ऋचा अनुरागी।
श्री राजेन्द्र अनुरागी और आचार्य रजनीश ओशो की मित्रता और उनके आत्मिक सम्बंधों के बारे में तो उन दोनों को जानने वाले अच्छी तरह जानते हैं। सभी यह भी जानते हैं कि वे बाल सखा थे और दोनों में आत्मिक स्नेह भी था। वे अक्सर रजनीश जी के बुलाने पर उनसे मिलते भी रहते थे। रजनीश जी के कई फैसलों पर अनुरागी जी उनसे नाराजगी भी प्रगट करते और समझाते भी।
दोनों की मित्रता मानसिक तौर पर प्रगाढ़ थी। पापा की कई रचनाओं पर ओशो ने लम्बे समभाषण और उनकी कविताओं को बेस बना कर खूब व्याख्या भी की। पापा ने उनकी पुस्तकों की भूमिकाऐं भी लिखी और अपने कई लेखों में रजनीश जी के कहे-लिखे को समाहित भी किया। दोनों मित्रों की विचारधाराऐं अनेक मामलों में बहुत मेल खाती थी और यही कारण था कि दोनों एक-दुसरे के बहुत करीब थे। लोग तो यहाँ तक कहते हैं कि अनुरागी जी को देख आश्रम में अनेकों बार भ्रम हो जाता था कि रजनीश जी आ रहे हैं।
हू-ब—हू एक से दिखने वाले इन मित्रों की टेलीपैथी भी गजब की थी। ना जाने वे दोनों कैसे अपनी
बातों को बगैर बोले,बगैर मिले और बगैर किसी संदेश के एक-दुसरे तक पहुंचा देते थे,मैं आज तक समझ नहीं पाई।क्या इसी को बुध्दत्व अवस्था कहते हैं? क्या इसी को ध्यान और समाधि की परम अवस्था कहते हैं? या परम घनिष्ठता मित्रता की चरम अवस्था कहते हैं?यह सब हमारी समझ से परे है। यह तो इन दोनों परमों के परम बीच की बात है। अमृता प्रीतम ने अपनी पुस्तक 'अनंत नाम जिज्ञासा'में लिखा भी है भोपाल के अनुरागी जी को देख कर लगता है, जैसे प्राचीन सूफ़ी दरवेशों या जैन फ़क़ीरों की कहानियों का कोई पन्ना किताबों से निकल कर इंसानी सूरत में आ गया हो। वे कई बार उन्हें ओशो का दरवेश कह कर संबोधित करतीं।
पापा कहते-मैंने रजनीश को मना किया था कि भारत छोडकर अमेरिका मत जाओ पर वह नहीं माना और कहता तुम नौकरी छोड़कर मेरे पास आ जाओ और बात आई-गई हो गई। मैं आने वाले खतरे से उसे आगाह करा चुका था पर भाई उम्दा तर्क शास्त्री जो ठहरा कहाँ मानता और चल दिया। वहाँ की खबरें भारत आती रहतीं और इन दोनों के बीच खतो-खिताबत चलती रहती।कैसे उनके शिष्यों ने एक दलदली जमीन को अथक मेहनत से रहने योग्य ही नहीं बल्की स्वर्ग सा सुन्दर बना दिया। हर दिन उनके शिष्यों की संख्या बढ़ती ही जा रही थी और पापा घबरा रहे थे जैसे उन्हें सब दिखाई दे रहा हो।
एक रात पापा बहुत बैचेन थे,देर रात तक कुछ लिखते रहे। लेटे तो ओशो का कैसेट सुनने लगे आँखें बंद थी और आँखों की कोरों से आंसू ढलक कर सिरहाने को गीला कर रहे थे। जल्द ही खबर मिल गई कि रजनीश जी को अमेरिका में थैलीयम नामक धीमा ज़हर दीया गया है, उनके शिष्यों के द्वारा ऑरेगान अमेरिका में बनाये गये रजनीश पुरम को तहस-नहस कर अमेरिकी सरकार ने हथिया लिया है और ओशो को भारत भेजा जा रहा है। यह सब क्यों किया?
ना रजनीश जी को और न ही उनके शिष्यों कभी किसी तरह की राजनीति मे में दिलचस्पी थी। ओशो ने तो कबीर बन जाति-मजहब की दीवारों पर बार किया था उन्होंने अपनी वाणी के ओज से दुनियाभर के लोगों को एक करने की कोशिश की थी। उन जैसा विचारक,तर्कशास्त्री, विद्वान शायद ही अब इस युग में होगा।अमेरिका-जर्मनी, इटली,रुस को शायद परमाणु बम से जितना भय नहीं था उतना एक भारतीय संत ओशो रजनीश से था।
दरअसल जो भी संत या व्यक्ति समाज की कुप्रथाओं से लड़ेगा ,समाज को नयी सोच ,नयी दिशा देगा उसे इस इस समाज के तथाकथित ठेकेदार सहन नहीं कर पाते और षडयंत्र शुरु हो जाता है। बुध्द,ईसा,सुकरात,कबीर उदाहरण हैं। ये लोग समय से आगे की सोचते हैं और उस समय के लोगों की समझ से परे होता है।
मैं बहन श्यामू को थैक्स कहती हूँ उसने मुझे एक खत जो पापा ने रजनीश जी को उस समय लिखा था जब यह सारा घटनाक्रम चल रहा था, उपलब्ध कराया। खत बहुत लम्बा है कुछ अंश आपको सौपती हूँ--
प्यारे भगवान
इधर कुछ दिनों से तुम्हारे बारे में तो लिख रहा हूँ ,तुम्हीं भर को नहीं लिख पाया था। अभी पिछले दिनों, जब घटनाचक्र अचानक कुछ तेज़ ही
रफ्तार पर गया था,सभी स्तब्ध थे,मैं किन्तु गा रहा था--
चेतन फिर से घूम रहा है
स्वयं सलीब उठाए
जड़ता ने फिर गुरु प्रभुता पर
कटु आरोप लगाए
वे जो नयी बाइबिल बोले
बोले नयी ऋचाएँ
आने वाला युग समझेगा
हम कैसे समझाएँ
चेतन तो अक्षर होता है
अमृतधर होता है
युग-युग तक गुंजित-अनुगुंजित
उसका स्वर होता है---
प्यारे लम्बी कविता है। इसके कुछ अंश 'रजनीश टाइम्स'पूना ने उन्हीं दिनों छापे भी हैं।
मैं मगर आस्वस्त था कि वे तुम्हें मार नहीं सकते। बाप और बेटे की कथाओं में कुछ तो अन्तर होना चाहिए न। कोई बीस सदी पहले बेटे को तो उन लोगों ने -सलीब पर ठोंक मारा था,तुम तो मगर स्वयं तुम हो।
अच्छा, अब ज़रा थोड़ा नीचे उतर कर दुनिया की बात करे। तुम भारत आ गये हो, यह बहुत अच्छा हुआ। जो इन दिनों तुम धड़ल्ले से बोल रहे हो। मैं तो सरकारी नौकरी में रहते हुए यहाँ खुली मंचों से कह पा रहा हूँ ----लम्बे खत के अंत मे लिखते हैं ---अन्त में एक बात और,मेरी यदी कहीं कुछ विशेष उपयोगिता हो सकती हो, तो निस्संकोच लिख भेजना। बाल सखा सोचकर संकोच मत करना। अन्यथा वैसे तो तुम भगवान हो, प्रेरित-निर्देशित कर सकते हो।
और हाँ, मेरा यह पत्र पाकर शायद तुम अब हिन्दी में सोचने और बोलने की कृपा कर सको,इसी अनुरोध के साथ।
सानुराग
अभी इतना ही अगले मंगलवार दोनों का भारत मिलाप.......
Comments