तीरथ कर देते जो जग को,तीर्थंकर होते हैं। समवसरण में मुखरित उनके शाश्वत स्वर होते हैं। केवलज्ञान दीप की लौ में,जो प्रकाश होता है । युग-युग तक आलोकित उससे धुति अक्षर होते हैं।
हमारा पैत्रिक घर होशंगाबाद के जैन चैत्यालय के सामने है।इतने सामने की हमारी छत और चैत्यालय की छत से हम रस्सी बांध कर झूला डाल कर झूलते। दादी और पूरा सेठ परिवार जैन धर्म के अनुयायी होने के साथ-साथ सही अर्थों में उसे निभाने बाले भी थे।पापा ने दादी की गोद में लोरी नहीं भजन सुने या फिर अपनी चाची से देश भक्ति के गीत सुने।मंदिर की मधुर पीतल की घंटियों की आवाज से उनकी सुबह होती।जैन धर्म को नजदीक से समझने का उन्हें अवसर मिला,जिसे उन्होंने अपने चरित्र में बडी ही सहजता से उतार लिया।हमने पापा को कभी मंदिर जाते नहीं देखा ,कभी व्रत-उपवास,पूजा-पाठ करते नहीं देखा। हाँ वे भक्तांबर जी का पाठ नियमित करते उसके लिए भी कोई नियत स्थान नहीं ,जहाँ उचित वातावरण लगा खड़े हुए और पढ़ लिया।संस्कृत में जिसने भी उनके मुख से पाठ सुना वह मंत्र मुग्ध हो जाता।कंठस्थ पाठ आँखें बंद कर और ध्यान में खो जाते। ना मंदिर ना आसन ना कोई विशेष स्थान बस खड़े होने भर की जगह और सात मिनिट का समय काम समाप्त।उन्होंने आडंबर और दिखावे में कभी विश्वास नहीं किया ,धर्म को कभी जाति नहीं समझा और इसलिए अपने और अपने बच्चों के नाम के पीछे लगे जैन को निकाल फैका अनुरागी लगा कर वैसे ही हो गए।अभी जैन धर्मावलम्बीओं का महापर्व पर्युषण चल रहे है ।मैंने रेदास, कबीर ,सूफी परम्परा का निर्वाह करने वाला सच्चा जैन संत अपने घर में देखा है।आप सब शायद जैन धर्म को वैसा नहीं जानते होगें जैसा मैंने समझा है और अपने पापा में देखा है।जैन धर्म का महामंत्र णमोंकार आइये इसी से बात शुरु करती हूँ। णमो अरिहंताणं णमो सिध्दाणं णमो आयरियाणं णमो उवज्याणं णमो लोय सव्वसाहूणं। णमो अर्थात नमस्कार।अरिहंत का अर्थ होता है,जिसके सारे शत्रु विनष्ट हो गये हो।जिसके भीतर अब कुछ ऐसा नहीं रहा ,जिससे उसे लडना पड़ेगा।भीतर अब क्रोध नहीं है,अज्ञान नहीं है,काम नहीं है और वह सब भी नहीं है जिससे लड़ना पड़े।वे सब समाप्त हो गये।
अरिहंतों को नमस्कार उन सबको नमस्कार जिनकी मंजिल आ गई हो,जिनके शत्रु समाप्त हो गए।जिनको लोभ,मोह,काम नहीं, जिनके अंतरद्वन्द विलीन हो गए।उन्हें नमस्कार । मैं इस महामंत्र की प्रथम पंक्ति पर विचार करती हूँ तो पाती हूँ ,पापा तो ऐसे ही थे,जिनके भीतर क्रोध नहीं था ,काम,मोह लोभ अब था ही नहीं ।अंतरद्वन्द समाप्त था।फिर क्यों ना मैं उन्हें नमस्कार करुं?और मैं उन्हें अरिहंत मान उन्हें नमस्कार करती हूँ। णमो सिध्दाणं--सिध्द का अर्थ होता है वे जिन्होंने प लिया।अरिहंत का अर्थ है जिन्होंने कुछ छोड़ दिया।सिध्दी अर्थात उपलब्धि अर्थात जिन्होंने पा लिया।यह पाना आपके सांसारिक पाने वाला पाना नहीं।वह जो उन्होंने पाया है वह यह सब छोडकर पाया है और इसलिए उन्हें नमस्कार। और मैं इस रुप में भी पापा को खरा पाती हूँ। पिता की असीम दौलत को छोड दिया ,जो स्वयं कमाते वह भी माँ के हाथ में रख देते कभी नहीं पूछा कि क्या किया ?उन्हें न कल की फिक्र थी न आजकी और न कल की।अपरिग्रह का सही उदाहरणों में से एक।अतः उन्हें फिर नमन् करती हूँ। तीसरा सूत्र है ,णमों आयरियाणं।अर्थात आचार्य को नमस्कार। आचार्य का अर्थ है,जिसने पाया भी और आचरण से प्रगट भी किया।जिसका ज्ञान और आचरण एक है।जिनका आचरण ज्ञान से उपजा हो उन्हें नमस्कार ।और इस मामले में भी मैं और उन्हें जानने वाले समझ सकते हैं कि उनका आचरण ठीक उनके ज्ञान से उपजा था और मैं उन्हें इस रुप में भी प्रणाम करती हूँ। चौथे चरण में --णमो उवज्याणं।उपाध्याय को नमस्कार।उपाध्याय का अर्थ है,आचरण ही नहीं उपदेश भी वे जानते हैं,जानकर वैसा जीते है,और जैसा वे जीते हैं,वैसा बताते भी हैं। आचार्य मौन भी हो सकता हैऔर केवल आचरण देख कर न समझ पाने वाले लोगों पर दया कर बोलकर भी समझाये उस उपाध्याय को नमस्कार ।हम सबने उन्हें इस उपाध्यायी रुप में भी अक्सर देखा-पाया है।अतः निसंकोच मैं इस रुप में भी उन्हें नस्कार करती हूँ। लेकिन इन चार के बाहर भी जानने वाले छूट सकते हैं,इसलिए पांचवी पंक्ति में --णमो लोय सव्वसाहूणं।संसार में जो भी साधू हैं उन सबको भी नमस्कार और साधू जैसा सरल संकोची ,सा-ध वाला व्यक्तित्व तो उनका सबने देखा है उसे किसी परिचय ,प्रमाण की आवश्यकता नहीं। महान लेखिका अमृता प्रीतम अपनी पुस्तक "अनंत नाम जिज्ञासा " में पापा के इसी साधू रुप को देख लिखती हैं -"भोपाल के अनुरागी जी को देख कर लगता है,जैसे प्राचीन सूफ़ी दरवेशों या जैन फ़क़ीरों की कहानियों का कोई पन्ना किताबों से निकल कर इंसानी सूरत में आ गया हो..."मैं उनके इस परम रुप को प्रणाम करती हूँ। महावीर जैसे लोग प्रमाण नहीं देते,केवल वक्तव्य देते हैं।महावीर कहते हैं कि धर्म अहिंसा ,संयम तप इनका जोड़ है।अहिंसा धर्म की आत्मा है,केन्द्र है धर्म का ,तप केन्द्र की परिधी है और संयम केन्द्र और परिधि को जोड़ने वाला सेतू। वो मेरे पिता हैं मैं यह सब इसलिए नहीं कह रही हूँ, वे हकीकत में ऐसे ही थे।अगर मैं जैन धर्म की ही बात कर रही हूँ और उस धर्म को आत्मसत् करने वाले अनुरागी जी को देख पा रही हूँ तो बात और आगे बढ़ाती हूँ-- जैन धर्म में एक और बात आती है उपवास की अनशन की यहाँ भी उपवास वो नहीं की फलहार के नाम पर भरपूर पेट-पूजा,या इतना कम की दिमाग और शरीर काम करना छोड़ दे ।दरअसल जब शरीर में भोजन कम होता है तब प्रज्ञा अपनी पूरी शुध्द अवस्था में होती है।क्योंकि तब पचाने का कार्य न होने के कारण शरीर की उर्जा मस्तिष्क को मिल जाती है। फिर आता है ऊणोदरी --अर्थात अपूर्ण भोजन।ऊणोदरी का अर्थ है अपनी इच्छा के भीतर रुक जाना।महावीर कहते हैं --चरम पर पहुँचने के पहले रुक जाना।प्रत्येक इन्द्रिय मांग करती है कि मेरी भूख को पूरा करोऔर इस वृत्ति पर संयम है ऊणोदरी। हमने अपने बचपन से बड़े होते तक खाने के ,स्वाद के बहुत शौकीन पापा को कभी भी बहुत ज्यादा खाते नहीं देखा ,बस शायद हमारे हिसाब से चख लेते थे ।भोजन की थाली में से भी हम सबको एक-एक कूइया खिलाते जाते और स्वयं कुछ कौर का भोजन ही ग्रहण करते।यह उनका नियमित आचरण था।शायद वे इस पर भी अपने संयम से विजय प्राप्त करते थे।अब बात आती है, वृत्ति संक्षेप ---प्रत्येक काम को,प्रत्येक वृत्ति को उसके केन्द्र पर एकाग्र करना।जिस दिन आपकी समग्र शाक्ति वृत्तियों से मुक्त होकर बुध्दि को मिल जाती है,उस दिन आप मुक्त हो जाते हैं। आता है रस परित्याग -यह प्रक्रिया है मन के प्रति साक्षी भाव।सुख और दुख सापेक्ष हैं और मैं जिस जैन दर्शन की बात कर रही हूँ चाहे वह वृत्तियों को केन्द्र में एकाग्र करना हो ,चाहे मन के प्रति साक्षी भाव हो ,यह उनसे बेहतर मैने अपने जीवन में शायद कहीं नहीं देखा।बात आती है अब काया क्लेश -इसका अर्थ है जब दुख आये तब उसे स्वीकार करना।इतना स्वीकार कर लो कि क्लेश का भी बोध समाप्त हो जाए।काया क्लेश की साधना दुख को स्वीकार कर दुख से मुक्त होना है।और पापा को इस प्रक्रिया से भी गुजरते हुए मैंने देखा है,जब मेरा 22 साल का भाई आलोक का स्वर्गवास हुआ हम सब बहुत दुखी,विचलित थे पर पापा दुखद घड़ी में भी जरा भी विचलित नहीं थे। प्रसिद्ध सहित्यकार स्व. राजेन्द्र जोशी ने पापा को याद करते एक लेख --"रेवातट का आडंबर रहित एक तपस्वी-कवि" लेख में लिखा भी था --इस आकस्मिक विपत्ति के दौरान जिस हौसले का अनुरागी जी ने परिचय दिया वह उनकी दुख सहन करने की अपार शक्ति की एक अद्भुत मिसाल थी।सीधी सी बात है उन्होंने यह काया क्लेश का हमें उदाहरण दिखाया था ।अब हम बात करते हैं जैन धर्म में ,संलीनता --संलीन होने के मेरी नजर में तीन प्रयोग हैं।एक शरीर की गतिविधियों को देखना और मन की गतिविधियों को तोड़ना और अंतिम शरीर और मन की गतिविधियों से पार जाना।और वे हमेशा हमें समझाते भी थे कि ध्यान से देखो तुम्हारे मन की गतिविधियों को ,शरीर की गतिविधियों को उन पर स्वयं नजर रखो।और जब तुम यह सीख जाओगे तो तुम्हारा अनुभव चमत्कारी होगा।अपनी इसी शिक्षा को उन्होंने अंगीकार भी किया था। अब आता है अंतर तप-प्रायश्चित -आचार्य रजनीश ने इसे कई उदाहरणों से समझाया है ,जो दूसरे की गलती देखते हैं वे पश्चाताप भी नहीं करते। जो कर्म की गलती देखते हैं वे पश्चाताप करते हैं।जो स्वयं की गलती देखते हैं, वे प्रायश्चित में उतरते हैं। अंतर तप -विनय --अगर मुझे कोहिनूर सुन्दर लगता है,तो वह कोहिनूर का गुण है,रजनीश आगे कहते हैं -किन्तू जब मुझे सड़क पर पड़े कंकड़-पत्थर भी सुन्दर लगने लगें,तब वह मेरा गुण हो जाता है।जिस दिन मुझे सबके प्रति विनय अनुभव होने लगे उस दिन गुण मेरा है। जब तक मैं तौल-तौल कर आदर देता हूँ, वह मेरा गुण नहीं विवशता है।श्रेष्ठ को आदर देने के लिए कोई प्रयास,कोई श्रम नहीं करना पड़ता। बहुत सीधी सी बात है हमारे प्रणाम करने से सूरज की रोश्नी नहीं बढ़ जाती। महावीर कहते हैं कि विनय अनकंडीशनल है,बिना शर्त है।सूरज हवा किसी में कोई भेद-भाव कहीं न करते हैं,वे समभाव से सबको अपनी उर्जा ,अपनी ऑक्सीजन देते हैं जब सम्पूर्ण प्रकृति सभी को समभाव से अपनाती है तो मैं कौन होता हूँ तुम्हें अस्वीकार करने वाला?जो विनय श्रेष्ठ की किन्हीं धारणाओं को मानकर चलती है,वह सिर्फ अंधी होगी,परंपरागत होगी,रुढ़ी होगी।आदर सहज होता है पत्थर और पौधे के प्रति भी। अब मैं पापा के इसी गुण विशेष की बात करती हूँ।हम सभी ने देखा है कि वे हर से उतने ही प्यार से आदर से मिलते थे ,चाहे वह बच्चा हो बड़ा हो ,गरीब हो अमीर हो ,घर के बाहर झाड़ू लगाने आए नगर निगम के कर्मचारियों को भी वे अपने समकक्ष बैठा कर चाय नाश्ता करते उतना ही सम्मान उन्हें देते जितना किसी बड़े पद औहदे वाले को उनसे मिलता और यह सब दिखावा नहीं था उनके लिए तो हर जाति धर्म से ऊपर प्राणी मात्र से प्यार करना ही उद्देश्य था ।उनके चाहने वालों की एक लम्बी फेहरिस्त है और उन्हें जानने वाला हर.शख्स यही कहता है कि वे मुझे बहुत प्यार करते थे।और यही उनका विनय गुण था। अंतरतप या बैयावृत्य--सेवा।महावीर कहते हैं मोक्ष तो तब तक नहीं हो सकता ,जब तक ऋण या धन कोई भी ज्यादा है।जब दोनों बराबर हो जायेंगे शून्य हो जायेंगे ,तभी आदमी मुक्त होगा।मुक्ति का अर्थ यही है कि अब न मुझे कुछ लेना है न देना है और इसी को महावीर ने निर्जरा कहा है।और इसलिए महावीर नहीं कहते कि दया करके सेवा करो,क्योंकि दया ही बंधन बनता है।इसमे भी वही बात अनकंडीशनल बिना शर्त सेवा। दिखावा मत करो सेवा का प्रचार मत करो ,झंडा मत गाड़ो अपनी सेवा का। बस कहीं सेवा का अवसर हो तो हो जाने दो यह काम इतना चुपचाप हो कि स्वयं को भी पता नहीं चल पाये कि हमसे यह सेवा हो गईऔर पापा हमेशा हमेशा कुछ ऐसा करते कि हमें लगता कि पापा यह सब कैसे कर पाते हैं। माँ अच्छी से अच्छी शाल स्वेटर ऊनी वस्त्र पापा को पहना दे पर कब पापा किसी जरुरतमंद को दे आऐंगे पता ही नहीं चलेगा ,यह तो बहुत छोटी सी बात है माँ ने उन्हें जेवर पहनाना ही बंद कर दिया था वे उन्हें भी बांट देते और बडी ही सहजता से।माँ के पुछने पर बस मुस्कुरा कर चुप रहते।कब उनके पैर वहाँ मुढ़ जाते जहाँ बच्चे खैल रहे होते किसी को उनके कुर्ते की जेब से टॉफी मिलती तो कभी पैन-पेन्सील मिल जाती। सड़क पर घुमते कुत्तों को भगोनी भर दूध मिल जाता,गायों को रोटी तो ,कभी कभी तो ठंड में सड़क पर सो रहे जानवरों को दरी-चद्दर से ढ़क भी आते। मुझे याद है जब मैं,मेरे पति डॉ. साहब के ट्रांसफर के बाद भोपाल आई तो किसी ने बेटे को एक तोता दे दिया,हम घर की तलाश में कुछ दिनों पापा के घर पर ही थे तो पहले तो डॉ.साहब को दया आई कि वह छोटे से पिंजरे में है तो उसके लिए बडा सा पिंजरा बनवाया गया फिर पापा उसे चम्मच से चाय-पानी पिलाते ताजे फल खिलाते और उनके आम-अमरुद,अनार के वृक्षों पर आने वाले पक्षियों से उसकी वर्तालाप देख पापा ने उसे बाहर निकाल दिया पर वो घूमफिर कर वापस आ जाता फिर धीरे-धीरे वह उन पक्षियों से घुल-मिल गया और उड़ गया और पापा की खुशी देखने लायक थी ,कभी कभी वह उनके कमरे की खिड़की पर आकर बैठ जाता और बोलता तो लगता वह पापा को थैक्स कहने आता हो।यही वह सेवा थी जो महावीर ने बताई थी । अब जैन धर्म की एक और बात ,अंतर तप स्वाध्याय-स्वयं का अध्ययन--जो मात्र शास्त्रों में डूबकी लगा लेते हैं और अपने को स्वाध्यायी समझने की गलती कर मंदिर में बैठ दूसरों को स्वाध्यायी बनाने लग जाते हैं वे इसके मूल से ही भटक जाते हैं,वे भूल जाते हैं अभी तो सागर शेष है।स्वाध्याय का अर्थ है स्वयं में उतरो और स्वयं का अध्ययन करो।यहाँ क्षमा सहित कहना चाहूंगी कि आज लोग अपना अध्ययन छोड़ औरों को स्वाध्यायी बनाने में लगे हैं न इन्हें कुछ मालूम न उन्हें कुछ ज्ञात बस सब धर्म की भैड़-बकरी के पीछे भागे जा रहें हैं। महावीर ने जो राह मोक्ष की ,स्वयं भगवान बनने की ,आत्म शांति की दिखाई उनके अनुयायी ही उस से भटक रहें है ।यह जो दस दिन आत्म कल्याण के आत्म शांति के बताये हैं इसमें सबसे ज्यादा आडंबर होता है मंदिरों में इतना शोर कि आपके कान के पर्दे जख्मी हो जायें,आत्म शांति की बात तो कोसों दूर,इंद्रियों को बस में करना तो सोचना भी पाप है यहाँ तो उन्हें उत्तेजित करने की प्रक्रिया चलती है। आडंबरों का फूहड़ प्रदर्शन चलता है ,किसने कितनी बोली लगा ली यह व्यापार चलता है।महावीर गौण हो जाते है,शोर शराबे में गुम हो जाते हैं या यूं कहूँ भाग जाते हैं। हो सकता है यह इनका तरीका हो आत्म स्वाध्याय का आत्मशांति का,हमें इसमें नहीं जाना इसके लिये बड़े-बड़े धर्माचार्य मौजूद हैं। मैं भटक रही थी अपने विषय से वापस आती हूँ-तो स्वाध्याय की इस कठिन प्रक्रिया से वे नित गुजरते,हमें भी कहते रात बिस्तर पर अपनी दिनभर की क्रियाओं को देखो ,समभाव से उन्हें देखते हुए अपनी गलती खोजो,उसके लिए क्षामा मांगो और प्राश्चित करो स्वयं यही करते।कुछ दिनों से हम सब महसूस कर रहे थे कि वे निर्वाण अवस्था से गुजर रहे हैं। यहाँ फिर महावीर याद आते हैं-महावीर घर छोड़ना चाहते हैं पर माँ त्रिशाला रोने लगती हैं ,महावीर रुक जाते हैं,किसी भी जीव मात्र को दुख नहीं देना चाहते।माँ की मृत्यु के पश्चात वे अपने बड़े भाई से कहते है मैं जाना चाहता हूँ, बडा भाई भी कठोरता से कहते हैं यहाँ इतना बड़ा दुख पड़ा है और तुझे जाने की पड़ी है ।वे फिर रुक जाते हैं,पर घर में घर से विरक्त,अपनों से विरक्त तब बड़ा भाई समझ जाते हैं कि इसे ओर कष्ट न दिया जाये इसे इन बंधनों से मुक्त कर दिया जाये और वे उन्हें आज्ञा दे देते हैं ।महावीर निकल पड़ते हैं अपनी मंजिल की ओर।यही हाल कुछ पापा का भी था वे हमें बार -बार कहते थे बस अब मुझे जाना है और हम सब उन्हें जकड़ लेते अखिर में उन्होंने हम सबको बुलाया और फिर भुलावे में जाने की आज्ञा ले ली और कुछ ही मिनटों में स्वस्थ्य पापा ,हँसते हुए निर्वाण को प्राप्त हो गये। सही मायने में वे महावीर के अनुयायी थे और उन्होंने उसे आत्मसात किया।अंध धर्माब्लम्बियों को मेरी बात बुरी लग सकती है पर मैने अपने धर्म को और अपने पापा को जितना जाना समझा मैं कह सकती हूँ गृहस्थ जीवन में रहते हुए वे महावीर की चरम अवस्था से मोक्ष को प्राप्त हुए।
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