ऋचा अनुरागी।
निस्वार्थ,निश्छल और अगाध प्रेम से भरी हो तो दोस्ती हर रिश्ते से ऊपर होती है।इतिहास में भी मित्रता के अनेक एक से बढ़कर एक उदाहरण भरे पड़े हैं। समय,देश,सीमाओं और दिशाओं को लांघते इन रिश्तों ने हर बार मित्रता की सुन्दर परिभाषाएं रची-गढ़ी हैं।ओशो ने कहा था--मित्रता वह प्रेम है जो बिना जैविक कारणों के होती है।यूनान के प्रसिद्ध दार्शनिक अरस्तू कहते हैं कि मैत्री दो शरीरों में रहने वाली एक आत्मा है।
हमारे इतिहास और पुराणों में मित्रता-दोस्ती के अनेक उदाहरण भरे हुए हैं कहीं कृष्ण नंगे पांव भागते हुए अपने बाल सखा को गले लगाते हैं तो कहीं दुर्योधन-कर्ण को राजा बना अपने समकक्ष कर लेता है।कृष्ण और अर्जुन की दोस्ती भी सभी को ज्ञात है मै त्री का एक और उदाहरण राम और सुग्रीव का भी है। बाइबिल में भी ऐसी ही कई मित्रताओं का उल्लेख मिलता है।जोनाथन और डेविड की दोस्ती जगप्रसिध्द है,जोनाथन इजराइल के राजा का बेटा और होने वाला राजा था। गद्दी के लिए डेविड के पिता से लडाई चल रही थी,एक बार डेविड और जोनाथन मिले और दोस्ती के ऐसे बंधन में बंधे कि राजपाट,राजनीति, शत्रुता सब गौण हो गई।आगे डेविड इजराइल का राजा बना और जोनाथन ने हँसते हुए इसे स्वीकारा और एक युध्द में डेविड की रक्षा करते हुये मारे गये।
मित्रता का सम्मान करते हुए डेविड ने अपनी राज गद्दी जोनाथन के बेटे को सौप दी।इसी तरह बाइबिल में अब्राहम-- लाट,रुथ--नाओमी जैसी महान दोस्तों का भी जिक्र है,जो किसी भी जैविक रिश्तों से कहीं ज्यादा बड़ी और महान थीं। कार्ल मार्क्स को दुनियां में अगर जाना जाता है तो उनके मित्र एंगेल्स की वजह से। अगर एंगेल्स नहीं होते तो मार्क्स को कौन जान पाता? कैसे उनकी महान रचना 'दास कैपिटल'सामने आती? एंगेल्स धनी थे और मार्क्स की माली हालत बेहद खराब थी। एंगेल्स स्वयं भी दार्शीनिक थे।
मार्क्स और एंगेल्स ने मिलकर ही 1847 में कम्युनिस्ट घोषणा पत्र तैयार किया। इसके बाद मार्क्स को 'दास कैपिटल' लिखने और प्रकाशित करने में भरपूर अर्थिक मदद् की। मार्क्स के निधन के बाद इस ग्रंथ के दूसरे और तीसरे हिस्से का भी न केवल संपादन किया,उसे छपवाया भी। मार्क्स के लेखों को एकत्र कर किताबी रुप भी इन्होंने ही दिया। दोस्ती के इतिहास में महान सिकंदर और हिफैशियन का नाम भी जुडा है,तो ग्रीक साहित्य में डामोन और पिथियास की कहानी मशहूर है।
मित्रता की इतनी लम्बी फेहरिस्त के पीछे मेरा मकसद श्री राजेंद्र अनुरागी और श्री पुरुषोत्तम कौशिक की मित्रता की कहानी बताना मात्र नहीं है। मैंने इतिहास की मैत्रियों में छिपे निज स्वार्थों को भी जाना है,कहीं सुदामा को मित्र से कुछ पाने की आशा में मिलने जाने का वर्णन तो कहीं कर्ण को सूतपुत्र कहलाने से मुक्ति के पीछे के दबाव में दुर्योधन के अनैतिक कृत्यों में न चाहते हुये भी साथ देने की कहानी भी पढ़ी-सुनी। पहले जिन संबंधों को मित्रता कहकर गौरवान्वित किया गया है सभी नहीं ,पर हाँ मेरी दृष्टि में कुछ तो वास्तव में हितपूर्ति व गैरबराबरी के संबंध रहे हैं-मिथकों में वर्णित मित्रता हो या फिर इतिहास में।
साहित्य में मित्रता का प्रतिमान शेक्सपीयर के कथन में 'अ फ्रेंड इन नीड/इज ए फ्रेंड नीड' यानी जो वक्त पर काम आए वही वास्तव में मित्र है-तो अगर कई अभिन्न मित्र भी परिस्थितियों के चलते अगर काम नहीं आ पाता, मन से चाहते हुये भी मदद् नही कर पाता और वह तडप कर रह जाता हो तो क्या वह मित्र नहीं रहता,मेरे विचार में मित्र की कसौटी उपयोगिता हो ही नही सकती।
राजेंद्र अनुरागी और पूर्व केंद्रीय मंत्री पुरुषोत्तम कौशिक की मित्रता इन सभी मिथको और इतिहास उदाहरणों से परे है। एक ऐसी दोस्ती की मिसाल जो सिर्फ अकाट्य प्रेम को परिभाषित करती है।हमने उसे देखा-सुना और महसूस किया है।
इस पवित्र मैत्री की शुरुआत सन् 1948 से सागर विश्वविद्यालय से होती है,एक महासमुंद से तो एक होशंगाबाद से पढ़ने सागर आते हैं। महाविद्यालय का छात्रावास बैरिकों में था। एक बड़े किसान और इलाके के धनिक परिवार का बेटा और दूसरा नगर सेठ का बेटा,दोनों की दोस्ती के किस्से सारे विश्वविद्यालय में मशहूर होते गये। एक दूसरे के बगैर ना कालेज जाते और ना ही भोजन करते। दोनों दोस्त ग्रेजुएशन के बाद अलग-अलग विषयों से पोस्ट ग्रेजुएशन कर रहे थे पर दोस्ती का वही हाल बस उतनी देर दूर होते जब तक अपनी-अपनी क्लास में रहते।दोनों बाइक पर साथ घूमते और सागर की मशहूर जलेबी खाते। पापा को रबड़ी जलेबी पंसद थी तो कौशिक बाबूजी को दही जलेबी। पापा को बाबूजी के घर से आया छत्तीसगढी सूखा नाश्ता पंसद था तो बाबूजी को होशंगाबाद का दादी के हाथ का नाश्ता पंसद था।
एक बार दोनो दोस्त बाइक पर सागर विश्वविद्यालय की घाटी उतर रहे थे एक महिला से उनकी बाइक टकरा गई, सभी इन्हें पहचानते थे,कहा यहाँ से भाग जाओ पर ये दोनों वहीं खडे रहे। पुलिस को बुलाया और उस महिला का पूरा इलाज कराया,बाद में कुछ रुपये भी दिये कि अगर जरुरत पड़े तो काम आयें। दोनों की दोस्ती के बीच कभी कोई स्वार्थ नहीं आया।
पढ़ाई खत्म होने के बाद दोनों के रास्ते अलग-अलग थे। पापा शिक्षा की अलख जगाने के लिए संघर्ष कर रहे थे तो बाबूजी महासंमुद के अदिवासी और किसानों को न्याय दिलाने के लिए संघर्ष कर रहे थे।अपनी-अपनी व्यस्तताओं के बाद भी दोनों मिलते रहते। लोग कहते अनुरागी और कौशिक दोनों विपरीत,एक खिलखिलाता रहता तो एक की मुस्कान भी बामुश्किल देखने को मिलती एक बच्चों सा चुलबुला तो एक गहन गंभीर इनकी दोस्ती कैसे?
इमरजेंसी के दौरान कौशिक जी जेल में अन्दर थे तो पापा बाहर थे पर तड़प ऐसी मानों शरीर से आत्मा को अलग कर दिया हो। पापा रात-दिन मीसा बंदियों की और उनके परिवारों की मदद करते। इमरजेंसी के बाद जनता दल का गठन हुआ और पुरुषोत्तम कौशिक केन्द्रीय सूचना प्रसारण एंव परिवहन और उड्डयन मंत्री बने तो भोपाल अपने दोस्त से मिलने देर रात आ गये किसी को कोई सूचना नहीं अचानक घर के सामने गाडी का सायरन सुना। देखा तो बाबूजी दरवाजे पर हैं ,दोनों गले लग रो रहे थे ,माँ को देख बोले दिल्ली से भूखा चला हूँ इसके साथ भोजन करने के लिए जो भी रखा हो जल्दी से खिला दो।
फिर पापा से बोले यार अब मुझे तेरी जरुरत है तू दिल्ली चल और पापा की पोस्टिंग दिल्ली हो गई। दोनों की मित्रता के चलते बच्चे भी पापा—बाबूजी और मम्मी—माँ के सामूहिक हो गये। दिलीप भाई अनुरागी हो गया तो मेरा कन्यादान बाबूजी और माँ ने किया। पापा के स्वार्गवास के बाद बाबूजी को मैंने पहली बार बिलखते देखा शोक सभा में बाबूजी रोते हुये बोले हम कभी अलग नहीं हुये हमारा इतने दिनों का साथ यहाँ रहा अब भगवान वहाँ भी उसके साथ कर दे,मैं वहाँ भी उसके साथ रहना चाहता हूँ। दोनों की दोस्ती के बीच कभी कोई स्वार्थ नहीं आया ।पापा अब जब साशारीर हमारे बीच नही हैं तब वे हमारे लिये प्यारे बाबूजी को छोड़ गये हैं और हम सब बाबूजी की छत्रछाया में पापा को महसूसते हुये अपने को गौरवान्वित महसूस करते हैं।
दुनिया में महान मैत्रियों की ढेरों कथाऐं हैं। किसी को सच्ची दोस्ती मिल गई तो समझिए कि धरती पर सबसे खूबसूरत और कीमती तोहफा मिल गया।पापा और बाबूजी की दोस्ती भी ऊपर वाले का नायाब तोहफा है।
Comments