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याद-ए-अनुरागी:नभः स्पृशं दीप्तम-3

वीथिका            Dec 06, 2016


ऋचा अनुरागी।

अब हमारा घर वीरों का घर था। अक्सर कोई न कोई सैनिक छुट्टियों में पापा से मिलने आते रहते। उस समय खतो-खिताबत भी खूब होती थी। पापा रोज ही दो-चार खत हमें पोस्ट करने को देते थे और शाम को पूछते भी पत्र पोस्ट कर दिया था? उन्हें नई-नई डाक टिकटों का बेहद शौक था ,स्वयं पोस्ट ऑफिस जाते और ढेर सारी डाक टिकट लेकर आते। सबसे विशेष बात यह होती कि वे किसे पत्र लिख रहे हैं और किस संबंध में लिख रहे हैं , उसी तरह के विचारों से मेल खाती डाक टिकट उस पत्र पर लगाते। उनके अक्षर , माला का एक-एक मोती के समान होता, बेहद खूबसूरत हेंड राईटिंग थी, उस पर हिन्दी उर्दू, फारसी, संस्कृत, प्रकृत के साथ लोक भाषाओं के शब्दों का अनमोल खजाना था उनके पास कई शब्द तो उनके स्वयं के बनाए हुए थे। उनके मित्र कहते भी थे -भाई तुम असली गुरु “रसाल “के शिष्य हो। यह सच भी था सागर विश्वविद्यलाय में उनके गुरु रसाल जी से वे बहुत प्रभावित हुये और उनके लेखन पर उसका असर भी कहीं-कहीं दिखाई देता है।

वे अपने को भाग्यशाली मानते थे कि उन्हें महान शिक्षकों का मार्गदर्शन और स्नेह प्राप्त हुआ। वे टूटी-फूटी पंजाबी, मराठी,बंगाली और भी ढेरों भाषाओं को बोलते, हिन्दी, उर्दू, अंग्रेजी,प्रकृत और संस्कृत तो उन्हें आती ही थी, अपने भाव और विचारों में वे हर भाषा का समुचित इस्तेमाल करते। यादों के समन्दर में डूबते हुए रंगीन मछलियों सी यादें विचारों को भी सागर के अनंत में विचरण कराने लगती हैं और मुझे इस अनंत में गुम हो जाना भाता है।पर यादों को समेटना भी है सो मुद्दे पर वापस लौटना होगा — बात कर रही हूँ अधूरी चल रही देश पर कुर्बान होने वाले हमारे वीर सैनिकों की उनकी अपनी जुवानी यादों के आखरी तो नहीं कह सकती पर फिर भी उन्हें समेटने कोशिश कर रही हूँ।

मैं बात सन् 1971 के युध्द की कर रही हूँ, इस बार पापा के साथ माँ भी रेडियो और अखबारों से जुड़ गई, उनका मन अब रसोई में नहीं लगता बात-बात पर चिढ जाती ऐसा होना स्वाभाविक भी था , उनके एक नहीं दो देवर ,एक बेटा ही कहना चाहिए और उनके कई दोस्त जिन्हें वे जानती थी सब इस जंग के मैदान में दुश्मन से मुकाबला कर रहे थे, रवि चाचा हासीमारा,कलैकुंदा बॉडर पर थे, नई नवेली दुल्हन यानी मेरी चाची भी साथ थी, एक माह पहले ही उनकी शादी हुई थी। प्रभु चाचा अपने बम वर्षक विमानों से आकाश में ,आदित्य भैया भी अपने विमानों से आग बरसा रहे थे।

चौदह दिन का युध्द माँ के लिए बहुत कष्टप्रद था। पापा तो खबरों को इसलिए सुनते – पढ़ते की उन्हें समुचे युध्द की खबर मालूम हो। सारा घटनाक्रम जानते- समझते, पर माँ के कान सिर्फ और सिर्फ अपनों के हाल-चाल मिल जाऐं ,पर ऐसा होता नही था,सो दुखी हो जाती। पापा रेडियो से अपनी कविताओं को सुनाते–

                                                                                                                                  राम के बेटो

दीवाली के दीप फिर पीछे उजालोrajendra-anuragi-6
राम के बेटो, धनुष पहले सम्हालो।

तुम भले अपनी विजय को याद रक्खे हो
मगर रावण पराजय को भूल बैठा है।
शान्ति का हर यत्न फिर प्रतिकूल बैठा है।
हो कहाँ, हनुमान आओ,
और उन दो चौकियों को राम का पौरुषभरा सन्देश दो
उन्हें जाकर कहो-
रामजी की विजय-सेना आ रही है
हिमालय पर सेतु बाँधा जा रहा है
गिलहरी तक ईंट-पत्थर ला रही है।
और यह कह कर जहाँ तक कूद जाओ
शत्रु के गढ़ को पुनः लंका बना दो
                       और अपनी विजय का डंका बजा दो।

रवि चाचा अपने साथियों के साथ दुश्मन से मुकाबला कर रहे थे तो नीलम चाची शहीदों के परिवारों का साथ दे रहीं थी। वे चाहती तो आसानी से सुरक्षित घर वापस आ सकती थी पर उन्होंने ऐसा नहीं किया और युध्द समाप्ती के पश्चात भी वे सैनिकों के परिवार की सहायता में जुटी रहीं। माँ चाची को लेकर चिन्तित और परेशान थी पर पापा चाची पर गर्व करते और सबसे कहते मेरी बहु मेरी बेटी सबसे बहादुर है। युध्द समाप्ति के बाद धीरे-धीरे सबके कुशलता के समाचार आ रहे थे पर आदित्य भैया की कोई खबर नहीं थी , रवि चाचा और प्रभु चाचा भी ठीक से कुछ बता नहीं रहे थे सभी अनहोनी को लेकर आशंकित थे तभी सेना की ओर से सूचना दी गई कि उनका विमान दुश्मन के विमानों को तबाह करते हुए क्रेश हो गया था अतः उनके बारे में अभी कुछ नहीं कहा जा सकता है। सब यह मान चुके थे कि वे शहीद हो गये हैं। युध्द विराम के बाद एक दिन आदित्य भैया के घायल मिलने की खबर आई। कुछ माह बाद घर पर फिर खुशियों ने मेहरबानी की और प्रभु चाचा ,रवि चाचा आदित्य भैया और उनके दोस्त भोपाल लौटे। फिर वही कहानियों और कविताओं के साथ दाल-बाटी, चूरमा, गुड़

प्रभु चाचा जोश और उत्साह से बताते- अरे भाई इस बार तो हमारी नौ सेना ने तो धमाल मचा दिया। वो इंदिरा गांधी ने भी हमारी सेना को पूरी छूट दी। हमारे नौ सेना अध्यक्ष एडमिरल एस. एस. नंदा से प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कहा-‘वेल एडमिरल, इफ देयर इज़ अ वार, देयर इज़ अ वार। वो रविवार की रात हम भूल नहीं सकते जब हमारे जंगी विमानों ने हवा को छूआ और आसमान हमारी गड़गड़ाहटों से गूंज उठा। रवि चाचा और प्रभु चाचा अपने विमानो, हॉकर हंटर, फॉलैंड नेट, डि हैविलैंड, वैंपायर, इ कैनबरा, मिग 21 का ऐसा बखान कर रहे थे जैसे कोई बच्चा अपने खिलौनों का बखान करता हो। बीच-बीच में दोनों अपने अपने विमानों जिन पर वे सवार थे को लेकर झगड़ भी लेते।

वे कहते कि भारतीय सेना ने कराची तक को साध लिया था। यार एशिया का यह सबसे बड़ा बोनफायर था। कराची के ऊपर इतना धुआं था कि तीन दिनों तक वहाँ सूरज की रोश्नी नहीं पहुँच सकी। सब अपनी – अपनी सुनाते हुए बीच में पापा से कविता भी सुनते। आदित्य भैया बता रहे थे -मैं आकाश में दुश्मन के विमानों को मार गिरा रहा था, उनके कई इलाकों को तबाह कर दिया था ,वापस लौट रहा था कि पीछे से पाकिस्तानी मिसाइल ने हमला कर दिया विमान में आग लग गई मैंने बहुत कोशिश की कि मैं अपनी सीमा में ही आ जाऊं और अंत में विमान के फटने से पहले में कूद गया पर दुर्भाग्य से अपनी सीमा से कुछ पहले गिरा और पकड़ा गया। जितनी यातना वो दे सकते थे दी मुझसे सेना की जानकारी चाहते थे पर वो मारते-मारते थक जाते पर मेरी जुबां से वंदे मातरम् के सिवा वे कुछ न सुन सके और एक दिन जब मैं बेहोश था मुझे मरा समझ सीमा के पास फैंक दिया। जब होश आया तो पैर टूटे हुये थे हाथ -पीठ जख्मी थे सो पेट के बल घसीटता रहा और चार दिनों बाद सीमा से लगे गाँव वालों ने देखा तब मेरी खबर सेना तक पहुंची और में बच गया। पापा बोले –शाबाश मेरे शेर पुत्तर । गमगीन महोल को हल्का करते हुये पापा सुनाते हैं–
उसने कहा-” औरत, चुप रह।”
वह गई और दुनिया-भर से बोल आई।
फौजी दरिन्दों की पोल खोल आई।

माँ को कमबख्तों ने सिर्फ ‘मादा’ समझा
और हमारे माननीय रक्षा-मंत्री को
‘जग्गू’ दादा समझा।
भारतीय लड़कों ने सिर्फ झापड़ जड़ा है
कि नियाजी पिस्तौल से गोलियां निकाले खड़ा है
और याह्याखान का फौजी हेलमेट
काँजीहौज के पास गटर में पड़ा है।

वे कह रहे हैं, भारत से हजार साल लड़ेगे
अट्ठारह दिन की लड़ाई में
वर्दियाँ छोड़कर भागने वाले सिपाहियों के लिए,
मियां
कपड़े भी बहुत महँगे पड़ेंगे।

और सब ठहाके लगाने लगते। बाहर से पापा सबको हँसते-ठाहके लगाते दिखते पर अन्दर से वे सीमा पर शहीद जवानों के लिए गमगीन रहते। वे युध्द के ही खिलाफ रहते, वे हमेशा कहते-युध्द हमने कभी नहीं चाहा ,युध्द हमेशा हम पर थोपा गया है। वे एक युध्द-हीन संसार की कल्पना करते और जब कभी सीमा पार से बारुदी होली होती तो तिलमिला उठते। उनका एक और बहुत प्यारा बेटा फ्लाईंग ऑफिसर संदीप जैन सियाचीन के पहाड़ों पर भारतीय जवानों को रसद पहुँचाते हुए शहीद हुआ। जबकी उस वक्त कोई युध्द नहीं छिड़ा था पर पाकिस्तान ने कायराना हरकत करते हुये अचानक मिसाइल से हमला किया और हमारे दो शूरवीर शहीद हो गये। संदीप एक बार रसद पहुंचा आया था पर लौट कर आने पर पता चला कि हमारे सैनिकों के लिए बहनों की राखी,मिठाइयाँ और खत आए हुए हैं सबने मना किया कि अब कल दे आना पर संदीप ने कहा – सब अपनी – अपनी राखी का इन्तजार कर रहे हैं और फिर पन्द्रह अगस्त भी है ,सबको बहनों की राखी मिल जाएगी और मैं उन्हें इस खुशी से वंचित नहीं रख सकता। उसने एक बार फिर उडान भरी अपना काम पूरा किया , लौटते हुये वीरगती को प्राप्त हो गये।पापा का यह चहेता देश पर कुर्बान हो गया। यह भी हमारे लिये सौभाग्य की बात है कि हमारी नयी पीढी की पौध कैप्टन अहद बजाज भी भारतीय सेना का गौरव है। पापा के मन का आक्रोश , दुख उनकी रचनाओं में साफ नज़र आता।

सारा विश्व सुने

हम प्रजातंत्र के कोटी-कोटी खम्भों वाले
युग-राजभवन से बोल रहे हैं- सारा विश्व सुने।
हर खम्भा है फौलाद अशोकी लाटों का
हर कलावती मेहराब ज्योति की टहनी है
जिनको दुनिया से बात शान्ति की कहनी है
जो भी इन शान्ति कपोतों पर बारुदी बाज उड़ाएगा
उसके नापाक इरादों की पल-भर में धूल उड़ा देंगे
यह सारा विश्व सुने।
जब से चोरों ने बस्ती के सीमावर्ती घर टोहे हैं
उस दिन से ही मेरे कृपाणधारी भुजदंड न सोये हैं
उस दिन से ही हर चौकी पर जयमल-फत्ता का पहरा है
उस दिन से ही हर रत्न-दीवाली है,
हर स्वर्ण-विहान दशहरा है।
इस अमन-
चैन के आलम में जो भी हमसे टकराएगा
वह मिट्टी में मिल जायेगा।यह सारा विश्व सुने।
हम प्रजातंत्र के कोटी-कोटी खम्भों वाले
युग-राजभवन से बोल रहे हैं।

दरअसल पापा ने तीन युगों को देखा और जिया था -परतंत्रता को, बाल और किशोर अवस्था में उस गुलामी के दर्द को सहा ,स्वतंत्रता प्राप्ति के वर्षो में अंग्रेजी हुकूमत का जुल्म और संघर्ष को और फिर आजादी के साथ विभाजन की विभीषिका को भी देखा भुगता था। अब के वर्तमान को भी देखा और समझा। वे हर वक्त आशान्वित रहते और समूचे विश्व के लिए सुखद भविष्य की कल्पना करते।पर जब उनका सामना नापाक हरकतों से होता तो वे दुखी और आक्रोशित हो जाते। वे अक्सर कहते-सब अपनी-अपनी सीमाओं में खुश रहें ,जैसे दो भाई रहते हैं। किसी को क्यों बरुद की जरूरत हो ? भाई प्यार से भी तो रहा जा सकता है। जितना धन पूरी दुनिया अपनी सुरक्षा के लिए खर्चती है अगर उसे इंसान की तरक्की के लिए खर्चे तो दुनिया में कोई भी अभावग्रस्त नहीं होगा। न जाने क्यों लोग दहशत पंसद हैं। बात-बात पर ठहाका लगने वाले पापा हर वक्त विश्व मैत्री के विचारों में रहते। आज जब वे हमारे बीच साशरीर नहीं हैं तो उनकी बातें याद आती हैं और मैं उन्हें याद करते हुए, पापा को अपने बहुत ,बहुत पास पाती हूँ।



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