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याद-ए-अनुरागी:काशी के मंदिर में मैं अजान दूँगा,काबे में मेरा दोस्त,वेद-मंत्र गुँजाएगा।

वीथिका            Jun 14, 2016


richa-anuragi-1 ऋचा अनुरागी। मानव-मानव में कोई विच्छेद नहीं होगा गेलोली के कूल कन्हैया,रास रचाएगा यमुना के तट ईशु अपनी भेड़ चराएगा काशी के मंदिर में साथी मैं अजान दूँगा, काबे में मेरा दोस्त, वेद-मंत्र गुँजाएगा। जो ऐसा सोचता और लिखता हो वह ठीक वैसा ही करता हो कम ही देखने में आता है।अक्सर लोगों की कथनी और करनी में जमीन-आसमान का फर्क होता है ,पर पापा ने हमेशा जो कहा वही किया भी। उनके घर के दरवाजे सबके लिये खुले थे। उनकी बाहों में आकाश जैसी जगह थी, जो मिलता उनमें समा जाता बस फिर वह भी अनुरागिणाः हो जाता।

रमजान का पाक महीना चल रहा है और मुझे फिर बचपन याद आ रहा है। इन दिनों माँ का काम बढ़ जाता था,सुबह सूर्योदय से पहले कुछ पका कर मोहल्ले के मुस्लिम घरो में सहरी के लिये के भेजना शाम इफ्तरी का इंतजाम करना। शायर शेरी भोपाली अंकल का तो जबाब नहीं ,जनाब सुबह- सुबह आ जाते रमजान तो बहाना होता इन्हें तो माँ के हाथ की कोई भी चीज हो अच्छी लगती ,जाते हुये कहते जाते- शाम इफ़्तारी भी अमा यार अनुरागी यहीं करुंगा और फिर शाम यह अकेले नहीं होते साथ में दो-चार कवि, शायर साथ होते। कहीं विद्रोही अंकल तो कहीं कोई और ,सब साथ रोजा इफ्तारी करते ,नमाज अदा करते और चल देते। जमीर भाई शमीम दीदी ऊबेज भाई ,मुनवर भाई शफीका अंटी अहद प्रकाश ,सगीर किरमानी मेहफूज़ दुर्रानी इनके बारे में क्या कहूँ यह सब तो हमारे परिवार के सदस्य ही थे। प्रोफैसर आफ़ाक अंकल भी यदा-कदा तशरीफ ले आते और उस बीच अगर मेंहमूद भाई बैठे हों तो फिर क्या कहने,गीत-गज़लों,शेरों-शायरी का जो दौर चलता तो रात का पता ही नहीं चलता ।बहदुर शाह जफ़र की गज़ल ----लगता नहीं है दिल मेरा--- और मुल्क की मिट्टी की चादर कहाँ, जफ़र तू तो अब बे वतन जाएगा। मेहमूद भाई की आवाज में जफर साहब का दर्द ऐसा उतरता की मैं रोने लगती थी और फिर मेरा मुड ठीक करने के लिये भी गीत गुनगुनाऐ जाते । एक बार आलोक भाई जो मुझ से दो साल छोटा था और उस वक्त शायद दस साल का रहा होगा ,जिद्द कर बैठा कि वह भी रमजान में रोजे रखेगा तब उसके रोजे की तैयारी होने लगी पहले रोजे पर इरफाना शरद अंटी , सरोद वादक उस्ताद रहमत अली जी की सास जिन्हें हम सब आपा कहते थे ,सभी ने भाई के लिये नये कपड़े ,जूते और ढ़ेर सारे खिलौने ला दिये ।सबने अपने -अपने घरों से उसके लिये रोजा इफ्तारी का सामान ला कर एक साथ रोजा इफ्तारी की।घर का हाल किसी त्यौहार से कम ना था।यह पाक माह ऐसा ही गुजरता था ,कभी हम पापा के साथ किसी के घर दावत पर मदु होते तो कभी कोई अनुरागिणाः आँगन में मदुु किया जाता ।मीठी ईद तो महिने भर चलती ,शमीम दीदी(सरोद वादक उस्ताद रहमत अली खाँ साहब की पत्नी) मेरे लिये सुन्दर सुन्दर ड्रेसेज् तैयार करती ।सबसे खास ईद मेरी ही होती।ढ़ेर सारी ईदी मिलती ।पूर्व मंत्री रसूल अहमद सिद्दीकी अंकल से मैं लड़कर अपनी इच्छानुसार ईदी ,शादी के बाद तक लेती रही।पापा की कुर्ते की जेबें भी दिवाली जैसी ही ईद पर भी बड़ी हो जाती थीं सभी को ईदी देने के लिये। मेरा बचपन नाना-नानी के आँगन से शमीम दीदी और जमीर भैया के आँगन में धमाल करने लगा। कभी आपा की गोद कभी जमीर भाई (उस्ताद अमज़द अली और रहमत अली साहब सरोद नवाज़ के साले )के काँधों पर शैतानी करती यह नटखट कब बड़ी हो गई पता ही नहीं चला ।   शमीम दीदी की शादी का किस्सा भी बड़ा मजेदार है ,दीदी बतलाती हैं एक दिन वो बस के इंतजार में खड़ी थी कि सामने से जीप में अनुरागी जी आ गये ,वे रेडियो स्टेशन अपनी किसी रिकॉर्डिंग के लिये जा रहे थे उन्हें भी साथ ले गये आकाशवाणी के डायरेक्टर शिगलू जी उनके दोस्त थे ,अनुरागी जी उनसे मिलते ही बोले -यार इसकी आवाज तुम्हारे रेडियो के लायक है इसके गले का उपयोग तुम्हारे श्रोताओं के लिये करो और शमीम दीदी आकाशवाणी भोपाल विविध-भारती की उदघोषिका हो गईं और विविध भारती को एक बेहद खूबसूरत आवाज मिल गई। कुछ दिनों बाद दीदी ने पापा से शिकायत की कि एक सरोद-वादक लड़का उन्हें देखता रहता है और वे उससे परेशान रहती हैं। फिर पापा पहुँच गये, आकाशवाणी ,डायरेक्टर के कमरे में पेशी के लिये बुलाया गया मियां रहमत अली साहब को ,तो पता चला कि वे शमीम को दिल दे चुके हैंपापा को दीदी के लिये लड़का पंसद आ गया। अब पैगाम लेकर लड़की के घर कौन जाये?तो खुद अनुरागी जी लड़के का पैगाम लेकर अपने ही घर आ गये और खुदी ने कबूल कर लिया ,क्योंकि दीदी की ओर से भी घर के बड़े वो ही थे,आपा ने पापा को ही सारी जिम्मेदारी सौंप रखी थी। शादी का सहरा भी खुदी ने लिखा और इस तरह शमीम रहमत की हो गई । richa-anuragi-amzad-ali सरोद वादक उस्ताद रहमत अली खाँ और अमज़द अली साहब ,शमीम रहमत अली ,  राज लक्ष्मी ,जमीर भाई ,ऋचा ,डॉ. ए.के. जैन और.अविराज अधिराज । उस्ताद रहमत अली और अमजद अली साहब के घर भी सभी धर्मों का समान आदर होता है। ईद और दिपावली दोनों ही मनाई जाती थी। मुझे आज भी याद है जब भोपाल की गंगा-जमुनी तहजीब पर सियासी बादल मंडराये और हिन्दू-मुस्लिम दंगा भड़का तब कर्फ्यू में थोडी सी ढील होते ही रहमत जीजू मेरे घर आ गये और बोले-तेरा शौहर डॉ.तो अस्पताल से घर आने से रहा बेटू मुझे तेरी फिक्र रहती है बच्चों को लेकर घर चल। उन्हें अपनी फिक्र नहीं मेरा और मेरे बच्चों का ख्याल था। माँ रहमत जीजू की फरमाईश पर स्पेशल गुजिये और पापड़ी बनाती माँ के हाथों का जीरामन तो जीजू की थाली में जरूरी था। पापा ने हमें धर्म और मजहब में नही बांटा, हमारे नाम के आगे जाती सूचक मज़हबी उपनाम नहीं दिया ,उन्होंने हमें अनुरागी शब्द से जोड़ा। वे कहते थे तुम सबसे प्रेम करो,सब तुमसे प्रेम करेंगे।आलोक भाई जब अचानक दुनिया से चला गया तब हमारे यहाँ सर्व धर्म प्रार्थना हुई ,कुरान शरीफ का पाठ हुआ ,शहर काजी स्वयं शरीक हुये ,गीता,बाइबिल, अरदास जिसे जो करना था सबने किया ,शायद इसलिए ही हम उस कठिन समय को सह पाये। वे हमेशा कहते थे --ईश्वर, सिर्फ इंसान पैदा करता है,समाज,उसे धर्म-मज़हब में बाँट देता है। इसीलिए वे कहते थे --

खुदा पर रहम कर ओ,मस्जिद के मुल्ला प्रभु पर दया कर ओ, मठ के पुजारी तुम्हीं खुद खिलौने हो जिस नुमाइश के उसी की नुमाइश ये तुमने सज़ा दी।

उनकी यह एक लम्बी रचना है फिर कभी इस पर विस्तार से बात करेगें। वे तो समूची दुनिया को एक परिवार में देखना चाहते थे,वे आप सबके बेटों के लिये धरती नही चाँद से बहू लाने की बात करते थे -- अपने बेटों के लिये ,प्यारे धरा-वासियों चन्दा हम जाएँगे चँदनियाँ बहू लाएँगे । ऐंसे प्यारे और प्यार बाँटने वाले इंसान थे मेरे पापा ।



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