ओशो
जिसको तुम जन्म-दिन कहते हो, वह जन्म-दिन थोड़े ही है; मौत और करीब आ गई! उसको जन्म-दिन कह रहे हो!
लोग जन्म-दिन मनाते हैं! लेकिन मौत करीब आ रही है। एक साल और बीत गया। एक बरस और बीत गया। जिंदगी और छोटी हो गई। तुम सोचते हो, जिंदगी बड़ी हो रही है। जिंदगी छोटी हो रही है।
जन्मने के बाद आदमी मरता ही जाता है। पहले ही क्षण से मरना शुरू हो जाता है। यह मरने की प्रक्रिया सत्तर-अस्सी साल लेगी, यह और बात। धीरे-धीरे क्रमशः आदमी मरता जाता है।
लेकिन तुम देख कर भी कहां देखते हो। तुम बेहोश हो। इसलिए तुम सुखी हो।
बुद्ध बहुत दुखी हो गए। मध्य में आ गए। मूढ़ न रहे। अभी परम ज्ञान नहीं हुआ है। मगर बीच की हालत आ गई। बहुत दुखी हो गए। तलाश में निकल गए।
जब आदमी बहुत दुखी होता है, तभी तलाश में निकलता है। मगर दुख को अनुभव करने के लिए भी बुद्धिमत्ता चाहिए। धन्यभागी हैं वे, जो दुख को अनुभव कर सकते हैं, क्योंकि जिन्होंने दुख को अनुभव किया, उन्होंने फिर दुख से मुक्त होने की चेष्टा भी की। करनी ही पड़ेगी।
बुद्ध छह वर्ष अथक तपश्चर्या किए, ध्यान किए और एक दिन परम बुद्धत्व को उपलब्ध हुए, तब महासुख के झरने फूटे। तब अमृत-रस बरसा। तब जीवन का राज खुला, रहस्य खुला। तब भीतर का सूरज उगा। ध्यान मिला, तो भीतर का धन मिला। समाधि मिली, तो सब समस्याओं का समाधान मिला। फिर कोई दुख न रहा। फिर कोई संताप न रहा।
यह सूत्र बिल्कुल ठीक है--
"यश्च मूढ़तमो लोके यश्च बुद्धेः परं गतः।"
बड़ा विरोधाभासी सूत्र है कि मूढ़ों की गति और परम बुद्धों की गति एक अर्थ में समान है। मूढ़ भी सुखी, बुद्ध भी सुखी। मगर उनका सुख बड़ा अलग-अलग। मूढ़ बेहोशी के कारण सुखी; बुद्ध होश के कारण सुखी। जमीन आसमान का भेद है।
"तावुभौ सुखमेघेते क्लिश्यत्यन्तरितो जनः।"
लेकिन जो बीच में हैं, मध्य में हैं, उनको बड़ा क्लेश है। लेकिन मध्य में आना ही होगा। पशुता छोड़नी होगी; मनुष्य होना होगा। मनुष्य दुखी होगा; मनुष्य मध्य में होगा। लेकिन उस दुख से गुजरे बिना कोई बुद्धत्व तक नहीं जा सकता। वह कीमत चुकानी पड़ती है। जो उस कीमत को चुकाने से बचेगा, वह पशुता के जगत में ही, मूढ़ता के जगत में ही उलझा रह जाता है।
और तुम यही कर रहे हो। अधिकतम लोग यही कर रहे हैं। किसी तरह अपने को भुलाए रखो; उलझाए रखो। जाल बुनते हो उलझाव के। और कल पर टालते रहो--मनुष्य होने की संभावना को। कल मौत आएगी।
तुम बहुत बार जन्मे हो और बहुत बार ऐसे ही मर गए! अवसर तुमने कितना गंवाया है--हिसाब लगाना मुश्किल है! अब और न गंवाओ। यह कीमत चुका दो। यह दुख से थोड़ा गुजरना पड़ेगा। और जितने जल्दी चुका दो, उतना बेहतर है। यह #दुख ही तपश्चर्या है। यह दुख ही साधना है। इस दुख की सीढ़ी से चढ़ कर ही कोई परम सुख को उपलब्ध हुआ है। और कोई उपाय नहीं है। बच कर नहीं जा सकते।
– ओशो
ज्यूं था त्यूं ठहराया
प्रवचन - ०७
दुख से जागो
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