ये कैसा संन्यासी रे बाबा ये कैसा संन्यासी रे बाबा! छोटे घर को छोड़ बन गया बड़े विश्व का वासी, रे बाबा ये कैसा संन्यासी ! ना पहिने ये वसन गेरुआ ना तन भसम रमाए। फिर भी निर्विकार बैठा है मोहन-जोत जगाए। दीन-कुटी हैं काबा इसका हरिजन का घर काशी, रे बाबा ये कैसा संन्यासी! बापू बन आशीष लुटाए, नेता बन कर राह दिखाए, सबको प्रेम-पंथ पर लाकर हिल-मिलकर जीना सिखलाए। जन-जन के मन जागे चेतन- सहज-जोत अविनाशी, रे बाबा ये कैसा संन्यासी!
पापा के ऊपर बाल अवस्था से ही गाँधी जी का गहरा प्रभाव रहा। गाँधी , नेहरू , सुभाष और उस समय के स्वतंत्रता संग्राम के सभी महा संग्रामी पापा के आदर्श थे। पर गाँधी और नेहरु उनके पंसदीदा महानायक थे। यहाँ तक अपनी एक " पुस्तक शान्ति के पाँखी " की अधिकांश रचनाएं उन्होंने इन दो महानायकों पर लिखी हैं। बचपन में पापा ने हमें गाँधी जी की अनेकों कहानियां सुनाई । हमारे लिये पापा छोटी-छोटी पुस्तकें लाकर देते , जिसमें गाँधी, नेहरु, सुभाष, भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद और अन्य क्रान्तिकारियों के बारे में हमें जानकारी मिलती, और फिर पापा उनके बारे में हमारी जिज्ञासाओं का समाधान करते और विस्तार से बताते। वे बहुत सारी बातों में हमें गाँधी जी के उदाहरण देकर समझाते थे । स्कूल के दिनों की एक घटना मुझे आज भी अच्छे से याद है--मेरा अंग्रेजी का ज्ञान अच्छा नहीं था जो आज भी नहीं है पर परीक्षा तो पास करनी थी ,वरना आठवी में ही अटके रहना था ।बहुत रट-रट कर तैयारी कर ली ,इसमें पास होना जो जरुरी था ,यह अंग्रेजी का आखिरी परचा था , इसके बाद अपनी मनपसंद भाषा आप चुन सकते थे और अंग्रेजी का किस्सा खत्म। यह बात हमारी टीचर भी भली-भांति जानती थी ,सो उन्होंने मेरे पास बैठी रेखा से कहा तुम एक-दो बडे प्रश्नों के उत्तर नकल करवा देना। यह उनका हुक्म था वह बेचारी बार-बार मुझे नोचती और इशारा कर नकल करने को कहती, पर मैंने जो कुछ रटा था और मुझसे बन पडा उसी में से लिख कर कॉपी बंद कर बैठ गई। कुछ देर में मैडम हमारे पास आकर खड़ी हो गई ,फुसफुसाते हुये रेखा बोली मैडम यह देख ही नहीं रही है मैंने कई बार बताने की कोशिश की फिर भी....मैडम मुझसे बोली क्यों पास होना नहीं चाहती? और में खडी हो गई ,मुझे पापा के द्वारा बताई गाँधी जी की कहानी याद आ रही थी --एक बार गाँधी जी की कक्षा में सभी बच्चों को अंग्रेजी के पाँच शब्द लिखवाये उस दिन शिक्षा विभाग के इन्स्पेक्टर आये हुए थे। उनके शिक्षक ने गाँधी जी को भी इशारा किया कि वे दूसरे बच्चों की नकल कर लें पर गाँधी जी ने ऐसा नहीं किया। सभी विद्यार्थीयों के पांचों शब्द सही थे पर गाँधी जी के गलत थे ।वे नकल को भी चोरी ही मानते थे। अतः मैं भी क्लास से बाहर आ गई। खैर बाद में जब रिजल्ट आया तो मुझे तीन न. का ग्रेस मिला और मैं पास हो गई और महा चोरी से बच गई। ठीक कुछ ऐसा ही मेरे बेटे ने भी किया शायद उसे भी पापा ने कंधे पर सुलाते हुए यही कहानी सुनाई होगी । उसका स्कूल में प्रवेश को लेकर हम बहुत परेशान थे, किसी तरह प्रिसीपल उसके टेस्ट के लिए तैयार हो गई ,हम घर से उसे बहुत समझा कर ले गए ,जितना एक दुसरी क्लास के बच्चे को समझा सकते हैं उससे कहीं अधिक। टेस्ट के लिए उसे अलग क्लास रुम में ले जाया गया , हम प्रिसीपल के रुम में ही उसका इन्तजार कर रहे थे , कुछ देर बाद वह एक टीचर के साथ वापस आया और प्रिसीपल से बोला ---मैने सभी सही किया है सिर्फ एक प्रश्न को छोडकर वह भी सही हो जाता ये मेम मुझे बता रहीं थी पर यह गलत बात थी। प्रिसीपल क्लेमी उस छोटे से बच्चे की बात से इतनी प्रभावित हुई कि उसे तुरन्त एडमिशन दे दिया। बचपन में दिये संस्कार जीवन भर याद रहते हैं। पापा हमें इसी तरह कहानियों से समझाते थे। हमारे घर के दरवाजों , अलमारियों पर रहीम, कबीर , गाँधी जी के सूत्र वाक्य पापा की सुन्दर हैंडराईटिग में लिखे होते थे। पापा ने गाँधी जी की बहुत सी बातों को आत्मसात किया। झूठ उनसे कभी बोला नहीं गया, कितनी बार ऐसा भी हुआ कि उनके सच की वजह से माँ परेशान हो जाती। वे अगर देर रात जागे हैं और सो रहे हों और माँ किसी मिलने वाले से कह दें कि वे घर पर नहीं हैं, और कुछ समय बाद वही सज्जन पापा से मिलने दुबारा आयें तो पापा को माँ अन्दर से कह कर भी भेजे कि मैने दो घन्टे पहले कहा था कि आप घर पर नहीं हैं पर पापा बहार आ सबसे पहले यही कहते ,-भाई माफ करना वो मैं सो रहा था और श्रीमती जी मेरी निंद में खलल् नहीं डालना चाहती थी बस आपको परेशान होना पडा फिर माँ को आवाज लगाते विजू कुछ चाय-शय हो जाये। पापा बापू की कहानी में एक और बात आत्मसात करने को सदा कहते --पाप से घृणा करो , पापी से नहीं। क्षमा सबसे बडा धर्म है अगर क्षमा और प्यार करना सीख जाओ तो आधी समस्याओं को तुम यूं हीं खत्म कर लोगे। पापा ने हम सबको तकली से सूत कातना सिखाया था ।हम सबकी अपनी-अपनी तकली थी और पापा का छोटा सा चरखा। पापा का सूत हम सबसे महिन कतता था ।जब सबका सूत इक्कठा हो जाता तब पापा उसे खादी आश्रम या रुक्मणी जी के घर पहुंचा देते। पापा ने जीवन भर खादी पहनी। यहाँ तक उनके अन्डर गारमेन्ट और रुमाल तक खादी के होते। आज हम बडी-बडी कम्पनी के वस्त्रों की सेल का इन्तजार करते हैं ,पापा बस दो अक्टूबर का इन्तजार करते थे और पूरे अक्टूबर माह खादी मंदिर की छूट का लाभ लेते। पापा घर में बापू जैसी लकडी की खडाऊं पहनते। हम लोग कभी-कभी उनकी खड़ाऊं को पहन खट-खट कर चलने की कोशिश करते पर दो मिनिट ही पहन पाते कि अंगूठा दर्द करने लगता। पापा और बापू जी न जाने घंटों कैसे पहने रहते थे। पापा जब दिल्ली में भारतीय पर्याटन विभाग में थे तब भी वे अपनी खादी की धोती और कुर्ता में ही रहते। पहले तो उन्हें अजूबे की तरह देखते थे पर धीरे-धीरे वे सबके और सब उनके प्रिये हो गये। विदेशी मेहमान तो उनसे धोती पहनना सीखते, उनके साथ तस्वीरें खिचवाते। वे और उनका गणवेष पूरे विभाग की शान बन गया था। उनके विचारों में गाँधी सदैव झलकते रहे। सत्य,अहिंसा -प्रेम को उन्होंने अपने जीवन में आत्मसात किया। जात-पात ,ऊंच-नीच, धर्म और मजहब की दिवारों को हमेशा तोड़ने की कोशिश की। उनके लिये काशी और काबे में कोई भेद नहीं था। वे कहते-----भेद नहीं ईश और ईसा में, काशी में, काबा में, चर्च में, कलीसा में।
प्रेम ही मसीहा की आँखों का मर्म है। प्रेम ही मुहम्मद का समताप्रद धर्म है। प्रेम ही अहिंसा की सत्य-निष्ठा शक्ति है। सूरा की दृष्टि और मीराँ की भक्ति है। प्रेम ही कबीरा के चेतन का मंत्र है। प्रभु के मधु-शासन का एकमात्र तंत्र है।
और वे सदा बस इसी विश्वास को जीते रहे कि प्रेम से दुनिया जीती जा सकती है। जीवन भर उन्होंने बस यही प्रेम किया और प्रेम को ही जीया। पापा की एक रचनाबचपन में मुझे बेहद पंसद थी ----
बापू : बच्चों के लिए
बच्चों ! करो भरोसा ,वे भी थे हम-से इन्सान। जिनके कंठ एक हो बैठे गीता और कुरान। जिनने कर्म-धर्म दोनों की की सीधी परिभाषा। मस्तक को दी कर्मयोग ने हाथ-पाँव की भाषा। मेहनत में बसते थे जिनके खुदा और भगवान।
हर पग अन्यायों के आगे जिनने सीना ताना। लेकिन फिर भी अन्यायी को क्षमा योग्य ही मना। तोपों से जा टकराती थी जिनकी मधु-मुस्कान। सत्य-अहिंसा में था जिनकी ताकत का रहवास। प्रेम-मंत्र की महाशक्ति में था अटूट विश्वास। उनकी करुणामयी दृष्टि ही थी अजेय अभिमान।
आई जहाँ-कहीं भी पशुता मानवता के आगे। बूढ़ी काया अंगारों पर अविचल दौड़े-भागे। आखिरकार इसी वेदी पर किया आत्म-बलिदान।
थे जिनके दो हाथ, शक्ति थी लेकिन साठ करोड। थे दो पाँव किन्तु देते थे इतिहासी पथ मोड़। शान्त मुटिठ्यों में थामे थे जो विराट् तूफान।
समता को मत-वाद न कह जो 'साम्य-योग'कहते थे। ममता के झरने बापू के अन्तर से बहते थे। बापू तो थे ही, माँ भी थे थीं कोटिक सन्तान।
करमचन्द गाँधी के सुत वे मोहनदास सुनाम। जनम पोरबन्दर में पाया जीवन सेवाग्राम। हरिजन की कुटियों तक पहुँचे जिनके पीछे राम। बच्चों ! करो भरोसा , वे भी थे हम से इनसान।
आने वाली पीढ़ियों को यह विश्वास करना कठिन होगा कि भारत की आजादी एक संत के द्वारा बगैर हथियारों के प्राप्त हुई। आज समय की सबसे बड़ी आवश्यकता अगर कुछ है तो वह फिर महात्मा गाँधी की है और इस बार एक नहीं कई महात्मा गाँधी चाहिए। ईश्वर-अल्ला तेरे नाम, सबको सन्मति दे भगवान।
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