ताराचंद त्रिपाठी।
वैदिक संस्कृत को भारतीय आर्य-भाषाओं की जननी कहा जाता है। लेकिन यह भाषा स्वयं इतनी परिष्कृत है कि आदि भाषा नहीं हो सकती। संरचना की दृष्टि से उर्दू-हिंदी , बंगला , मराठी आदि भाषाओं का संस्कृत से सीधा संबंध नहीं है। क्या संस्कृत की आधार-बोली आज भी जीवित है ?
जिस बोली के परिस्कार एवं मानकीकरण से संस्कृत का विकास हुआ, वह बोली अभी भी जीवित है। प्रसिद्ध भाषाविद डा. डी.डी. शर्मा ने लाहुल स्पिती के चिनाल मजदूरों और दरद बोलियों के संस्कृत के साथ अद्भुत साम्य के कुछ उदाहरण दिये है।
ये उदाहरण उन्होंने हिन्दी वाक्यों के उनकी बोली में रूपान्तर के माध्यम से स्वयं संकलित किये थे :
१. शीतेबहिर्मागच्छ (संस्कृत) >
शीते बहिरां मा गच्छ ( चिनालबोली)
२ मम शुक्लं वस्त्रं मे देहि (संस्कृत)
मे शकुल बथुर मे देहि (चिनाल बोली)
३. ताम्रस्य भांडे दुग्धं अम्लं भवति (संस्कृत)
ताम्रेर भां दूध अम्ल भोदस (चिनाल बोली)
दरद बोलियों के साथ साम्य
१ स मम कनिष्ठ भ्राता अस्ति (संस्कृत)
स म् कष्टो ब्रा ओइ ( वैगली)
२ इमे मनुष्य़ा गता: (संस्कृत)
एमे मानुष गइत (गवार बाटी)
३. मां त्वं दृष्ट; ( संस्कृत)
मी तू दिहिष्टो ( फलूरा)
४- अहं ग्रामात आगच्छं ( संस्कृत)
अहं ग्रामत आगच्छ्म ( दमेली)
शर्मा जी ने लिखा है कि यह जातियाँ आज भी संस्कृत बोलती हैं। इन मजदूरों के संस्कॄत बोलने की बात संस्कृत को सभी भाषाओं की जननी मानने की रूढ़ी से ग्रस्त पंडितों की भ्रान्ति है।
वस्तुत: डा. शर्मा को मिले ये दरद या चिनाल मजदूर आज भी उन बोलियों को बोल रहे थे, जिसका परिष्का्र और मानकीकरण ब्रह्मावर्त के आचार्यॊ ने संस्कृत का विकास किया था।
यह आभास केवल डा. शर्मा को ही नहीं हुआ, अपितु उनसे सैकड़ों साल पहले आचार्य मार्कंडेय को भी हुआ था। जिन्होंने लिखा है कि कैकय पैशाची और संस्कृत में अद्भुत साम्य दिखाई देता है।
ताराचंद त्रिपाठी के फेसबुक वाल से
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