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याद-ए-अनुरागी:इमरजेंसी का अलोकतांत्रिक काल और अनुरागी

वीथिका            Jun 21, 2016


richa-anuragi-1ऋचा अनुरागी। अचानक से लगा कि कुछ बहुत गड़बड़ हो गई है ,देर रात दुष्यंत अंकल का घर पर आना अक्सर ही होता था ,पर इस बार कुछ अलग सा था। उनकी दरवाजे की दस्तक की थाप ही इतनी बेचैन कर देने वाली थी कि अगर माँ दरवाजा खोलने में तनिक देर कर देती तो शायद दरवाजा ही तूट जाता। उन्होंने अपना स्कूटर भी ठीक से खड़ा नहीं किया था,गेट के बाहर झाड़ियों पर टिका आये थे ,माँ कुछ पूछती इसके पहले ही वो पापा को झकझोरते हुये कह रहे थे ,मै अभी आकाशवाणी से आ रहा हूँ ,इंदिरा ने इमरजेंसी लगा दी है। जयप्रकाश जी की आज की सभा ने उन्हें बौखला दिया है। पापा भी उठ कर इधर-उधर फोन घुमाने लगे,पल -पल में फोन का काला डब्बा चीख रहा था। हमारे समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि ये इमरजेंसी क्या बला है जिस पर ये सब इतना परेशान हैं। देखते ही देखते साहित्यकार ,पत्रकार और कई लोग घर पर एकत्रित थे। किसी ने कहा-यह तो होना ही था इंदिरा के खिलाफ चारों ओर बगावत का महौल बनता जा रहा है। तो पापा बोल रहे थे आज की जे.पी. का मार्च गजब का रहा है ,दिल्ली से किरमानी का फोन आया था बता रहा था लाखों लोग थे। जे.पी. ने सीधे इंदिरा गांधी को ललकार है और उनकी सरकार को उखाड़ फैंकने का आव्हन किया है। सबकी बातें सुन-सुनकर अब सब समझ में आ रहा था कि यह इमरजेंसी बला क्या है। सुबह हो गई थी अखबार के आते ही सब झपट पड़े,हमारे घर लगभग सभी अखबार आते थे। मैं सभी के चेहरे पढ़ने की कोशिश कर रही थी ,सभी के चेहरों पर आक्रोश झलक रहा था, तभी दुष्यंत अंकल ने कहा मियां पढ़ लो आज यह कटे-पिटे समाचार कल से हमारे अखबार भी रानी की स्तुति करेंगे। सभी अपने-अपने कामों पर जाने के लिये निकल गये। सिर्फ पापा,दुष्यंत अंकल और शरद अंकल, पापा के कमरे को बंद किये बैठे थे ,किसी की हिम्मत नही हो रही थी कि दरवाजे के अन्दर क्या चल रहा है पूछा जाये। हर बार माँ फोन आने पर झूठ बोल रही थी -पापा सुबह ही घर से कहीं गये हुये हैं। हम सबको हिदायत दी गई थी कि कोई भी पापा और दुष्यंत और शरद अंकल के यहाँ होने की बात नही बताएंगे। खैर कुछ घंटों के बाद तीनों दोस्त बाहर निकले हाथों में कुछ कागज थे शायद पापा का छोटू टाईप्रेटर से आने वाली आवाजों का प्रतिफल उनके हाथों में था ,बगैर कुछ कहे चले गये ।तब पापा से मैनें पूछा पापा आप तो इंदिरा जी की इतनी तारीफ करते थे पर आज ----तब उनका जबाब था--जब हमारा कोई प्रिय भी गलत काम करे तो उसे बतलाना पड़ता है कि वह गलत है। इंदिरा ने गलत लोगों की सलाह पर देश को काला दिन दिखाया है। फिर पापा ने हमारी सारी जिज्ञासाओं का समाधान किया , मैं और आलोक भाई उनके समर्थन में खड़े हो गये। हमें रोज ही पता चलता कि कोई ना कोई पापा का करीबी गिरफ्तार हो रहा है बिना किसी कसूर के, पुरुषोत्तम कौशिक अंकल भी गिरफ्तार हो चुके थे ,पापा परेशान थे उनके तीनों बेटे बहुत छोटे थे। पापा दुष्यंत अंकल अभी तक इसलिये बचे थे कि वे सरकारी कर्मचारी थे और इस समय सारी ताकत अफसरों के हाथ थी। छुप-छुप कर रात दिन इमरजेंसी के खिलाफ काम चल रहा था। मीसा बंदियों के परिवारों की मदद करने के लिये पापा ने मुहिम छेड़ रखी थी जिसमें हम सबको भी उम्र के हिसाब से काम सौंपा गया था अब तक हम इतना समझ गये थे कि यह किसी का व्यक्तिगत विरोध नहीं था,विरोध था तो नीतियों का आजादी के हनन का। विचारों की स्वतंत्रता ,प्रेस की आजादी, लिखने-बोलने की आजादी सब खत्म थी। शाम होते -होते घर पर कई हस्तियां एकत्र हो जातीं,हम बच्चे बाहर के बरामदे में बैठ ढोल-मंजीरे बजा कर राम धुन या जो भी मन में आता गाते, चाहे -हो गई है पीर पर्वत सी ,पिघलनी चाहिए,अब हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए ही ,जोर—जोर पूरी गजल गाते हों। असली में हमारा काम अन्दर जो कार्य चल रहा होता उसकी भनक बाहर खड़े गुप्तचर विभाग के कर्मचारियों को भुलावे में रख नो-दो-ग्यारह करना होता था। अक्सर सादी पोशाक में गुप्तचर कर्मचारी हमारे घर के आस-पास रहते थे और पापा भी कई बार उनसे कहते प्यारे भाईयों थक जाऐंगे कहो तो पानी,चाय-शाय पहुँचा दूं और वे झेंप कर चलते बनते। एक तरह से हम आजाद भारत में एक बार फिर आजादी की जंग लड़ रहे थे। पापा का छोटू टाइपप्रेटर बड़ी प्रिटिंग मशीनों से ज्यादा काम कर रहा था ,दुष्यंत अंकल की गजल हम बच्चों को कंठस्थ हो गई थी --- एक बूढ़ा आदमी है मुल्क में, या अंधेरी कोठरी में एक रोशनदान है या फिर पापा की रचना---- भेड़िये चारों तरफ हैं सुनो बकरी और तुम निज बागुड़े खाने लगी हो! हम तिरंगे फरेरे के बीच की चकरी! सुनो बकरी राष्ट्र कवि दिनकर की लाईनें ---- सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।तो नारा बन गई थी। मेरी उम्र लगभग पन्द्रह वर्ष थी और आलोक भाई तेरह वर्ष का हमारी टीम के सभी सदस्य लगभग इसी उम्र के थे ,अपनी-अपनी सायकलों,छोटी मोपेड पर हर मीसा बंदी के घर की खबर लाना उनकी माँओं,पत्नियों के साथ उनके बच्चे बन जेल जाना और वहाँ के समाचार पापा को देना,जरुरतों का सामान उनके घरों में पहुँचाना यह सब हमारी टीम का काम होता। स्वतंत्रता सेनानी और विलिनीकरण आंदोलन की अग्रणी नेता रुकमणी राय,उनके भाई सब पापा के कामों में जोरों से हाथ बंटा रहे थे कि तभी एक कहर बरपा ,मानो पापा का सीधा हाथ कट गया हो, रात-दिन का सबसे प्यारा साथी दुष्यंत चल बसा था। दुष्यंत अंकल के अचानक चले जाने से पापा लड़खड़ा गये ,वे पूरी तरह टूट गये थे,किसी तरह शरद अंकल,ताज साहब,रमाकंत अंकल और सभी ने उन्हें आगे की लड़ाई के लिये दुष्यंत का ही वास्ता दिया। दरअसल पापा ही एकमात्र ऐसे इंसान थे जिन्हें कांग्रेस के लोगों से भी वही प्यार और सम्मान अर्जित था जो दूसरे विरोधी लोगों से,इसलिये इनकी इस पूरी मुहिम में एक खास भूमिका थी। काम फिर शुरु हो गया था।मुझे ताज सा. की वो गजल अभी भी याद है------ तुम्हें कुछ नहीं मालूम लोगों फरिश्तों की तरह मासूम लोगों ज़मी पर पांव,आंखें आसमां पर रहोगे उम्र भर मग़लूम लोगों अगर तेशा नहीं,पत्थर उठालो रहोगे कब तलक मज़लूम लोगों। एक दिन अचानक खबर आई कि मोरारजी देसाई भूमिगत हो आ रहे हैं ,पापा को उनके रुकने की जगह तक सुरक्षित पहुंचाना था,एक कार थी आलोक भाई के मित्र रोशन खुल्लर की ,बस हमें यह काम मिल गया,हम बहुत खुश थे कि एक बड़ा काम कर रहे हैं तय स्थान से लेकर आलोक भाई और रोशन उन्हें लेकर निकला पर बीच में कार खराब हो गई ,रोशन ने कहा-बगैर धक्के यह नहीं स्टार्ट होगी,दुबला-पतला आलोक और एक कोई मोरारजी के साथी बस गाड़ी में धक्का ठीक से नहीं लग पा रहा था तभी रोशन मोरारजी जी से मुखातिब हुआ-अरे आप भी थोड़ा धक्का दे दें और वे भी उतर कर कार को धकियाने लगे खैर जैसे भी हो पुराने शहर में ठीक से याद नहीं रुकमणी दीदी के घर उन्हें ठहराया गया। आज तक रोशन भाई और हम उस घटना को लेकर हँसते हैं। उस दौरान घर के सोफे, तकिये,फटे होते थे उनमें कहीं जार्ज फर्नाडिस के तो कहीं राजनाराण तो और किसी-किसी के भेजे गये कागज होते थे हमें यह तो नहीं मालूम होता कि क्या लिखा है बस इतना कि उनकी गोपनीयता जरूरी है। तभी दुष्यंत अंकल के देहांत के चौथे -पाँचवे दिन एक नियत स्थान बता मुझे सायकल पर अंकल के घर से एक थैला भर कागज मंगाये थे। समय करवट ले रहा था और एक दिन भोपाल रेलवे स्टेशान पर जयप्रकाश नारायण जी की सभा होना तय हुआ ,पापा बहुत उत्साहित थे ,रातों-रात सभा के पोस्टर चिपकाने थे हमारी वानर सेना तैयार थी,पापा आटे की लेई बना कर हमें देते और हम सब जगह-जगह पोस्टर चिपका कर आते। एक साथ बहुत सारे पोस्टर लेकर भी नहीं जा सकते थे अगर पकड़ा गये तो सारा खेल खत्म ,इसलिए जब 20—25 लग जाते तब फिर पापा लेई और पोस्टर देते,स्थान भी बताते कि अब फ़ला-फला स्थान पर और लगाओ,पूरा शहर हम वानरों ने पोस्टरों से पाट दिया था। सुबह मेरा काम जे.पी. के रसोइये गुलाब के साथ उनके भोजन की व्यवस्था करना था। जे.पी. का भाषण सुनाने हजारों लोग आये थे,मैंने इसके पहले इतनी भीड़ कभी नहीं देखी थी। आखिर इंदिरा ने 21मार्च 1977 को इमरजेंसी खत्म कर चुनाव की घोषणा कर दी और भारत का अलोकतांत्रिक काल खत्म हुआ। एक सही राष्ट्र भक्त कभी भी सीमाओं में राजनीतिक दलों में बंध कर नहीं रह सकता उसका अधिकार क्षेत्र कोई दलनहीं समूचा राष्ट्र होता है और जब राष्ट्र की बात आती है तब फिर वे बस राष्ट्र के होते हैं और सारे रिश्ते नाते सब परे हो जाते हैं। पापा को देख कर तो यही जाना। उन्होंने हर नेता के अच्छे कामों की दिल खोल कर मुक्त कंठ से प्रशंसा की तो गलत कामों पर फटकार भी लगाई। तभी छोटी मानसिकता के लोग ने उनके रास्तों पर रोड़े बिछाते गये हैं। किसी ने उन्हें लोहियावादी कहा तो किसी ने कांग्रेसी तो किसी ने जनसंघी कहा पर वे कोई वादी नहीं मात्र और मात्र राष्ट्रवादी थे जिसे कोई सरकार झूका नही सकी।


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