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Mon, 16 June 2025

संवेदनशीलता, संधि और संवाद: नेहरूजी की विदेश नीति में पाकिस्तान

खरी-खरी            May 27, 2025


अरुण कुमार डनायक।

स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को पाकिस्तान के साथ द्विपक्षीय संबंधों की आधारशिला रखने की चुनौती उसी समय से स्वीकार करनी पड़ी, जब 1947 में भारत-पाकिस्तान का विभाजन हुआ। यह विभाजन न केवल राजनीतिक था, बल्कि इसमें संपत्ति, वित्तीय संसाधनों, सैन्य उपकरणों, संस्थानों और शरणार्थियों के पुनर्वास जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे शामिल थे।

नेहरूजी ने, अंतरिम सरकार के नेता और बाद में प्रधानमंत्री व विदेश मंत्री के रूप में, इन समझौतों की जटिल प्रक्रिया को लागू करने में सक्रिय रहते हुए  केंद्रीय भूमिका निभाई। उनकी दूरदर्शिता, कूटनीतिक सूझबूझ, संवेदनशीलता और शांति के प्रति प्रतिबद्धता ने भारत को एक जिम्मेदार राष्ट्र के रूप में वैश्विक मंच पर स्थापित किया।

विभाजन के दौरान ब्रिटिश भारत की संपत्तियों का बंटवारा हुआ, जिसमें सरकारी खजाने और नकद संपत्ति का हिस्सा पाकिस्तान को देना तय हुआ। समझौते के तहत पाकिस्तान को 75 करोड़ रुपये देने थे, जिनमें से 20 करोड़ रुपये का भुगतान हो चुका था। शेष 55 करोड़ रुपये को लेकर विवाद तब बढ़ा, जब पाकिस्तान समर्थित कबायलियों ने जम्मू-कश्मीर पर हमला किया। हांलाँकि सरदार पटेल इस भुगतान के  विरोध में थे, लेकिन नेहरूजी ने लार्ड माउंटबैटन  की सलाह और अंतरराष्ट्रीय दायित्वों का सम्मान करते हुए पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये की शेष राशि देने का समर्थन किया । गांधीजी का भी मानना था कि इस राशि का भुगतान दोनों देशों के बीच विश्वास बहाल करेगा और सांप्रदायिक तनाव को कम करेगा।

इस दौर की सबसे गंभीर चुनौती जम्मू-कश्मीर का मुद्दा था | महाराजा हरि सिंह के भारत में विलयपत्र पर हस्ताक्षर के बाद मंत्रीपरिषद  ने कश्मीर में सेना भेजकर राष्ट्रीय एकता और सुरक्षा सुनिश्चित की। उन्होंने कश्मीर मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र में उठाया, जिससे 1949 में कराची समझौता हुआ,और युद्धविराम रेखा स्थापित हुई। संयुक्त राष्ट्र सैन्य पर्यवेक्षक समूह की स्थापना और जनमत संग्रह  इसी समझौते का हिस्सा थी। यह स्थायी समाधान नहीं था, पर तत्काल शांति सुनिश्चित हुई। नेहरू की कश्मीर नीति की भारतीय जनसंघ जैसे दक्षिणपंथी दलों ने आलोचना की, संयुक्त राष्ट्र में गोपालस्वामी आयंगार को भेजने और जनमत संग्रह की सहमति को राष्ट्रहित के खिलाफ बताया। उन पर प्रखर राष्ट्रवाद के अभाव और निजी आकांक्षाओं से प्रेरित होने के आरोप लगे, जो आज भी चर्चा में हैं। किंतु हमें यह  नहीं भूलना चाहिए कि कश्मीर की भौगोलिक और राजनीतिक महत्ता को सबसे पहले नेहरूजी ने गहराई से समझा। उनके सभी निर्णय कश्मीरी जनता के दीर्घकालिक हितों और भारत की अखंडता को ध्यान में रखकर लिए गए थे, न कि किसी व्यक्तिगत स्वार्थवश।  

बंटवारे के समय लाखों लोग शरणार्थी बनकर सीमाएँ पार कर रहे थे, जिससे मानवीय संकट उत्पन्न हुआ। नेहरूजी  ने शरणार्थियों के पुनर्वास और सुरक्षा के लिए प्रभावी कदम उठाए। इसी पृष्ठभूमि में 8 अप्रैल 1950 को नेहरूजी  और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली खान ने लियाकत-नेहरू समझौते पर हस्ताक्षर किए। इस समझौते में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा, शरणार्थियों की संपत्ति की वापसी या मुआवजा, और नागरिक अधिकारों की गारंटी जैसे प्रावधान थे। भारत-पाक संबंधों में स्थिरता लाने की दिशा में  यह समझौता एक निर्णायक कदम है | इस समझौते ने विभाजन के बाद नागरिकता और अल्पसंख्यक अधिकारों के मुद्दों को अप्रत्यक्ष रूप से संबोधित किया और नागरिकता अधिनियम, 1955 के निर्माण पर परोक्ष प्रभाव डाला।

नेहरू-नून पैक्ट 1958 के अंतर्गत भारत और पाकिस्तान ने सीमा विवाद सुलझाने हेतु सहमति बनाई। इसमें वर्तमान में बांग्लादेश स्थित  बेरुबाड़ी क्षेत्र के बंटवारे, सीमा पर स्थित एन्क्लेव्स के आपसी हस्तांतरण, और दोनों देशों में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा सुनिश्चित करने जैसे बिंदु शामिल थे।

 नेहरूजी  की कूटनीति का एक और बड़ा आयाम सिंधु जल समझौता (1960) था, जो नौ वर्षों की वार्ता के  बाद संभव हुआ।। सिंधु और उसकी सहायक नदियों के जल के बँटवारे को लेकर, विश्व बैंक की मध्यस्थता से नेहरूजी और पाकिस्तानी  राष्ट्रपति अयूब खान ने इस पर सहमति बनाई। इस समझौते के तहत पूर्वी नदियाँ (रावी, ब्यास, सतलुज) भारत के हिस्से में आईं और पश्चिमी नदियाँ (सिंधु, झेलम, चिनाब) पाकिस्तान को आवंटित की गईं, लेकिन भारत को सीमित उपयोग की अनुमति दी गई। एक स्थायी सिंधु आयोग की स्थापना की गई, जिसे  इस समझौते की निगरानी का दायित्व सौंपा गया । नेहरू ने संसद में विश्व बैंक की मध्यस्थता का बचाव करते हुए कहा कि यह संधि  भारत और पाकिस्तान दोनों के लिए फायदेमंद होगी। हालांकि, विपक्षी सांसदों ने इसका विरोध किया, इसे “आत्मसमर्पण की संधि” करार दिया और चेतावनी दी कि पाकिस्तान का भविष्य में मित्र बने रहना अनिश्चित है। बाद में जब विरोधी दल सत्ता में आए, तो उन्होंने न तो इस संधि को रद्द किया और न ही पाकिस्तान से संबंध सुधारने के प्रयासों से पीछे हटे।

शांति, कूटनीति और अंतरराष्ट्रीय सहयोग को  बल देने के कारण नेहरूजी की विदेश नीति को अक्सर "आदर्शवादी" कहा जाता है । उन्होंने पंचशील सिद्धांत और गुटनिरपेक्ष आंदोलन के जरिए भारत की स्वतंत्र विदेश नीति को सुदृढ़ किया। 1953 में  उनके नेतृत्व में आयोजित  एशियाई देशों  के नई दिल्ली सम्मलेन और वाडूंग  में अफ्रो एशियाई देशों के सम्मेलन में पाकिस्तान की भी भागीदारी रही। 1950 के बाद पाकिस्तान ने कश्मीर सहित जल और अल्पसंख्यकों के मुद्दे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठाए, जिनका नेहरूजी ने द्विपक्षीय वार्ता और कूटनीति से प्रभावी जवाब दिया।

नेहरूजी मानते थे कि साझा इतिहास और संस्कृति वाले भारत-पाकिस्तान को विश्वास और सहयोग के साथ आगे बढ़ना चाहिए। उनके अनुसार, विकास के लिए शांति जरूरी है, लेकिन इसका  अर्थ बाह्य आक्रमण के प्रति निष्क्रिय रहना नहीं है।

उन्होंने अपनी विशिष्ट राजनीतिक शैली से उस भारत माता का जयघोष सम्पूर्ण विश्व में गूंजा दिया, जो उनकी दृष्टि में कोई काल्पनिक देवी नहीं, बल्कि समस्त भारतवर्ष के स्त्री-पुरुष, भाई-बहनों का जीवंत प्रतीक है । नेहरूजी के नेतृत्व और कूटनीतिक कौशल  ने भारत-पाक बंटवारे को सुगम बनाया और भारत को शांतिप्रिय, नैतिक व वैश्विक दायित्व निभाने वाला राष्ट्र बनाया।  नेहरूजी की नीतियाँ भारत-पाक संघर्ष में शांति, संवाद और कूटनीति के महत्व को रेखांकित करती हैं। उनकी विरासत भारत को प्रेरित करती है कि क्षेत्रीय तनावों का समाधान सैन्य शक्ति के साथ-साथ नैतिकता, सहयोग और दीर्घकालिक दृष्टिकोण से करे, ताकि दक्षिण एशिया में स्थायी शांति और समृद्धि हो।

( लेखक गांधी विचारों के अध्येता व समाज सेवी हैं )

 



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