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याद-ए-अनुरागी:जेल में कंचे खेलने वाला वो बाल क्रांतिकारी सरस्वती पुत्र

वीथिका            Aug 15, 2016


richa-anuragi-1ऋचा अनुरागी।

आज अपना देश लाम पर है, जो जहाँ भी है, वतन के काम पर है। पापा की ये पंक्तियाँ कंठ-कंठ में बसी थीं। नारा बन गई थीं। पू. शिवमंगल सिंह सुमन जी तो इन पंक्तियों को हर मंच से सुनाते थे। मैं आज बाल क्रांतिकारी श्री राजेंद्र अनुरागी की बात करने जा रही हूँ।

पावन माँ नर्मदा के आंचल में जन्म लेने वाले श्री राजेंद्र अनुरागी सरस्वती-पुत्र वास्तव में एक बाल क्रांतिकारी थे।महाशिवरात्रि के पावन पर्व-16फरवरी,1931 को परतंत्र भारत में स्वतंत्रता संग्राम सेनानी श्री सेठ मोतीलाल जी जैन के घर जन्म लिया।अपनी तोतली ज़ुबान से आज़ादी के तराने गाते, नारे लगाते, आज़ादी की अलख जगाते घूमते। पापा के ही शब्दों में ----"सन् 1942 के आते-आते तक मेरा कवि अंकुरित हो चुका था। मैं सातवीं कक्षा का छात्र था और बच्चों की टोली में क्रान्ति के तराने गाता था।गाते-गाते खुद भी तुकबन्दियां जोड़ता और अपनी रची पंक्तियों को खुद ज्यादा ही जोश में गाता था।"दहती" उपनाम से कविता करने वाले स्व. लाला अर्जुन सिंह जी क्षेत्र के सर्वमान्य नेता थे।हमारे ही मोहल्ले के मतवाले गायक श्री नारायण प्रसाद आज़ाद और कवि दीनदयाल दिनेश भी मुझे प्रेरणा देते थे।" आजादी पाने की दीवानगी ऐसी कि स्कूल में भी पढ़ाई कम और आज़ादी कैसे हासिल हो यही सब सोच-विचार चलता रहता। एक दिन सोच लिया कि आज चाहे जो भी हो पर स्कूल की खपरेल वाली छत से अंग्रेजी झंडा उतार फेंकेंगे और अपना प्यारा तिरंगा फहरायेगें। बस क्या था पापा छत पर चढ़ गये अंग्रेजी झंडा निकाल फेंका और फिर --"विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊँचा रहे हमारा , के गीत के साथ नारे बुलंद होने लगे। शोर सुनकर पुलिस आ गई तभी अंग्रेज अफ़सर ने बच्चों की टोली को तितर-बितर करने के लिए हवाई फायर किया और झंडे को उतारने का आदेश दिया। अनुरागी जी ने आवेग में अपनी गुलेल चला दी जिससे अंग्रेज अफसर के कान का पर्दा फट गया, खून बहता देख पुलिस पकड़ने दौड़ी तो पापा नर्मदा में कूद कर दूसरे पार पहुँच गये, पर पकड़ा गये। उम्र में बहुत छोटे थे तो कुछ दिन की जेल और हाथों पर कुछ बेंत पड़ी नाज़ुक हाथों में खून रिस आया पर बाल-मन और अधिक दृढ़ हो गया आज़ादी पाने के लिए। जेल में स्वतंत्रता सेनानियों के साथ देशभक्ति तराने गाते आज़ादी के नारे बुलंद करते, सबसे मजेदार बात वे वहाँ कांच की गोलियों के कंचे खेलते। यह हमें तब मालूम हुआ जब एक बार पापा से मिलने पद्मश्री साहित्यकार मेहरुन्निसा परवेज़ घर आई हुई थीं वे पापा को अपना बड़ा भाई मानती हैं, उनके पास एक बहुत पुरानी पुस्तक थी जिसमें होशंगाबाद जेल की एक तस्वीर थी उसमें स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की तस्वीर भी थी उसी तस्वीर में पापा कंचे खेलते दिखाये गये थे। जब पापा जेल से बाहर आए तो अन्दर की बहुत अहम ख़बरें अपने साथ लेकर आए। पापा का एक और बड़ा काम था, वह था रात को आवश्यक सामग्री, दवाईयाँ भोजन सामग्री, आवश्यक सूचनाएँ, अखबार लेकर होशंगाबाद, बुदनी के जंगलों में छिपे स्वतंत्रता सेनानियों के लिये लेकर जाना और वहाँ से उनके समाचार लेकर बाहर के गुप्त स्थानों तक पहुंचाना।यह सिलसिला लगातार चलता था। पापा के पास एक छोटी सी साईकिल हुआ करती थी। पापा के पेट और पीठ पर जरुरी कागजात बांध दिये जाते ऊपर से ढीला कुर्ता पहना दिया जाता, दवाईयाँ और खाने-पीने का सामान साईकिल पर रख दिया जाता फिर इन्हें उस पर बैठा कर धक्का दे दिया जाता, क्योंकि वजन की वजह से खुद उस पर नहीं बैठ पाते थे। यह नन्हा सवार जंगलों में छिपे स्वतंत्रता सेनानियों के पास पहुँच जाता, वे इन्हें उतार सामान लेकर वही प्रक्रिया दुबारा शुरु कर देते और इनकी वापस रवानगी कर दी जाती। इस दौरान अक्सर रात को पुलिस घर पर आ दादा जी से कहती-अपने बेटे को दिखाओ और दादा जी, पापा से बड़े भाई नरेन्द्र ताऊजी को छत से सोते हुये उठाकर दिखाते हुए कहते "यह रहा मेरा बेटा" और पुलिस को चलता कर देते।कभी पुलिस पापा को रोकती तो पापा दवाईयाँ दिखा कर कहते पास के गाँव में देने जा रहा हूँ और रफ़ूचक्कर हो जाते। आज़ादी का जुनून ऐसा कि उन्हे ख़ौफ़नाक जंगल तक जाने में ड़र नहीं लगता। आज़ादी के तराने गाते हुए यह बालक किशोर होते-होते कवि, गीतकार हो गया वे स्वयं बताते थे कि -"पिता पूज्य श्री सेठ मोतीलाल जैन भी स्वतंत्रता-संग्राम में सक्रिय थे। घर के बड़े-बूढ़ों के विरोध के बावजूद वो मेरी पीठ थपथपाते थे। उन्हीं के साथ मैं कवि-सम्मेलनों और मुशायरों में भी चला जाता था। उन दिनों तक कवि सम्मेलनों और मुशायरों का व्यवसायीकरण नहीं हुआ था। सचमुच आनन्द आता था।पू. पिता जी की मित्रता के कारण ही सुभद्रा कुमारी जी चौहान, भारतीय आत्मा पं माखनलाल जी चतुर्वेदी, पं. भवानी प्रसाद जी तिवारी, केशव प्रसाद जी पाठक, रामानुज प्रसाद जी श्रीवास्तव, श्री भवानी प्रसाद जी मिश्र, प्रभाग चन्द्र जी शर्मा, स्वामी कृष्णानन्द जी सोख्ता इत्यादि उस युग के बड़े कवियों का निकट सम्पर्क भी मुझे सहज-सुलभ रहा।" पापा ने ऐसे अनेक अद्भुत संस्मरण हमें सुनाये हैं। उनकी जिन्दगी भी कभी सीधी-सपाट नहीं रही, नर्मदा की धार-सी, कभी भेड़ाघाट की मरमरी घाटियों में से होकर बही,तो कभी होशंगाबाद, ओंकारेश्वर और महेश्वर के घाटों से होकर गुजर गई; रुकी पर कहीं नहीं। अक्सर लेट सोकर उठने वाले पापा को मैंने 15अगस्त पर अलसुबह जागकर सबको जगाकर तैयार हो झंडा वंदन के लिये उत्सुक और उत्साहित होते देखा है। राष्ट्र-गान की हल्की सी धुन भी कहीं सुनाई देती तो तन कर खड़े हो जाते। अगर रास्ते में कोई बच्चा झंडा बेचता दिख जाता तो उसके पास के पूरे झंडे खरीद कर सबको बांट देते । ज़िंदगी भर खादी पहनी, बाद-बाद में हम लोग खासकर बॉबी भाई ने उन्हें हाथ से बने कोसे के कुर्ते पहनाए। पर उन्होंने सदा खादी ही पसन्द की। आज आप सबको उनकी वो रचना भेंटती हूँ, जिसे जब वे सुनाते थे तो मेरा रोम-रोम अन्दर तक आज़ादी का एहसास करता था ।  

rajendra-anuragiजश्न-ए-आज़ादी का गीत ------------------------------------- दिल में जज़्बा चाहिए यह गीत गाने के लिए गीत है यह जश्ने आज़ादी मनाने के लिए सरफ़रोशी की तमन्ना जिस किसी के दिल में है वह उठाए साज़ मेरे साथ गाने के लिए। मुफ़्त में आज़ादियाँ मिलती नहीं हैं दोस्तो, मुल्क जो आज़ाद होते हैं, लहू के मोल होते हैं। कभी फाँसी के तख़्तों पर तराने गाए जाते हैं

 कभी बेटों के सर रख तश्तरी में लाए जाते हैं

जवानी तोप के मुँह पर खड़ी हो मुस्कराती है शहीदाने-वतन बेड़ी की लय पर गुनगुनाते हैं। मुफ़्त में आज़ादियाँ.... कभी पूरी-की-पूरी कौम केसर में नहाती है कभी जौहर की ज्वाला में पद्मिनी जगमगाती है तभी मालूम होता है कि आज़ादी भला क्या है कि पूरी कौम जब उसकी सही कीमत चुकाती है... मुफ़्त में आज़ादियाँ........ ये आज़ादी खुदीरामों-भगतसिंहों की लाई है तिलक ने, लाजपत ने जोत जन-जन में जगाई है इसे गाँधी ने टेरा है,सुभाषों ने पुकारा है ये आज़ादी बड़ी कुरबानियों के बाद आई है..... मुफ़्त में आज़ादियाँ..... शहीदों ने नया सपना सहेजा है, सँवारा है। इसी का नतीजा यह आज का दमखम हमारा है नये इतिहास से पूछो, हमारे हौसले क्या हैं नये भूगोल को हमने खरोंचा है, सुधारा है.... मुफ़्त में आज़ादियाँ....... हमारे खेत अब अपनी ज़रूरत भर उगाते हैं पड़ोसी भी इसी भंडार से परसाद पाते हैं हमारी जवानी जल-थल-गगन की स्वयं रक्षक है हमारे नाम से दुश्मन हमारे थरथराते हैं..... मुफ़्त में आजादियाँ.... अभी तो जंग जारी है ग़रीबी को हटायेंगे सभी मेहनत करेंगे और मिल-जुल के खायेंगे करेंगे बन्द शोषण के सभी गन्दे पनालों को नये इंसान के क़ाबिल नयी दुनिया बनाएँगे ..... मुफ़्त मे आज़ादियाँ...... हमारे हौसलों की जय, हमारे परिश्रम की जय नये इंसान के तीरथ, नये दैरो -हरम की जय समाजी चेतना की जय समाजी आचरण की जय कली की फूल की हर 'शाख' की,सारे चमन की जय। अमन की जय। वतन की जय।

मुफ़्त में आज़ादियाँ मिलती नहीं हैं दोस्तों, मुल्क़ जो आज़ाद होते हैं, लहू के मोल होते हैं। "जय हिन्द "



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