव चिन्ह ही हलधर किसान रख कर चुनाव जीत लिए पर किसान की हालत नहीं सुधरी , वहीं ढाक के तीन पात । किसान जितनी मेहनत करता है उतना फल मिलता ही नहीं है कभी सरकार की बेरूखी ,तो कभी मौसम की बेरुखी से त्रस्त है घड़ियाली आंसू बहाने वाले तो खूब है सब अपनी रोटी सेंकने में व्यस्त है हमारे आंसू पोछने वाले कोई नहीं है यदि कोई होता तो तो रोज रोज किसानों की आत्महत्या की खबरों से पेज काले नहीं होते । झूठी शोक संवेदना दिखाकर किसानों के प्रति सहानुभूति की नौटंकी कर कर्तव्य की इतिश्री कर ली जाती है । प्राकृतिक आपदाओ के समय दौरों का दौर चालू हो जाता हैं और सबूत मांग कर मजाक उड़ाया जाता है नतीजा सिफर किसान दुखी और दुखी होते जा रहे है । भूमि को हथिया लिया जाता है ऊंट के मुंह में जीरे के समान मुआवजा देकर न्यूज़ की हाई लाईट बना दिया जाता है । अमिताभ जैसे अभिनेता और नेता कागजी किसान भी है उनको क्या फर्क पड़ता है परेशान तो असली किसान है । किसान के मन की बात कोई नहीं करता सब अपने मन की बात करते है मन का पेट की भूख से गहरा नाता है ,जब खाली पेट रहेगा तो मन की बात कौन सहेगा ,अगर मन की बात से ही सभी समस्या का हल हो जाता तो क्या बात थी मन तो सब के पास है परन्तु मन की केवल गति होती है शक्ति नहीं । किसान की व्यथा के बीच बांकेलाल जी प्रकट हो कर कहने लगे कि किसानों की योजना ऐसे लोग बनाते हैं जिन्होंने कभी खेत खलिहान देखे नहीं सिर्फ सड़क के किनारों से निहारे हैं उन्हें ये तक नहीं पता होता है कि चने का पौधा होता है या झाड़ क्योंकि चमचे तो उन्हें दिन भर चने के झाड़ पर चढ़ा कर रखते है l किसानों की समस्या न तो अधिकारी , नेता न हीं मंत्री समझते है । कर्ज़ चुकाने के चक्कर में किसान कभी जमीन बेचता है तो कभी ज़मीर।एक किसान जब लोन लेने जाता है तो अपने नाम लोन कराने के लिये पापड़ बेलने से लेकर चप्पल घीस घीस कर थक जाता है जब जाकर कहीं लोन पास होता है वह भी कुछ शिष्टाचार के बाद क्योंकि भ्रष्टाचार आजकल शिष्टाचार लगने लगा है ,बदकिस्मती से समय पर जमा नही कर पाने पर ,लोन का ब्याज बढ़ता जाता है फिर इसकी कीमत किसान को अपनी जमीन बेच कर चुकानी पड़ती है या परिवार सहित ख़ुदकुशी करके। मेरे देश के अन्नदाता की यहीं व्यथा है की परोपकार में सारा जीवन बिता देते हैं पर उनके जीवन की सुरक्षा की चिंता किसी को भी नहीं होती।भारत में फसल बीमा से कई किसान अनभिज्ञ हैं। लगता है सरकार भी नहीं चाहती कि इसकी ट्रेनिंग दी जाये और उन्हें अपने अधिकारों का ज्ञान कराये । कृषि प्रधान देश अब किसान दुःख प्रधान देश बन गया । बांकेलाल जी दुखी होकर कहने लगे भूमि बचेगी तो किसान बचेगा तब ही तो देश बचेगा । ओ मेरे देश के नेताओं कब समझोगे किसान की व्यथा । किसान की स्थिति तो खरबूजे जैसी हैं तलवार खरबूजे पर गिरे या खरबूजा तलवार पर गिरे कटना खरबूजे को ही है । भूमि अधिग्रहण बिल पर होने वाली राजनीति से अब यह गाना झूठा लगने लगता है --मेरी देश की धरती सोना उगले अब तो हमारे देश की धरती सीमेंट कांक्रीट के जंगल उगलने लगी है । जिससे सब किसान परेशान है अंधरे नगरी चौपट राजा जैसा हाल है ।


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