ब्रिटिश इतिहासकार ने नकारे थरूर के आरोप,बोले भारत ब्रिटेन से हर्जाने का हकदार नहीं

वीथिका            Aug 02, 2015


मल्हार मीडिया डेस्क मई के अंत में ऑक्सफ़ोर्ड यूनियन में एक बहस कराई गई थी। विषय था, “यह सदन मानता है कि ब्रिटेन को अपने पूर्व उपनिवेशों को हर्जाना देना चाहिए।”इस बहस में भारत से सांसद शशि थरूर और ब्रितानी इतिहासकार जॉन मैकेंज़ी ने हिस्सा लिया था। थरूर ने इस प्रस्ताव के पक्ष में अपने तर्क दिए, जिसे बहुत से भारतीयों का समर्थन मिला, क्योंकि उनके लिए औपनिवेशिक शोषण हमेशा से कड़वा विषय रहा है। प्रस्ताव के विरोध में बहस करने वाले प्रोफ़ेसर मैकेंज़ी ने बीबीसी से बात करते हुये कहा कि शशि थरूर असाधारण इंसान हैं। वो भारत के कूटनीतिक, राजनीतिक और साहित्यिक क्षेत्र की बेहतरीन शख़्सियत हैं। ऑक्सफ़ोर्ड यूनियन में इस विषय पर उन्होंने बड़ी सुंदरता और चतुराई से अपनी बात रखी लेकिन उन्होंने मामले को थोड़ा बढ़ा चढ़ाकर बताया। लेकिन वो हर्जाने को लेकर ग़लत हैं। अभी-अभी मैंने मानव इतिहास में हुए सभी साम्राज्यों के बारे में चार वॉल्यूम के एनसाइक्लोपीडिया का संपादन किया है। मैं ये कह सकता हूँ कि किसी भी साम्राज्य ने नर्मदिली और परोपकार वाली नीति नहीं अपनाई है। साम्राज्य बनते ही इसलिए हैं क्योंकि नैसर्गिक अवसरों, सैन्य और तकनीकी ताक़त या राज्यों की ताकत के केन्द्रीकरण की क्षमता में असंतुलन होता है। इसके लिए कभी कभी ये तीनों या इससे भी अधिक कारण हो सकते हैं। और ये साम्राज्य हमेशा बिना चूके, ऐसी नीतियों पर अमल करते हैं, जो शासकों को फ़ायदा पहुंचाने वाले होते हैं। ब्रितानियों से पहले शांतिपूर्ण और ख़ुशहाल भारत का भ्रम फैलाना बिल्कुल ग़लत होगा। अपने इतिहास के अधिकांश हिस्से में भारत साम्राज्यों के शोषण का शिकार रहा है। हर मामले में आम लोगों को शासकों के फ़ायदे के लिए दबाया जाता रहा। यह बात मुग़ल साम्राज्य के लिए भी सही है, जिनके बाद अंग्रेज़ भारत गए। मुग़ल काल में अनगिनत लोग भुखमरी से मर गए, ख़ास तौर पर तब आगरा में ताजमहल बन रहा था। भारत की अधिकांश दौलत शासकों के फ़ायदे के लिए छीन ली गई। ये सही है कि इन शासकों ने कभी भारत नहीं छोड़ा. लेकिन यह भी सही है कि इन्होंने मुठ्ठी भर ताकतवर लोगों को पाला पोसा, जो इनके लिए लड़ते और खून ख़राबा करते थे। भारत के तमाम हिस्सों में किलेबंदी, इस सैन्यीकरण का सुबूत है। इतिहास के हज़ार सालों में सत्ता और संपत्ति का केंद्र आगे पीछे घूमता रहा है। जब 15वीं और 16वीं शताब्दी में यूरोप के लोग राज्य फैलाने को निकले तो उस समय एशिया में दुनिया के तीन सबसे ताक़तवर साम्राज्य थे- ऑटोमन, मुग़ल और चाइनीज़। यह 18वीं शताब्दी थी जब यूरोपीय लोगों ने बढ़त हासिल करनी शुरू की। अब यूरोपीय युग के बाद, फिर से सत्ता का केंद्र हिल रहा है। यूरोपीय सत्ता ने औद्योगिकरण और नई मशीनों के बूते अपना पैर जमाया था। जब थरूर ये शब्द इस्तेमाल करते हैं और कहते हैं कि भारतीय ‘उद्योग’ नष्ट कर दिए गए तो वो दो बिल्कुल अलग—अलग चीजों पर बात कर रहे होते हैं। हालांकि भारतीय 'उद्योग' ऊंची क्वॉलिटी के वस्त्र बनाने में दक्ष था, लेकिन इसका उत्पादन कारीगरी पर आधारित था, जिसमें बहुत छोटे पैमाने पर और बहुत कम तकनीक का इस्तेमाल होता था। सस्ते सामानों के मामले में यूरोप में मशीनों से बने सामानों का कोई मुक़ाबला नहीं था। उस दौर में भारत में ही नहीं बल्कि ब्रिटेन में भी हैंडलूम बुनकरी जैसे कारीगरी वाले उत्पादन ख़त्म हुए थे। मैकेंजी ने कहा मुझे नहीं पता कि बुनकरों का अंगूठा काटने की जानकारी थरूर ने कहां से जुटाई। मैंने इसके बारे में कभी नहीं सुना था। बहुत ठोस तरीक़े से जो कहा जा सकता है वो ये कि यह कभी भी आधिकारिक नीति नहीं थी। लेकिन फिर अगर ऐसा हुआ था तो यह तय शुदा रूप से स्थानीय, अनाधिकृत और ग़ैरक़ानूनी गतिविधि रही होगी और अगर यह बात फैलती तो ब्रिटेन में विरोध का तूफ़ान खड़ा हो जाता। बाद में 19वीं शताब्दी में अंग्रेजों ने भारतीय हस्तशिल्प की तारीफ़ की और उनके मूल्यों को ब्रिटेन में लागू करने की वकालत भी की। रेलवे पर थरूर का सवाल बहुत कुछ सही है। लेकिन कुछ आर्थिक इतिहासकारों का मानना है कि अगर भारतीय कंपनियों को विश्व बाज़ार से पूँजी और टेक्नोलाजी जुटानी पड़ती तो भारतीय रेलवे के लिए काफ़ी मुश्किल खड़ी हो जाती। तथ्य ये है कि भारतीय रेलवे, दुनिया के महान रेलवे नेटवर्कों में से एक है। एक ऐसा नेटवर्क जिसने देश को एकता के धागे में बांधने में मदद की। यह अजीब है कि इसने पूरे देश में अंग्रेजों के ख़िलाफ़ माहौल बनाने के लिए जगह जगह जाने में कांग्रेसी नेताओं की मदद की। ब्रिटेन ने पश्चिमी शैली के विश्वविद्यालय, प्रेस और विशाल प्रकाशन क्षेत्र का विकास किया। इसका नतीजा ये हुआ कि भारत में लिखे हुए शब्द, पहले से ज़्यादा लोगों तक पहुंचने लगे। इसने हर तरह से अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ राजनीतिक विरोध को बढ़ावा दिया। इस बात पर संदेह है कि हिंदुस्तान का पुराना कुलीन वर्ग अपने बूते ये सब कर पाता। असल में थरूर साहब को भी शिक्षा के क्षेत्र में हुए में इस बदलाव का फ़ायदा पहुँचा है। हमें ये भी याद रखना होगा कि कुछ मामलों में, भारतीय औद्योगिकरण ने वाकई ब्रिटेन के अपने क्षेत्र के उद्योगों को ख़त्म कर दिया था। इसका सबसे बढ़िया उदाहरण है जूट उत्पादन। उत्पादन के लिए कच्चा जूट स्कॉटलैंड के डंडी शहर में निर्यात किया जाता था। लेकिन 19वीं शताब्दी के अंत तक डंडी के कुशल कारीगरों और मैनेजरों को लगने लगा था कि सभी किस्म के उत्पादनों के लिए एक जगह थी और अपना फ़ायदा देखते हुए कोलकाता और उसके आस पास के इलाक़े में वो नई टेक्नोलॉजी लेकर आए। प्रथम विश्वयुद्ध तक भारतीय उत्पाद ब्रिटेन के मुक़ाबले काफ़ी सस्ता हो गया था और डंडी की जूट फ़ैक्ट्रियों में बहुत मंदी आ गई, जिसके कारण यहां के लोगों के हालात ख़राब हो गए। ब्रितानी सरकार ने इसे रोकने के लिए कुछ नहीं किया और भारतीय उद्योग ब्रिटेन से जीत गया। कुछ हद तक अन्य क्षेत्रों में भी ऐसा ही हुआ। इस बात पर बहस की कम गुंजाइश है कि ब्रिटेन ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर राजाओं के छोटे-छोटे राज्यों को आज़ाद भारत में एकता स्थापित करने में मदद की। ये भी कहा जा सकता है कि दूसरी ओर ब्रिटेन ने भारत का विभाजन कर उन तनावों और मुश्किलों से इसे बचाया जो भारी संख्या में मौजूद मुसलमान आबादी पैदा कर सकती थी। हालांकि इस पर बहस की गुंजाइश है। अंग्रेजों ने एक जोड़ने वाली भाषा के रूप में अंग्रेज़ी को बढ़ावा दिया, जिसने निश्चित रूप से भारतीय लोकतंत्र को ज़िंदा रखने में मदद की। अपने शासन के अंतिम दौर में अंग्रेजों ने नई दिल्ली में एक नई राजधानी बनाने में करोड़ों खर्च किए। ब्रितानी साम्राज्य ने ग़लत किया, लेकिन इसी वजह से भारत को दुनिया की बेहतरीन राजधानियों में से एक राजधानी मिली। आज भारत में एक बड़ा मध्यवर्ग है, जिसके पास वैश्विक स्तर की कलात्मक समझ और उद्यम है। भारत में बैंगलुरु है जो आज आउटसोर्सिंग का बड़ा केंद्र हो गया है। इसने इस बात को सुनिश्चित किया है कि दुनिया में शक्ति संतुलन भारत की ओर झुके। ब्रितानी कंपनियां इन्हें बढ़ावा देकर एक तरह से हर्जाना भर रही हैं। दुनिया में केवल एक देश था जिसने पश्चिमी उद्योगों और आधुनिकता के स्तर की समृद्धि बिना किसी साम्राज्य का ग़ुलाम बने हासिल की और वो था जापान। एक ऐसा देश जो भौगोलिक संरचना में भारत से अलग था, अपेक्षाकृत यहां लोगों में समानता थी और यहां लगभग एक जैसा धर्म और संस्कृति थी। यहां तक कि जापान ने भी बंदरगाह वाले शहरों को लेकर असमान संधियों की वजह से फ़ायदा उठाया, जिसके कारण पश्चिमी शैली के व्यापार, जहाज़ निर्माण और तकनीक का आगमन हुआ। हालांकि यह सच में कहा जा सकता है कि 1800 से 1947 के बीच वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद में भारत की हिस्सेदारी बड़े नाटकीय अंदाज़ में गिरी। लेकिन ये याद रखना होगा कि इस दौरान यूरोप, अमरीका, लातिन अमरीका, ऑस्ट्रेलिया और सुदूर पूर्व में आर्थिक क्रांति, दुनिया की आबादी में भारी बढ़ोत्तरी और अन्य अर्थव्यवस्थाओं का नाटकीय उभार भी बड़ी तेज़ी से हो रहा था। अंग्रेज़ी राज इस गिरावट का केवल आंशिक कारण था। लेकिन इसे वैश्विक शक्ति संतुलन और आर्थिक वृद्धि की रोशनी में देखना चाहिए। ऑक्सफ़ोर्ड यूनियन की बहस में मेरा तर्क था कि हर्जाना सही जवाब नहीं है और यह एक अव्यवहारिक समाधान है। पूर्व इतालवी प्रधानमंत्री सिल्वियो बर्लुस्कोनी और लीबिया के पूर्व नेता मुआम्मर गद्दाफ़ी के बीच समझौते जैसे उदाहरण ग़लत परम्परा है। हर्जाने का हिसाब क्या होगा? उसका भुगतान कैसे होगा? ये कैसे तय होगा कि ये पैसा ग़रीबों तबके को फ़ायदा पहुंचाए? इतिहासकार अपने लेखों के मार्फ़त सालों से हर्जाने की बात करते रहे हैं और भारत के अधिकांश विद्वान इतिहासकारों ने इसे वहीं से लिया है और कई बार तो इस थीम में थोड़ा बदलाव भी किया है। अकादमिक इतिहासकारों का यूरोपीय, अमरीकी और अन्य कुलीनों की शिक्षा में अच्छा ख़ासा असर रहा है। सभी को साम्राज्यवाद के अन्याय और नुकसान वाला पहलू पता है। (गुलामी इसका सबसे बुरा उदाहरण है)। इस बात को स्वीकार करते हुए कि जो बीत चुका है, वो बीत चुका है, हम सभी हर्जाना चाहते हैं और हम मानते हैं कि हमें साम्राज्यवादी शोषण के आधुनिक रूप से बचना है, जो कि अभी भी हमारे बीच मौजूद है। आर्थिक विकास और स्वास्थ्य एवं सामाजिक क्षेत्र में सुधार- सहायता, मदद, समर्थन और निष्पक्ष एवं मुक्त व्यापार के ज़रिए होना चाहिए। थरूर साहब के लिए कोहिनूर हीरे का उदाहण देना अजीब बात है। निश्चित रूप से यह हिंदूवाद के निरर्थक पहलू और पुराने कुलीन वर्ग की सत्ता का प्रतीक है, जिन्होंने उसी तरह हिंदुस्तान का शोषण किया जैसा अंग्रेजों ने किया था। (जॉन मैकेंज़ी लैंकेस्टर विश्वविद्यालय में इंपीरियल हिस्ट्री के अवकाश प्राप्त प्रोफ़ेसर हैं और रॉयल सोसाइटी ऑफ़ एडिनबर्ग के फ़ेलो हैं)।


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