डॉ. नवनीत धगट।
कोविड महामारी की त्रासदी और लॉकडाउन के बाद जनजीवन पटरी पर आया । ब्याह-शादी के सीज़न फिर गुलजार हुए । बारातें सजने लगीं, बाराती फिर संवरने दमकने लगे । बारातों में सजे-धजे, महंगे परफ्यूम्स से गमगमाते बाराती, पसीना बहाते बैण्ड-बाजा वालों पर शायद ही कभी ध्यान देते हों, या उन्हें याद रखते हों ।
बाराती, नाचना-थिरकना चाहते हैं, अपनी रोजमर्रा की जद्दोजेहद को, उन पलों में भूल जाना चाहते हैं । कभी भांगड़ा तो कभी नागिन और गरबा के तालों की मांग करते हैं । बाजे वाले बिना देर, फरमाइशें पूरी करने अपने ढोल, ताशे, धमाल, ट्रम्पेट,सेक्सोफोन की धुनें स्विच करते हैं । शगुन और न्यौछावर में दिए कुछ रुपये इनके चेहरों पर चमक ले आते हैं । नाच रहे बारातियों को थका के चूर करा देने के लिए ये दूने उत्साह से जुट जाते हैं।
नाच रहे नशेड़ी बाराती अपना आत्मविश्वास बरकरार रखने इस बाजा वालों की आंखों में आंखें डाल के झूमते हैं । ये इनकी आंखों को गहराई से पढने की कोशिश नहीं होती ।
उनके नामों को, उनकी आजीविका, उनके काम को उनकी ज़िन्दगी की दुश्वारियों की पड़ताल किसी की जरूरत नहीं ।
ऐसी ही एक बारात में ,अशरफी की फोटो मोबाईल से लेने के लिए बढ़ता हूँ - उसे लगा कि मैं उसकी परफार्मेन्स चैक कर रहा हूँ । वो ट्रम्पेट और अधिक शिद्दत से बजाने लगता है ।
बारात को जगमग रखने के लिए जनरेटर लाइट ढोने वाला शर्मीला किशोर सूरज अपनी बहती हुई नाक को कमीज की आस्तीन से पोंछते हुए बताता है – ‘ चाय और डेढ़ सौ रूपये तक मिल जाते हैं ।
’ यही काम कर रही बच्ची बबली बताती है- ‘ दिन में स्कूल के बाद शाम रात की बरातों में ये काम मिल जाता है, घर के खर्च में मदद मिल जाती है ।’
‘बस सीजन भर का काम है सा’ब जो मिल जाता है उसी में घर, दाल रोटी चलाते हैं । एक बारात लगाने के तीन-चार सौ तक मिल जाते हैं । काम के धण्टे के हिसाब से देते हैं - मास्टर !
’ (मास्टर - वो जो इन कलाकारों को लीड करते हैं ) । बारात में मशक्कत से ढोल बजाने वाला लछमन कुछ मायूस से स्वर में बताता है- ‘ हमारे बारे में सोचता कौन है सा’ब । वो तो आप हो जो इतना पूछ रहे हो । “जा की रही भावना जैसी ...” ।’
ये बंसल,बसोर, धानुक समाज से आने वाले कलाकार कहलाते हैं । अनुसूचित जाति का दर्जा प्राप्त इस समाज,का बैण्ड पार्टी के कामों में लगभग एकाधिकार सा है । इसे एकाधिकार कहा जाये या मजबूरी ? ये कहना मुश्किल है ।
ऐसे ही ढोल-ताशे और धमाल के काम में लगे एक परिवार के हाल जानने मिला - घर में शिक्षा का बिल्कुल कम वातावरण । गृहणी से पास में खड़ी बच्ची की पढ़ाई के बारे में पूछा । दी जा रही सरकारी सुविधाओं का जिक्र करते हुए ।
बोली- ‘ नौवीं के बाद पढ़ना छोड़ दिया सा’ब । दिमाग ही नहीं चलता । ’ बी.ए. कर रहे राहुल से पूछ लिया - ‘काम पर जाते हो ? ’ जवाब मिला- ‘हाँ सा’ब- कभी-कभी ।
‘आगे पढ़ना चाहोगे ? ’ – ‘हाँ सा’ब । कई बार धमाल का काम करते ठीक व्यवहार नहीं मिलता.. । ’ - राहुल के शब्दों में व्यथा का स्वर था ।
‘इतनी मेहनत करने के बाद थक तो जाते होंगे ? कुछ नशा वगैरह ? ’ परिवार में मौजूद दो-तीन महिला आवाजें आईं - ‘हाँ सा’ब ! ’ इन आवाजों में साड़ी के पल्लू से सिर और चेहरे को ढंकती हुई गृहणी की बेबस हँसी भी थी।
राहुल ने बात को सुधारा – ‘काम पर रहते हुए नहीं । काम से लौट के आने के बाद... सभी तो नहीं पर- हाँ ! ज्यादातर “खा-पी” लेते हैं ।’
9827012124
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