नितिन मोहन शर्मा।
सुनो न कृष्ण...सुन रहे हो न...तो सुनो ध्यान से...अब आपको ही जाना होगा सुदामा के घर....वो आपके महल की चौखट तक नहीं आएगा।
उसकी जर्जर काया इस रत्न जटित द्वारिका में नही आएगी। मणि मंडित द्वार पर द्वारपालों के समक्ष कोई अन्तर्मन से उपजी कारुणिक पुकार नही उठने वाली जिसने आपको विचलित कर दिया था। न आपको दौड़कर द्वार तक आना है। न पीताम्बर अटकेगा। न आपका इस तरह भावविव्हल हुए दौड़ना किसी को खटकेगा।
वो...नहीं आने वाला अब।
वो, वो पोटली भी नहीं लाने वाला..जो मुट्ठीभर तंदुल से भरी होगी। वो ही तंदुल, जिन्हें तुम पूरा फांक लेना चाहते थे...मित्र के स्नेहवश...मित्र की भार्या, तुम्हारी प्रिय सुशीला भाभी का मान रखने के लिए।
दो मुट्ठी तो तुम फांक ही चुके थे....गर रुक्मिणी नहीं रोकतीं तो आप तो तीनों लोक का वैभव अपने प्रिय मित्र को समर्पित कर देते।
सुनो कृष्ण...वो अब नहीं आने वाला..जिसके धूलधूसरित पैरों को तुमने अपने अश्रुबिन्दुओं से सिंचित किया था। अखिल ब्रह्माण्ड में ऐसा पद प्रक्षालन नहीं हुआ....न उससे पहले...न हजारों साल बाद।
तुमने तो अपने फटेहाल मित्र को अपने सिंहासन पर बैठा दिया था। स्वयम मित्र के चरण में।
कैसी अदभुत लीला रची थी...लीलाधर आपने। मित्रता का सर्वोच्च उदाहरण। सर्वोत्तम मिसाल।
न भूतों-न भविष्यवती। अखिल ब्रह्मांड को चमत्कृत कर देने वाली। शुक, सनकादिक, नारद, शारद, सुर, नर, मुनि...सबको आल्हादित करने वाली लीला। तीन लोक और चौदह भुवन में जय जयकार हुई थी न आपकी।
फिर ऐसा हो...चाहते हो क्या??
तो सुनो कृष्ण वह नहीं आने वाला अब। वो क्यों आये हर बार आपकी चौखट पर क्यों आये हर बार वो आपके द्वार...अपनी दरिद्रता को लेकर?
अपनी फटेहाली के साथ क्यो मारा-मारा फिरता आपका पता पूछता रहे?
क्यो बार-बार वो द्वारपालों द्वारा धकियाया जाये?
क्यो..क्यो उसे चीख-चीख़ कर कहना पड़े कि कृष्ण उसका मित्र है? द्वारकाधीश उसका सखा है। श्यामसुंदर उसका खास है।
क्यो अपनी भार्या के तन पर फ़टी साड़ी ओर उधड़ा अंग वस्त्र उसे देखना पड़े? मासूम बच्चों के पेट में भरपेट निवाला क्यो नही?
घास-फूंस की झोपड़ी ही उसका नसीब क्यो? क्यों उसे अपनी दरिद्रता पर स्वयम की तक़दीर को कोसना पड़े?...और क्यो ये सब बताने उसे तुम तक आना पड़े?
क्या तुम्हारा फर्ज नहीं की तुम स्वयम देखो कि तुम्हारा मित्र किस हाल में है?
अपने वैभव ऐश्वर्य में तुम्हे भान नहीं की तुम्हारा मित्र कैसा है?
तुम तो अखिल ब्रह्मांड के स्वामी हो न? सकल चराचर जगत के मालिक। तुमसे कुछ छुपा है क्या?
क्या तुम्हें नही पता कि तुम स्वयम ये जानने का प्रयास करो कि आखिर तुम्हरा मित्र इन दिनों है कहा, और क्या कर रहा है? उसके परिवार में सब ठीक है या वो कोई परेशानी में है?
क्या तुम ये नही कर सकते? तुम्हारे लिए तो ये पलक झपकने जैसा खेल है। तुम तो पलके बन्द करो और देख लो कि मित्र किस हाल में है।
तो फिर हर बार ये अपेक्षा ही क्यों कि आपका मित्र आपके द्वार आये? अपनी परेशानियों के साथ, अपनी दरिद्रता के साथ।
अपनी फटेहाली के साथ, अपनी तंगहाली के साथ? वो क्यो आकर बोले कि उसके बच्चे भूखे रह जाते है? पत्नी के तन पर वस्त्र नहीं, कैसे बोले वो?
क्यों हर बार उसका स्वाभिमान क्षार क्षार हो? तुम तो जानते हो न कृष्ण कि ब्राह्मण का तो गहना ही स्वाभिमान होता है? फिर क्यो वो इसे दांव पर लगाये?
तुम्हारे महल तक आने के लिए वो ही हर बार कदम क्यों बढ़ाये? क्यों उसी के पैर में बिवाइयाँ फूटे?
तुम्हारे दहलीज पर वो क्यो धकियाया जाए? क्या तुम्हारा फर्ज नहीं बनता कि तुम कदम बढ़ाओ...ओर जा पहुंचो मित्र सुदामा की कुटियाँ में।
एक दीनहीन की दहलीज पर सर्वेश्वर। एक निर्धन के आंगन में योगेश्वर। दरिद्र विप्र के समक्ष दीनदयाल।
तो सुनो न कृष्ण...करो न ऐसा। इस बार। कर के देखो न, कितना अच्छा लगेगा मित्र को। आपके सुदामा को।
कितनी प्रसन्न होगी मित्र की भार्या, बच्चे भी, आस-पड़ोसी भी।
सुदामा को किसी को बताना भी नहीं पड़ेगा कि सकल जगत के अधिपति श्रीकृष्ण उसके सखा हैं।
श्रीकृष्ण स्वयम सुदामा की कुटिया पहुंचकर बताएंगे कि...सुदामा का में मित्र हूं।
एक बार ऐसा कर के फिर से अखिल ब्रह्मांड को चौंका दो न मेरे श्रीकृष्ण।
फिर से एक मिसाल बना दो न मेरे बनवारी मित्रता की...वैसी ही जो साढे 5 हजार साल पहले बनाई थी।
जो आज तक अक्षुण्ण है ओर अनंतकाल तक अखंड अविनाशी रहेगी।
हर उस
कृष्ण रूपी मित्र को प्रणाम
जो आज भी अपने सुदामा के साथ है...!!
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श्रीराधे
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