मनोज श्रीवास्तव।
शिव को काम पर क्रोध क्यों हुआ था? क्या शिव इस तरह के engineered love से गुस्सा हो गये थे और फिर उन्होंने काम को अवचेतन में फेंक दिया?
प्रेम का भी क्या प्रायोजन होता है? शिव का प्रेम किसी कुट्टनी का उत्प्रेरण नहीं मांगता, वहां मौसमी उद्दीपन भी काम नहीं आता।
शिव और पार्वती का रिश्ता जनम जनम का रिश्ता है, उसे किसी अभियांत्रिकी की जरूरत नहीं है।
कामदेव की कारीगरी यहां काम न आएगी, न उसके विज्ञापन की, प्यार की एक सहज वृत्ति है, वह होता ही सहज है।
सिर्फ इतना ही नहीं जिसके साथ आप सहज रह सको, वहाँ प्यार है, प्यार दबाव नहीं है, उसमें एक शांत आश्वस्ति है, जिसके साथ आप अपने सरीखे हो सको।
जिसके लिए बसंत ऋतु का होना जरूरी नहीं है जिसका होना ही बसंत ऋतु है।
काम के शर के भी तीन कोने हैं, एक कोना ब्रह्माधीन है, दूसरा विष्णु के आधीन है और तीसरा महेशाधीन है, लेकिन काम उस शिव का क्या करेगा जो स्वयं त्रिशूली हैं?
क्या शिव के लिए पार्वती और पार्वती के लिए शिव स्वयं ही अनन्य नहीं हैं, जो उन्हें किसी अन्य की दरकार हो?
देशोपदेश (1.2) में कुट्टनी को जनरूपी वृक्षों को गिराने के लिए प्रकृष्ट माया की नदी कहा गया है।
जयत्यजस्रं जनवृक्षपातिनी/प्रकृष्ट माया तटिनी कुट्टनी कामदेव।
वृक्ष को गिराते नहीं, खिलाते हैं, वे अशोक को आम्र मंजरी, रक्तकमल, नीलोत्पल और नवमल्लिका को खिलाते हैं।
इसलिए काम को पुरुष कुट्टिनी कहना शायद ज्यादती हो लेकिन शिव परासमाधि के जिस उच्च स्तर पर लीन रहते हैं, वहां काम की उपस्थिति लगभग वैसी ही प्रतीत होती है।
उसे सम्मोहन, उन्मादन, शोषण, तापन और स्तंभन के बाणों की क्या जरूरत है?
शिव स्वयं ही मलयानिल है, उन्हें काम प्रायोजित मलयानिल पर क्यों निर्भर रहना हो ? शिव कोई बहिरंगीकृत (externalized) कामानुभूति नहीं चाहते।
प्रकृति को 'निर्मित कर' कामदेव पार्वती के प्रति शिव की अंतःस्थ भावना की अवगणना करता है। बल्कि 'प्रकृति' की भी।
शिव का पार्वती से सम्बन्ध, शक्ति से सम्बन्ध सनातन है, चिरंतन है, वह मौसमी नहीं है कि काम उसके लिए ऋतु सृजन करे।
पार्वती की शिव में अंतर्वर्तिता को चट्टान या पेड़ के पार्श्व में खड़े काम को समझना आसान नहीं है। उसका होना दरमियानी होना है।
लेकिन इस दाल भात में मूसरचंद को इस अंगने में कोई काम नहीं, यहां किसी कासिद की जरूरत नहीं थी।
न शिव ने उसे बुलाया, शेरिलिन केन्यन (Fantasy Lover : Hunter Legends) को होगी जिसने लिखा? Cupid, you worthless bastard, I summon you to human form.
शिव ने उन्हें ऐसे या कैसे भी नहीं बुलाया था।
शिव किसी ‘निर्मित प्यार' (contrived love making) में यकीन नहीं रखते थे।
वे आधुनिक मैन्युफैक्चरर्स की छोड़ो, देवों के द्वारा प्रेषित कामदेव की प्रबंध-रचना को भी गर्हित मानते रहे होंगे।
कौन से उपवन के तरुओं के बाण चढ़ा रहे हैं कामदेव, उस चीज के लिए जो इतनी 'वाइल्ड' है?
कौन सा प्रबंधन है जो इतनी आदिम (primal) चीज़ के लिए जरूरी है? शिव-शक्ति दोनों में एक दूसरे के लिए एक पवित्र भूख (sacred hunger) हैं।
उस 'शुद्ध उत्तेजन' (pure sensation) के अवतरण के लिए शिव का पार्वती की ओर एक दृष्टिपात् ही काफी है लेकिन, वह उत्तेजन मन-चित्त-आत्मा के संपूर्ण एकीकरण के साथ ही शिव है।
शिव का तीसरा नेत्र क्या है? वह नेत्रेन्द्रिय नहीं है, कोई अलग चीज़ ही है, तीसरी आंख कहकर ही यह स्पष्ट कर दिया गया है कि यह है 'पर्सेप्शन’ का ही एक प्रकार, लेकिन है असाधारण ।
यही भीतरी आंख नोर्स पौराणिकी में देवताओं के राजा- आप उन्हें वहां का महादेव समझ लें- ओडिन की एक ही आंख है।
वह पैदा भले ही दो आंखों के साथ हुये थे, लेकिन प्रज्ञा के कुंए से ज्ञान प्राप्त करने के लिये उसने एक आंख दे दी।
भारत में अंतर्दृष्टि विकसित होने की सोच त्रिनेत्र की अवधारणा तक पहुँची, इस भीतरी यौगिक दृष्टि को अपनी पूर्णता के बारे में पता है,अपनी अखंडता के बारे में। इसे अपने अर्द्धनारीश्वरत्व के बारे में कोई संदेह नहीं है।
इसी कारण यह प्रशांति इसकी योगाधिरूढ़ पहचान है, इसमें विकलता नहीं है।
यही अविकल स्वरूप शिव-स्वरूप है। वह वैराग्य नहीं है।वह इस सृष्टि के एकत्व में रमण है। कामदेव जिसकी कामना (craving)जगाना चाहता है, शिव को ज्ञान है कि उनके पास वह है - 'हैविंग' का बोध।
शिव के तीसरे नेत्र को इसी अंतर्ज्ञान का नेत्र समझिए, इसके सामने काम को भस्म होना ही होना है।
महाभारत के शांति पर्व (25/7) में कहा गया था : 'कामबंधनमेवैक नान्यदस्तीय बंधनम्।' यानी संसार में कामना ही एक बंधन है, कोई और बंधन नहीं।
यह भी कि 'कामबंधनमुक्तो हिं ब्रह्मभूयाय कल्पते यानि कि जो कामना के बंधन से छूट जाता है, वह ब्रह्मभाव प्राप्त करने में समर्थ हो जाता है।
शिव वैसे ही हैं, कामदेव उनके भीतर उन अर्द्धनारीश्वर के भीतर एक बाहरी और कृत्रिम इच्छा की ऋतु रचना चाहते थे।
शिव की ज्ञानाग्नि में वे भस्म हो जाते हैं। यह एक तरह से शिव की गीता है। गीता में भगवान कृष्ण ने ‘कामात् क्रोधः जायते' कहा था कि काम 'से' क्रोध’ पैदा होता है। लेकिन शिव की मौलिकता इसमें है कि उन्हें काम 'पर' क्रोध उत्पन्न होता है।
शिव का अर्द्धनारीश्वरत्व क्या ऋग्वेद के उस विचार का प्रतिनिधान है जिसमें यह कहा गया था कि जिन्हें पुरुष कहते हैं वे वस्तुतः स्त्री हैं, जिसके आँख हैं वह इस रहस्य को देखता है, अंधा इसे नहीं समझता - स्त्रियः सतीस्ता उ मे पुंस आहु: पश्यदक्षण्वान्न विचेतदन्ध : (3/164/16)।
मुझे यह ऋचा हमेशा रहस्यपूर्ण लगी है क्योंकि इसमें सती और दक्ष दोनों के नाम आते हैं। क्या यह योषा-वृषा भाव, यह स्त्री-पुरुष अन्योन्यता, यह द्यावा-पृथिवी भाव - द्यौ पिता और पृथ्वी माता ही शिवत्व है ?
इनके पारस्परिक राग के शिवत्व को आंतरिक ही होना होगा। भौतिक दृष्टि से इसे देखना, इसे सिर्फ शारीरिक सम्बन्ध की तरह देखना इसके शिवत्व से वंचित होना है।
( क्रमशः)
लेखक सेवानिवृत आईएएस अधिकारी हैं।
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