मनीष तिवारी
इसे भारत की सबसे उम्रदराज ट्रेन मान सकते हैं,जिसे स्थानीय लोग छोटी रेल कहते हैं। लेकिन रेलवे की तकनीकी भाषा में इसे मंडला नैरोगेज ट्रेन कहते हैं। अतीत की स्मृतियों में इस ट्रेन से जुडे लम्हों को रोचक ढंग से याद किया लिखने वाले ने। आप भी एक नजर डालें इधर क्या पता कौन सा बचपन का वाक्या याद आकर आपाधापी भरी जिंदगी को थोडा खुशनुमा बना जाये
रेडियो के गुजरे जमाने में जब टेलीविजन संभ्रात घरों में किसी मंहगे गुलदान की तरह गर्व से दिखाने की चीज हुआ करता था उस वक्त अशोक कुमार का एक गाना ..रेल गाड़ी ..छुक छुक छुक छुक अक्सर सुनाई पड़ जाता था । वीडियो गेम और कार्टून की इस पीढी को शायद पता ही न हो कि रेलगाड़ी कोई खेल भी होता है । एक के पीछे एक ,उंचाई के अनुसार बढ़ते क्रम में एक दूसरे की शर्ट और कमर पकड़ कर पीछे भागने का खेल ..शायद ब्राडगेज की इस पीढ़ी को खेलने तो छोड़िए देखने को तक न मिले ।
पिछले सौ से भी अधिक साल अंचल के हृद्य में अप की धमनियों और डाुन की शिराओं में भागती छोटी लाईन की छुक छुक की धड़कन अब हमेशा के लिए थम जानी वाली है । सदी भर से अंचल की इंसानी बस्तियों के हर्ष विषाद ,शोक क्रोध और हरेक जज्बात की गवाह रही पटरियों पर दिन में कई कई फेरे करने वाले पहिए अब दम तोड़ने वाले हैं ।
गर्म देगची में उबलते पानी की भाप से उछलते ढक्कन को देख जेम्स वाटसन के दिमाग में आए विचार ने कार्य रुप लिया और तत्कालीन गोरी हकूमत ने अपने फायदे के लिए देश भर में लोहे की भारी पांतियों का जाल बिछा डाला था । सवा सौ साल बाद,जिसमें हमारी आजादी और कथित लोकतंत्र के सात दशकों के बाद अब इन पांतों को चौड़ा किया जा रहा है । बदलते वक्त में शायद कक्षा पांच का वो रेल इंजन वाला पाठ भी इतिहास बन जाए तो कतई ताज्जुब नहीं होना चाहिए । वैसे भी शिक्षा तालिबानीकरण ,भगवाकरण और न जाने किन किन प्रयोगों से गुजर रही है ।
बात रेल की खासकर छोटी रेल की । स्मृति के संदूक को खंगालता हूं तो किसी चंचल बच्ची के खजाने की तरह यादों के कई बदरंग तो कई चकाचौंध करते छोटे कंकड़ और बड़े पत्थरनुमा यादों का जखीरा निकलता है । याद करता हूं छोटी रेल की पहली यात्रा तो जेहन में पहली याद कौधंती है छिंदवाड़ा से छोटे मामा के परिवार के साथ कपूर्दा के छठियाई देवी के मंदिर तक की यात्रा ।
याद आता है कई मन्नतों के साथ दोनों भाइयों की सलामती के लिए वजन भर गुड़ का प्रसाद चढ़ाना। सफेद झक्क कुर्ते पजामे पहने दोनों भाइयों के नन्हे दिलों में किसी शहशांह की सी अनुभूति और फिर उसी छोटी रेल से ननिहाल वापसी । रास्ते में मामा के द्वारा पंखे को कंघी से घुमाना किसी हीरो के करतब सा महसूस हुआ ।
अविभाजित मंडला जिले की तब की डिंडौरी तहसील के साढ़े तीन सौ की जनसंख्या वाले मोहगांव में पलने बढ़ने वाले हम बच्चों ,मामा के शब्दों में कहूं तो हम गोंड साल्लों के लिए जहां एक राजदूत मोटरसाइकिल के आने की आवाज घर से निकलने को मजबूर कर देता था कहीं आने जाने के लिए पहले छह आठ किलोमीटर का गिट्टी वाली सड़क का पैदल सफर तय करना पड़ता था यह रेलगाड़ी और कंघी से पंखा घुमाना किसी कौतुक से कम नहीं था। उस सफर में खिड़की से पीछे भागते छिवला के छोटे बड़े पेड़ों को देखते वक्त कोयले का एक टुकड़ा आंख में घुस गया था लेकिन यह काला कतरा भी छोटी रेल को आंख की किरकिरी न बना पाया ।
रेल कितने परिवारों के लिए समय जानने का साधन हुआ करता था । यह वह दौर था जब प्लास्टिक की बड़ी सी घड़ी घरों के प्रवेश द्वार की शोभा होती थी । उस वक्त न तो मोबाइल था न ही हर कलाई में घड़ी । गर्मी की छुट्टियों की सर्द रातों और शीत कालीन अवकाश में आग के पास बैठे दादा दादी के गांव में रात ग्यारह बजे की लोकल सभा समाप्ति और नींद का सिग्नल हुआ करती थी । केवलारी स्टेशन पर सीटी बजाती रेल की आवाज सुन कर सरेखा में राम चाचा कहते- ग्यारह बज गए सोओ रे ..सुबे पानी भरना है ।
गांव के स्कूल में आठवी की पढ़ाई पूरी करने के बाद पापा ने दो च्वाइस रखी थी आगे की पढ़ाई के लिए पहली अमरपुर दूसरी डिडौंरी । अमरपुर 14 किलोमीटर दूर ..रोज साइकिल से जाना और लौट आना । याने हर रात घर में बिताना । और दूसरी डिडौरी में कमरा लेकर रहना । शनिवार को आना और सोमवार सुबह वापसी । 12-13 साल की उमर तक मां के आंचल से बंधे रहने वाले दुबले पतले मनीष के लिए फैसला मुश्किल था । लेकिन फैसला किया रेल ने ..रेल लेकिन खिलौने वाली । दरअसल मामा के बच्चों को रेलगाड़ी का खिलौना खेलते देखा था पर पापा की छोटी सी तनख्वाह का लिहाज कर कभी जिद न की । अमरपुर में कुल जमा दो चार गिनी चुनी दुकाने थीं ।डिडौंरी में मिल सकता था यह खिलौना । सोचा था कि पैसे जोड़कर ले लुंगा लेकिन आजतक न ले सका । अब ले सकता हूं लेकिन न तो वो बचपन रहा नाहि वो बच्चा ...
रेल बंद हो रही है इस शोर के बीच हाल में बालाघाट-नैनपुर-जबलपुर सभी रुटों परर यात्रा का सौभाग्य मिला । शायद छोटी रेल लाइन की यात्रा दोबारा न मिल सके । लोगों से बात हुई । कई नजारे देखे । खिड़की पर टंगे दूध के डिब्बे ,थेले ,छाते ,टोकरियां...। दरवाजे पर लटकते ताजा ताजा जवान होते छोकरे । स्टेशन दर स्टेशन चैन पुलिंग से लेट होती रेल । सीट के लिए झगड़ते लोग ।टीटी की आहट से दरवाजे से कूदते फोकटिए।
बालाघाट से समनापुर जा रहे राम सिंह ने दरवाजे पर मुझे खड़े देखकर कहा कि उसके स्टेशन के बाद मैं उसकी सीट पर बैठ जाउं । बातों बातों में दर्द फूट पड़ा । छोटी गाड़ी बंद हो जाएगी तो बड़ी परेशानी होगी । अभी पांच छह रुपयों मे आना जाना हो जाता है ।फिर हर किलोमीटर का एक रुपया लगेगा । हम गरीबों का तो हर तरफ मरना है बाबू। आशंका सही भी है । हर शहर में कई नई ट्रैवल्स एंजेसिया खुल रही हैं अमान परिवर्तन को भुनाने के लिए । साल दो साल में जबतक यह होगा तबतक अच्छी कमाई हो जाएगी । कई लोग खुश भी हैं इस संभावित परिवर्तन को देखते हुए ।
घंसौर रेल्वे स्टेशन के पास चाय नाश्ते की दुकान चलाने वाले अज्जू का कहना है कि मनीष भैया यहीं बगल से जाएगी बड़ी रेल । अपनी दुकान खूब चलेगी । घंसौर से जबलपुर के बीच गहरी खाइयां खोदी जा रही हैं । इस के लिए बड़ी संख्या में ढहाए जा रहे हैं हरे भरे वृक्ष मित्र जिनकी फिक्र किसी को नही ..वैसे इस खुशी में कई को भरोसा है कि विकास होगा लेकिन हमने देखा है गरीबों का विकास कहां होता है ..। डिडौंरी जब जिला बना था जब भी ऐसे ही सपने दिखाए गए थे। कितना विकास हुआ यह पता है सबको ..मृग मारिचिका के इस दौर में मुझ जैसे लोग सोचते हैं कि इस रेल को बंद न कर यादगार के तौर पर रहने दिया जाए ...
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