प्रस्तुती डॉ.प्रकाश हिंदुस्तानी की निजी वेबसाईट से।
15 अगस्त 2002 को श्री अभय छजलानी जी ने यह आलेख नई दुनिया में लिखा था। आज 13 साल बाद भी यह प्रासंगिक है और आम आदमी अपने सारे सवालों के साथ जस का तस खड़ा है कितने ऐसे संपादक हैं जो बेबाकी से इस सच को लिखें आज भी और अगले 10 साल बाद कोई नई पीढ़ी पढ़े तो उसे लगे कि नहीं ऐसा तो आज भी हो रहा है:-
मुझे पिछले 55 वर्षों में कभी ऐसा नहीं लगा कि भारत अपने नागरिकों में समान रूप से विद्यमान है। प्राकृतिक प्रकोप या युद्ध के दिन ही मात्र इसका अपवाद रहे। ऐसा अहसास होना चाहिए, यह संविधान में अवश्य लिखा है, लेकिन किताबी सच में और जीवन के सच में बड़ा अंतर होता है। यह भी सच है कि सच केवल महसूस करने की बात है। प्रमाणित करने या चुनौती देने का नहीं। इसलिए जब मैं देखता हूं कि आजाद भारत में सच को चुनौती देना और उसे प्रमाणित करना दैनंदिनी जीवन में शामिल हो रहा है तो खुद में देश को देखने की भावना और कठिन मालूम होने लगता है।
सच कहूं तो देशभक्ति की यह तलाश टीस पैदा करती है, जिसे होना चाहिए। उसे तलाश करने की जरूरत क्यों पड़ना चाहिए? यह प्रश्न मुझे पिछले 660 महीनों में एक बार भी छोड़कर नहीं गया। एक आदमी होने के नाते मुझे यह भी लगा कि ऐसे आम प्रश्नों पर ही आजादी को तौलना इसलिए ठीक है कि जहां वह पहुंची नहीं है वहीं उसकी तलाश होना चाहिए। अखबार पढ़ते-पढ़ते या टेलीविजन पर समाचार व्याख्या सुनते-सुनते मुझे यह भी लगा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि लोकतंत्र दरवाजे के बाहर देर से खड़ा हो और मैंने मन के दरवाजे ही न खोले हों।
ऐसा सच निकलता तो शायद मुझे ज्यादा प्रसन्नता होती। तब मैं भी प्रशासन को भी अपने में से एक मानकर उसकी प्रशंसा कर करता कि अपनों का भला करने की कोई भी सीमा तय की जा सकती है? प्रशासन को देखो जन्म से मृत्यु तक, जीवन के हरेक कर्म की फिक्र करते-करते उसकी क्या दशा हो रही है। कहीं उसे अस्पताल को ठीक करना पड़ता है, कहीं उसे उच्च शिक्षा का संचालन करना होता है, कहीं विवाह का रक्षक बनकर खड़ा हो जाता है तो कहीं वह सड़क बनाने वाले मजदूरों के कंधे से कंधा लगा लेता है। वह क्या नहीं करता है? लेकिन बीते 55 सालों में मेरी इस आरजू को भी पूरा होने का अवसर नहीं मिला है, क्योंकि प्रशासन ने सत्ता को निर्माणकारी बनाने के बजाय स्व-कल्याणकारी बनाने का अपना लक्ष्य रखा है।
कभी सोचता हूं कि कहीं मैं सचमुच ही निराशावादी तो नहीं हो गया, जो कश्मीर में कुछ हत्याओं से विचलित होकर लोकतंत्र के मर जाने का भ्रम पाल लेता हूं? जब मंचों से आशावादी होने की पुकार लगती है और वही रेडियो, टेलीविजन तथा चौराहों से झरने लगती है तो मुझे भी लगता है कि मैं भी देश की भावना के साथ ही हूं। पर दूसरे ही पल वाकई सबके साथ मैं भी कर्म के आकलन पर निराशा की ऐसी घाटी में गिरता महसूस करता हूं। जहां से कम ही लोग लौटकर आते हैं, लेकिन संस्कार, बुद्धि, पुराने देखे हुए दिन महापुरुषों के वचन और मेरी आत्मा निराशा के इस सोच को तुरंत ठुकरा देते हैं।
शायद इसी स्थिति से निपटने के लिए लोकतांत्रिक व्यवस्था के जनक ने बहुमत के सिद्धांत का प्रावधान कर दिया ताकि इक्का-दुक्का आत्मा की आवाजों को दबाकर भी शासन पद्धति के जीवन की रक्षा की जा सके। मेरी उलझन निरंतर बढ़ती जा रही है। इसलिए भी कि मेरे देश का प्रजातंत्र जिसे हम बहुमत वाला प्रजातंत्र कहते हैं, वास्तव में आबादी का बीस से तीस प्रतिशत समर्थन पाकर ही सत्ता पर चढ़ बैठता है और फिर बहुमत का प्रतिनिधि बनकर मनमानी को नियम सम्मत कर देता है। उलझन है इसे मैं बहुमत वाला प्रजातंत्र कहूं या बहुमत तानाशाही कहूं।
आत्मा की आवाज को पुकारना नहीं होता है। उसे समन या वारंट भेजकर बुलवाने के लिए सत्ता-शक्ति की जरूरत भी नहीं होती है। यह तो बिना याचिका के भी सुनवाई कर ‘विवेक’ को उचित-अनुचित का निर्णय करने के लिए भेज देती है। तो क्या आज जो आत्मा की आवाजें सुनाई दे रही हैं। वे भी उपभोक्तावाद की पैदावार है? यदि ऐसा हुआ तो मेरी उलझन को कौन सुलझाएगा? व्यवस्था से निराश मेरे जैसा आदमी यदि ‘विवेक’ की शरण भी न पा सका तो क्या केवल लोकतंत्र की पुस्तक को सीने से लगाकर जीवन काट सकूंगा? उस पुस्तक में मेरी उलझन का समाधान लिखा है, लेकिन व्यवस्था मुझे पढ़ने क्यों नहीं दे रही है? उस पर विश्वास क्यों नहीं करने दे रही है? बिना पढ़े पुस्तक भी मदद कैसे कर सकती है?
५५ सालों में हर दिन, हर रात- सच कहूं, हरेक पल टूटी सड़कों पर चलते-चलते इसी सोच में बीता कि यदि लोकतंत्र है तो मुझे पेयजल लेने के लिए कतार में क्यों लगना पड़ता है? दवा पाने के लिए याचना क्यों करनी पड़ती है? शिक्षा को दुकानों से क्यों खरीदना पड़ता है? लोकतंत्र है तो बिजली का वितरण लोकतांत्रिक क्यों नहीं है? आजादी मुझे क्यों नहीं मिली, इसके लिए मुझे राजनीति में प्रदेश की अनिवार्यता क्यों बताई जाती है?
इन सवालों से घिरा मेरा मस्तिष्क जीवन की कड़वी सच्चाइयों से भी नाता तुड़वा देता है। मुझे इन सवालों के बीच पता ही नहीं चलता कि बिजली कब आकर चली गई। कब कर वसूलक आकर मोटी राशि वसूल ले गए और कह गए कि चुनाव के बाद सब ठीक हो जाएगा। मैं सुन नहीं पाया, मेरा ध्यान तो लोकतंत्र के दर्शन को समझने में उलझता रहा है। 55 साल गुजर गए, पता ही नहीं चला कि लोकतंत्र के कदम समय से कितने पिछड़ चुके हैं।
अब भी जब अवसर मिलता है, तो पुस्तक उठाकर उसमें लोकतंत्र के लाभों की सूची पढ़ता हूं और सोचने लगता हूं कि कहीं पुस्तक में असत्य तो नहीं लिखा है। उसमें तो कहीं नहीं लिखा है कि जनसेवा करो और बदले में धन लो। उस सूची मुझे कहीं लिखा नहीं मिला कि जनसेवा करना है तो अपनी सरकार बनाना जरूरी है।
यह उल्लेख भी पुस्तक में कहीं नहीं मिलता है कि जनसेवा के अर्थो में दलबदल, पदों का बटवारा, पेट्रोलपंप का आवंटन अपनो को, सरकारी सुविधाएं जिन पर अपना पूरा अधिकार हो, भी शामिल है। मैं समझ नहीं पाया हूं कि असली लोकतंत्र वह है, जिसके लिए आम रास्तों को रोककर उसे गुजरने की जगह दी जाती है, जो लाला पीली और अब हरी बत्ती लगे लोकतंत्र को गुजरते देखने के लिए मजबूर की जाती है। (15 अगस्त 2002 नई दुनिया)
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