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यशस्वी अध्याय की नायिका के नेतृत्व में जब ढाका की धरती पर लिखा गया नया इतिहास

वीथिका            Dec 16, 2021



विजयदत्त श्रीधर।


16 दिसंबर 1971 को भारत की शूरवीर सेना के सामने पाकिस्तान की अत्याचारी फौज ने हथियार डाले। यह दूसरे महायुद्ध के बाद किसी फौज का सबसे बड़ा आत्मसमर्पण था। इस परिघटना ने देश-विभाजन का थोथा मजहबी आधार भी ध्वस्त किया। भारत के इतिहास में इसके 2276 साल पहले सिल्यूकस ने चन्द्रगुप्त मौर्य के सामने हथियार डाले थे।

ठीक 50 साल पहले, 16 दिसंबर 1971 को, ढाका की धरती पर नया इतिहास लिखा गया था। नया भूगोल भी रचा गया। सन 1947 में भारत की स्वतंत्रता की इबारत लिखते समय मजहब के थोथे आधार पर द्वि-राष्ट्र का जो सिद्धांत गढ़ा गया था, उसकी निरर्थकता का उद्घोष इस ऐतिहासिक परिघटना ने किया।

ढाका में पाकिस्तान की 90,000 से ज्यादा भारी भरकम फौज ने भारत की सेना के सामने विवश होकर हथियार डाले थे। जबकि उस फौज के पास हथियारों का जखीरा था और रसद की भी कमी नहीं थी।


    
इस दिन महान बांग्ला विजय के साथ-साथ विश्व के मानचित्र पर नया राष्ट्र-बांग्लादेश अस्तित्व में आया था। इस देश की गौरवशाली बंग-संस्कृति और समृद्ध बांग्ला भाषा थी। अब यह देश पाकिस्तान के शोषण और जुल्म-ज्यादतियों से आजाद होकर अपना भविष्य खुद गढ़ने का हकदार हो गया था। भारत के इतिहास के इस यशस्वी अध्याय की नायक प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी थीं। बंग बंधु शेख मुजीबुर्रहमान प्रतीक पुरुष बने, जो तब पाकिस्तान की जेल में थे।
    
भारत के इतिहास में शौर्य की अनेक गाथाएँ मिलती हैं। उनके कर्ता समाज में शूरवीर नायक की तरह आदर और सम्मान पाते हैं। तथापि, इस विशद इतिहास की दो महाघटनाएँ स्वर्णाक्षरों में अंकित हो गई हैं। ईसा से 305 साल पहले मगध सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के सामने सिंकदर के सेनापति रहे और फिर राजा बने सिल्यूकस की सेना ने आत्मसमर्पण किया था।

यही घटनाचक्र, 16 दिसंबर 1971 को, 2276 साल बाद, दोहराया गया।

नफरत की बुनियाद पर खड़े और अड़े पाकिस्तान की फौज को भारत की सेना के सामने हथियार डालना पड़े। यह वही फौज थी जो भारत से हजार साल तक लड़ने का दंभ भरती थी और भारत की धरती पर जंग लड़ने का सपना देखती थी।
    
इस शौर्य गाथा पर विस्तार से विचार करते हुए उस घटनाचक्र का पुनरावलोकन आवश्यक है जो पाकिस्तान के पराभव, भारत की महान विजय और एक नये राष्ट्र के जन्म की बुनियाद बना। इतिहास गवाह है कि बारम्बार फौज के बूटों तले रौंदे जाते पाकिस्तान में लोकतंत्र की बहाली के लिए 1969 में जब चुनाव हुए तब शेख मुजीबुर्रहमान की अवामी पार्टी को बहुमत मिला। पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के नेता जुल्फिकार अली भुट्टो को ‘बंग बंधु’ की यह जीत और बढ़त कुबूल नहीं थी। पाकिस्तान की हुकूमत और फौज, जिस पर हमेशा पंजाबी लाबी का शिंकजा मजबूत रहा है, कभी भी लोकतंत्र की हामी नहीं रहे हैं। दो दलों की लड़ाई में उन्हें अपना वर्चस्व सुरक्षित नजर आया।

बंग संस्कृति और बांग्ला भाषा को वरीयता देने वाले बंगालियों के दमन में पाकिस्तान की फौज ने इंसानियत की सारी मर्यादाएँ तार-तार कर डालीं। महीनों तक यह सिलसिला चला। दसियों लाख बंगाली शरणार्थी भारत में आ गए। जैसे-जैसे फौज की बर्बरता बढ़ती गई, भारत की परेशानियाँ भी बढ़ती गईं। पूर्व पाकिस्तान के साढ़े सात करोड़ बंगालियों की सहन-शक्ति भी जवाब दे चुकी थी। अन्ततः बांग्ला मुक्तिवाहिनी ने करो या मरो जैसे दृढ़ संकल्प के साथ बांग्ला देश की मुक्ति का संग्राम छेड़ दिया। 26 मार्च 1971 को उन्होंने स्वतंत्र बांग्ला देश की घोषणा कर दी।
    
बहुत ही शर्मनाक और कड़वी सच्चाई है कि लोकतंत्र, स्वतंत्रता और मानवाधिकारों की बड़ी दुहाई देने वाले अमेरिका और अन्य यूरोपीय देशों ने पाकिस्तान की फौजों के हाथों दमन का शिकार हुए पीड़ित बंगालियों के साथ हमदर्दी नहीं जताई। पाकिस्तानी दमनचक्र पर अंकुश लगाने का उपाय नहीं किया। इसके विपरीत हत्यारे-अत्याचारी पाकिस्तान के साथ खड़े रहे।

जबकि भारत ने पूरी ताकत से पीड़ित बांग्लादेशियों का साथ दिया। केवल रूस ने भारत का साथ दिया। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बांग्ला-मुक्ति का संकल्प ले लिया था। बाबू जयप्रकाश नारायण प्रभृति विश्व विश्रुत जननायक और अटल बिहारी वाजपेयी सदृश मुखर प्रतिपक्षी नेता इस अनुष्ठान का वैचारिक पक्ष सँभाल रहे थे। वे दुनिया को हालात की गंभीरता तथा पाकिस्तान की बर्बरता सुना रहे थे, समझा रहे थे।

सारा देश एक, मुद्दा एक, नेता एक। तभी भारत दमनकारी के साथ-साथ अमेरिका तक के सामने डट गया था। जिन लोगों ने बांग्ला मुक्ति संग्राम के घटनाचक्र का अध्ययन-विश्लेषण किया है, वे भली भाँति जानते हैं कि पाकिस्तान की मदद के लिए अमेरिका का जंगी सातवाँ बेड़ा हिन्द महासागर में आ धमका था। परन्तु भारत की रणनीति और सख्ती के कारण उसे लौटना पड़ा था, अपमान का घूँट पीकर।
    
पाकिस्तान ने 3 दिसंबर 1971 को भारत की पश्चिमी सीमा पर हमला बोल दिया था। अब भारत को निर्णायक युद्ध में उतरना पड़ा। इंदिराजी ने दृढ़ता और कठोरता के साथ-साथ संयम भी साधा। जनरल मानेकशा और थल-नभ-जल सेनाएँ मुस्तैद थीं। पाकिस्तान के मंसूबों को कुचलने में ज्यादा समय नहीं लगा।



केवल 14 दिनों के युद्ध में पाकिस्तान को आत्मसमर्पण करना पड़ा। 16 दिसंबर 1971 को ढाका में भारत के लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के सामने पाकिस्तान के लेफ्टिनेंट जनरल ए.ए.के. नियाजी ने हथियार डाल दिए। उसने अपनी सर्विस रिवाल्वर ले.ज. अरोड़ा को सौंपी। सच्चा सैनिक वीरगति का वरण करता है। आत्म समर्पण करना भीषण अपमान और लज्जा का कारण बनता है। परन्तु घमण्ड का घर तो खाली ही होता है। पाकिस्तान के साथ यही हुआ।
    
भारत की मंशा कभी किसी देश की इंच भर जमीन हथियाने की नहीं रही। मानवता भारत के लिए सदैव से सबसे बड़ा जीवन-मूल्य रहा है। बंग-विजय के साथ ही भारत ने 17 दिसंबर 1971 को युद्धविराम की घोषणा कर दी। बंग बंधु शेख मुजीबुर्रहमान की पाकिस्तान की कैद से मुक्ति और ढाका पहुँचकर सत्ता सँभालते ही भारत की सेना 26 मार्च, 1972 को बांग्लादेश से लौट आई। कुछ समय बाद गिरफ्तार पाकिस्तानी फौजियों को भी मुक्त कर दिया गया।
    
भारत की महान विजय और स्वतंत्र बांग्लादेश उदय की गौरवशाली घोषणा प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने संसद में की। समूचा देश हर्ष विभोर था। यह नये इतिहास और नये भूगोल की संरचना की असाधारण अभूतपूर्व परिघटना थी। कई-कई सदियों में कभी-कभार ऐसी उपलब्धि का अर्जन होता है। स्वाभाविक ही इंदिराजी नेतृत्व के शिखर पर थीं। उनका अभिनंदन किया गया। तब कविवर हरिवंश राय बच्चन ने यह शेर पढ़ा था -
    ‘‘उसकी बेटी ने उठा रक्खी है दुनिया सिर पर,
    वो तो अच्छा हुआ, अंगूर के बेटा न हुआ।’’

जीत की ओर बढ़ते चौदह कदम

3 दिसंबर 1971 : पाकिस्तान की वायुसेना ने अमृतसर, श्रीनगर, जोधपुर, अम्बाला, आगरा समेत भारत के आठ हवाई अड्डों पर हमला किया। पश्चिमी सीमा पर थल सेना ने युद्ध छेड़ा। कुछ ही घण्टे बाद भारत की वायुसेना ने सरगोधा, मरी, कराची, रावलपिण्डी, लाहौर सहित आठ हवाईअड्डों पर जवाबी हमला कर पाकिस्तान की वायुसेना की रीढ़ तोड़ दी।
4 दिसंबर 1971 : पाकिस्तान ने युद्ध की घोषणा कर छम्ब और हुसैनीवाला पर हमला किया। दोनों मोर्चों पर भारत की सेना ने मुँह-तोड़ जवाब दिया। भारत की नौसेना ने पाकिस्तान के युद्धपोतों के विनाश की कार्रवाई शुरू की। भारत की सेना ने बांग्लादेश में प्रवेश किया। मुक्तिवाहिनी के सहयोग से कई ठिकानों पर स्वतंत्रता का झण्डा फहराया।
5 दिसंबर 1971 : सुरक्षा परिषद में युद्ध विराम के प्रस्ताव को रूस ने वीटो कर दिया। दो पाकिस्तानी युद्धपोत खैबर और शाहजहाँ डुबो दिए गए। कराची, चटगाँव, कासिमबाजार पर बम बरसाये गए। पश्चिम मोर्चों पर पाकिस्तान के दाँत खट्टे करने का अभियान जारी।
6 दिसंबर 1971 : भारत ने बांग्लादेश को स्वतंत्र देश के रूप में मान्यता दी। पाकिस्तान ने भारत से राजनयिक संबंध तोड़े। चटगाँव बंदरगाह पर हमला। मुक्तिवाहिनी के साथ बांग्लादेश में भारत की सेना बढ़ती गई।
7 दिसबंर 1971 : पाकिस्तान के शिकंजे से जैसोर और सिलहट मुक्त।
8 दिसंबर 1971 : भारत के सेनाध्यक्ष जनरल मानेकशा ने रक्तपात रोकने के लिए पाकिस्तान की सेनाओं को आत्मसमर्पण करने का आदेश दिया। बांग्लादेश में कोमिल्ला और ब्राह्मणवरिया के ठिकानों पर कब्जा।
9 दिसंबर 1971 : पूर्वी तट पर पाकिस्तान की पनडुब्बी गाजी को डुबो दिया। पश्चिम में मकरान और कराची पर बमवारी। चाँदपुर और दाउदकंदी मुक्त कराए।
10 दिसंबर 1971 : लक्ष्य की मुक्ति के साथ पाकिस्तान के कमाण्डर ने 416 सैनिकों के साथ आत्मसमर्पण किया। कच्छ में वीरावाह और विकोट फतह। भारत ने विदेशी     नागरिकों से ढाका छोड़ने की अपील की। सुरक्षा की गारण्टी दी।
11 दिसंबर 1971 : मेजर जनरल राव फरमान अली ने संयुक्त राष्ट्र महासचिव से पश्चिम पाकिस्तानी सैनिकों और नागरिकों को बांग्लादेश से सुरक्षित हटाने के लिए सहयोग की माँग की। लेकिन जनरल याह्या खां ने इस पहल को रदद् कर दिया। जनरल मानेकशा ने पाकिस्तान को हथियार डालने की चेतावनी दी। मुक्तिवाहिनी ने मैमन सिंह, नोआखाली पर कब्जा कर लिया।
12 दिसंबर 1971 : ढाका को घेरा। जनरल मानेकशा ने फिर आत्मसमर्पण की चेतावनी दी।
13 दिसंबर 1971 : भारत के छाताधारी सैनिक अंतिम कार्रवाई के लिए ढाका के इर्द-गिर्द उतरे।
14 दिसंबर 1971 : बोगरा मुक्ति के साथ कई पाकिस्तानी बड़े अफसरों ने ढाका के पास आत्मसमर्पण कर दिया। हरिपुर पेट्रोलियम एवं गैसशोधक कारखाने पर कब्जा। सेनाओं की वापसी का अमेरिकी प्रस्ताव तीसरी बार रूस ने वीटो किया।
15 दिसंबर 1971 : लेफ्टिनेंट जनरल ए.ए.के. नियाजी ने अन्ततः विवश होकर आत्मसमर्पण का निवेदन किया। भारत के सेनाध्यक्ष ने इसे मंजूर कर लिया।
16 दिसंबर 1971 : ढाका में ले.ज. नियाजी ने भारत के पूर्वी क्षेत्र के जनरल आफिसर कमाण्डर इन चीफ लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के सामने आत्मसमर्पण किया। भारत ने पश्चिम मोर्चे पर 17 दिसंबर को रात 8 बजे से एकतरफा युद्धविराम की घोषणा की। 17 दिसंबर की दोपहर जनरल याह्या खां ने भी युद्ध विराम की पुष्टि कर दी। चौदह दिन चला युद्ध समाप्त।

लेखक सप्रे संग्रहालय के संयोजक और संस्थापक हैं

 



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