देता हुआ अर्ध्य शताब्दियों से, इसी तरह गंगा के जल में,अपनी एक टांग पर खड़ा है ये शहर

वीथिका            Dec 17, 2021



श्रीकांत सक्सेना।

काशी ज़िंदा नगरी है। आध्यात्मिक शब्दावली में कहें तो जाग्रत शहर।

काशीवासी मानते हैं कि काशी दुनिया का सबसे पुराना शहर है। पुरातत्वविद भी यह मान लेते हैं कि काशी दुनिया के सबसे प्राचीन नगरों में से एक है।

मार्क ट्वेन ने तो काशी को इतिहास से भी पुराना शहर कहा था।(Benaras is older than history,older  than tradition older even than legend_.Marc Twain)।

ग़ालिब की नज़र में काशी दुनिया के दिल का नुक़्ता है,चिराग़-ए-दैर यानि मंदिर का दीपक।

वैसे आपको यह सब जानने के लिए बहुत भारी शोध करने की ज़रूरत नहीं है।

आप किसी अनपढ़  काशीवासी से भी अगर दो मिनट बात कर लें तो तुरंत समझ जाएंगे कि मामला औसत तो नहीं है। यहाँ के रिक्शावाले भी बड़े आत्मविश्वास के साथ सरकारों से लेकर देवताओं और परमसत्ता तक की दो मिनट में ऐसी-तैसी कर सकते हैं।

काशीवासियों की भाषा और व्यवहार में वीतरागी संतों के समान 'सानूँ की?' या ब्रह्मसत्य जगतमिथ्या जैसी दिव्यदृष्टि का होना सामान्य बात है। ऐसे लोग दुनिया के किसी कोने में भी मिलने मुश्किल हैं।

मसलन वे मायावती,अखिलेश या मोदी ही नहीं,बल्कि उनकी कई पुश्तों के सार्वजनिक न किए जा सकने वाले तथ्य भी दो सेकेंड्स में सप्रमाण सार्वजनिक कर देंगे।

आप गंगा की सफ़ाई की ओर इशारा करेंगे तो वे गंदगी के सकारात्मक पक्ष को पुरज़ोर तरीक़े से आपके सामने रख देंगे।

आप उनसे डब्ल्यू एच ओ से लेकर डब्ल्यू टी ओ तक दुनिया के प्रत्येक संगठन के कच्चे चिट्ठे झटपट उनकी मुंहज़ुबानी सुन सकते हैं। वैसे ही जैसे गया या हरिद्वार के पंडे किसी भी हिंदुस्तानी की पीढ़ियों का सिज़रा उसके सामने रख दिया करते हैं।

वे वायरस से लेकर बाइडन तक के डीएनए की व्याख्या विश्लेषण सहित आपके सामने रख सकते हैं।

हिंदुस्तान में कहावत है कि सोच की दृष्टि से बंगाल सबसे आगे रहता है। बंगाली जो कुछ आज सोच रहे होते हैं बाक़ी हिंदुस्तान को वह बात सोचने में दशकों लग जाते हैं। लेकिन कभी आपने ग़ौर किया कि अधिकांश बंगाली,काशी पहुँचने के बाद ही प्रामाणिक हो सके हैं।
वे चाहे चैतन्य महाप्रभु हों,रविशंकर या लाहिड़ी महाशय।

सच तो यह है कि शुरु से ही सारे ज्ञानी और संत तभी प्रामाणिक और स्वीकार्य माने जाते रहे हैं जब वे काशी से इस बात का सर्टिफिकेट हासिल कर लेते हैं।

यही कारण है कि चाहे सुदूर दक्षिणी आए शंकराचार्य से लेकर रामानुज हों या पूर्व के चैतन्य महाप्रभु से लेकर रविशंकर या लाहिड़ी महाशय या पश्चिम के नामदेव से लेकर तुकाराम तक या उत्तर के कल्हण से लेकर अभिनवगुप्त या गुरु नानक तक सभी काशी अवश्य आए।

और तो और पश्चिम के भी जिन भारतविदों को आप जानते हैं,वे भी अपने क्षेत्रों में तभी पहचाने जा सके जब कुछ दिनों के लिए काशी के बनारसी पान की थूक से सनी गलियों और गंधियाती गंगा,यहाँ-वहाँ कुत्तों से नौंची जाती लाशों और श्मशान में जलाए जाने के लिए लाइन में लगी लाशों को बर्दाश्त करते-करते अंतत: इस सबसे एकदम सहज नहीं हो गए।

काशी को श्राप है कि जिस क्षण यहाँ लाशें जलनी रुक जाएँगी,उसी क्षण यह शहर भस्म हो जाएगा।

बुद्ध से लेकर विवेकानंद तक,जिद्दू से लेकर जगन्नाथ तक,प्रेमचंद से लेकर पप्पू तक और फाहियान से फेंकूं तक,काशी सभी की क्रीड़ास्थली या पीड़ास्थली रही है।

बनारस की तवायफ़ों और गायिकी को हटा दें तो हिंदुस्तानी संगीत का क़द बहुत छोटा रह जाएगा।

बहरहाल काशीवासियों को पसंद हो या न हो काशी का एक हिस्सा अब उतना ही भव्य,स्वच्छ और आकर्षक बन चुका है जितना कि दुनिया का कोई अन्य बेहतरीन पर्यटन स्थल।

जिस दौर में हम जी रहे हैं वहाँ माल से ज़्यादा क़ीमती पैकेजिंग होती है। सो अब बाबा का ब्रांड पहले के मुक़ाबले अधिक लोकप्रिय होने की पूरी संभावना है।

फ़िलहाल साधकों,औघड़ों और तांत्रिकों को छोड़ भी दें (हालाँकि उनके लिए आज भी काशी का एक कोना अपने मूलरूप में शेष है। जहाँ पान की पीक,तंग गलियाँ ,जलती लाशों की दुर्गंध,और गंधियाती गंगा सबकुछ यथावत है)तो काशी का कम से कम एक हिस्सा ज़रूर विश्व बाज़ार के शो रूम में प्रभावी प्रदर्शन के लिए तैयार है।

फिलहाल बाबा की दृष्टि भक्तों से अधिक भोक्ताओं पर है।

प्रधानमंत्री ने जिस संकल्प के साथ एक बेहद जटिल और चुनौतीपूर्ण कार्य को संपन्न किया है,वह निश्चय ही असाधारण और प्रशंसनीय कार्य है। एक आस्थावान हिंदू के रूप ने उन्होंने वे सभी पारंपरिक अनुष्ठान किए जो उन्हें ज़रूरी लगे।

योगी और मोदी दोनों ही एक बात के लिए लोकमानस में विशेष स्थान रखते हैं कि दोनों ने समय-समय पर दिखावे के जीवन से परहेज़ किया है। किसी भी हिंदुस्तानी की तरह उन्हें भी अपनी धार्मिक आस्थाओं के साथ नि:संकोच जीने का अधिकार है।

इससे पहले जो राजनेता तरह-तरह की टोपियाँ लगाकर राजनैतिक-धार्मिक नौटंकियाँ करते रहे हैं,वह दरअसल हिंदुस्तानियों की मेधा और उनके आई.क्यू का मज़ाक़ उड़ाने जैसा था।

हालाँकि लोग उनके इस ड्रामे को पूरी तरह समझते हुए उनकी ही मज़ाक़ उड़ाते थे।

यह कार्यक्रम जिसने भी परिकल्पित किया उसे साधुवाद। योगी जी ने अपने संबोधन में तुलसीकृत शिव रुद्राष्टक को चुना।

तुलसीदास भी काशी के,और बाबा विश्वनाथ के मंदिर में संबोधन का आरंभ इससे उत्तम क्या हो सकता था। मोदी जी की वक्तृता उन्हें विशिष्ट बनाती है।

टेलीप्राम्पटर ही सही आप ईमानदारी से सोचिए ऐसे कितने प्रसिद्ध टीवी एंकर हैं जो देशज बोलियों से लेकर प्रांजल शब्दावली का एक साथ प्रयोग मोदी जी के समान कर सकें।

बहरहाल दो दिन के बेहतरीन शो का ख़ुमार काशीवासियों पर दो दिन भी रहे तो बहुत।

सुधि लोग जानते हैं कि यह सब उनके लिए था भी नहीं। आज भी अगर आप किसी काशीवासी से इसके बारे में बात करेंगे तो वह इस आयोजन को जीवन की नश्वरता से जोड़कर बिल्कुल बेकार और अनावश्यक आयोजन बता सकता है।

ख़ैनी रगड़ते हुए या पीक थूकते हुए मोदी के लिए कुछ अनसुने विशेषण भी भेंट कर सकता है,पर शायद ही कोई हिंदुस्तानी हो जो इस आयोजन की तारीफ़ किए बिना रह सके।

सबसे ख़ास बात यह कि बनारस के मुसलमानों ने खुले दिल से इसका स्वागत किया है। कारण यह, वे इस आयोजन को काशी के पर्यटन विकास की तरह देख रहे हैं। उन्हें उम्मीद है दुकान मशहूर होगी तो ज़्यादा ग्राहक भी तो लाएगी जिसका अंततोगत्वा लाभ उन्हें भी मिलेगा ही।

बनारस की साड़ियाँ आज भी आम हिंदुस्तानी औरतों के लिए एक सपने की तरह हैं।

एक ओर सपने बेचने वाले मोदी हैं तो दूसरी ओर सपने बुनने वाले काशी के कारीगर।
दोनों मिलकर काशी के व्यापार को चमकाने का ही कार्य करेंगे।
काशी कबीर की भी है,केदारनाथ सिंह की भी-
देता हुआ अर्ध्य
शताब्दियों से इसी तरह
गंगा के जल में
अपनी एक टांग पर खड़ा है ये शहर
अपनी दूसरी टांग से बिल्कुल बेख़बर_केदारनाथ सिंह
काशी का एक अर्थ है-चमकने वाली। काशयति प्रकाशयति इंद्र सर्वम् इति काशी।
काशी मोदी का क्योतो है।

काशी में मोदी के करिश्मे की चमक दुनिया ने देखी। राजनीति में यह चमक कितनी देर ठहरेगी यह समय बताएगा।

व्हाया सुनील कुमार

 


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