मनोज श्रीवास्तव।
काम को जलाना भारतीय पौराणिकी का एक महत्त्वपूर्ण रूपक है, जो काम दूसरों को जलाता है, शिव ने उसे ही जला दिया। रोमन पौराणिकी में क्यूपिड काम के समकक्ष हैं, ग्रीक में ईरोज (क्यूपिड) के पास धनुष-बाण है, हमारे यहां त्रिपुरारी शिव के पास भी धनुष-बाण है।
हमारे यहां काम भी पंचशर है लेकिन उसका सामना त्रिपुरारी से है जो निहत्थे नहीं हैं। यदि काम जलाता है तो इन शिव ने तीन पुरों को दग्ध कर दिया है।
क्यूपिड और कामदेव दोनों का धनुष-बाण युक्त होना क्या बताता है? कि प्रेम भी युद्ध है या कि युद्ध से हमें इतना प्रेम है कि प्रेम भी युद्ध की ही टर्म्स में ही अभिव्यक्त होता है?
या कि यह भी कि प्रेम युद्ध का भी नियंत्रण करता है? सर्वेन्टीज को तो इसमें शक ही नहीं : Love and war are the same things and stratagems and policy are as allowable in the one as in the other.
लेकिन शिव को तो एक युद्ध प्रेम के, काम के जरिए ही जीतना है, तारकासुर को मारा जाना है और यह कार्य शिव- पुत्र के हाथों ही संभव है।
क्या इस कथा में किसी तरह का 'जेनेटिक कोड' संनिहित है? केवल शिव-पुत्र ही क्यों चाहिए? क्या यह किसी प्रोग्रामिंग के चलते है?
यह हमारी पुराकथाओं में क्यों होता है कि कोई असुर किसी के पुत्र से ही मारा जा सकेगा ? क्या यह किसी तरह का सिमुलेशन है? ये कोई सैल्युलर मशीनरी है?
रक्त शुद्धता के उस समय में अमीनो एसिड की एक विशिष्टता जरूरी क्यों थी ? जिस जिनोम की आज इतनी चर्चा है वह उस समय किसी खास देवता की वीर्यसंभवा संतति के आग्रह में सक्रिय रही?
उस समय भी कोई स्पर्म सेलेक्शन था, कोई शुक्राणु-चयन? यह इन पुराकथाओं में कोई पूछता भी नहीं कि शिव क्यों नहीं मार सकते उसे, शिव-पुत्र ही क्यों चाहिए?
इसका अर्थ उस शत्रु-असुर की मृत्यु के प्रकार का एक पूर्व-विनिश्चयन भी है, यह विधानित किया जाना क्या है? इसमें 'काम' की एक महत्वपूर्ण भूमिका है।
क्या कोई अत्यंत उच्च स्तरीय सभ्यता है कि जिसने हमें प्रोग्राम किया है ? यहां बात गंभीर है।
यह शुद्धतः किन्हीं खास जीन्स की बात है जिसके लिए प्रतीक्षा की जा सकती है क्योंकि उसके सिवा कोई चारा भी नहीं है।
काम का मरकर जिंदा होना भी इस रूपक का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। अब यह काम का पुनर्विलोकन है।
काम सगुण से निर्गुण हुआ है, साकार से निराकार। यह एक बड़ा प्रस्थान है। इसके पहले निराकार-निर्गुण के साकार अवतार लेने के प्रसंग बहुत हुए हैं। लेकिन कामदेव के इस प्रसंग में अब वाकड़ उसे मनसिज कर दिया गया है।
उसकी गोचरता और मूर्त्तता खत्म हुई है। यह काम का पुनर्वीक्षण (reenvisioning) है, बल्कि पुनरावधारण (reconceptualization) है।
जब काम 'विजन' से ज्यादा 'धारणा' हो गया है। काम अब एक बाहरी सावयव शक्ति नहीं रहा, अब उसका आंतरिकीकरण (इंटर्नलाइजेशन) हो गया है।
क्या यह काम का पतन था या परिवर्तन था ? निरायामी काम निस्सीम काम भी था। क्या यह काम का चेतन से अवचेतन में चला जाना था? वहां जहां जागकर इसे लोगों को संभ्रमित करने, विचलित (disorient) करने और पीड़ित करने में ज्यादा ही सफलता मिलनी थी।
अब उसे उन चुनिंदा लोगों को ही प्रभावित नहीं करना था, जिसे इंद्र निशाना बनाना चाहते हों।
अब इसे सभी को प्रेरित-प्रभावित करना था। उन्हें भी जिन्हें बाहर इनके अस्तित्व को नकारना था। क्या यह काम का परिस्थितिजन्य से मनःस्थितिजन्य होना था?
शिव के तीसरे नेत्र के पास कुछ अतिरिक्त क्षमताएं हैं ही, सो जब काम भस्म हुआ वह शिव के द्वारा एक अलग दृष्टि डालने का परिणाम था।
कामदेव के रूपाकार वाले पुराने पाठ की जगह अब यह मरने-जीने की हालत वाली बात हो गयी थी।
यह यों भी देखिए कि 'शब्द' का मांसलीकरण (enfleshment) ईसाई विश्वास का मूल है लेकिन यहां मूर्त की, सवपु की निरवयता कामदेव के अनंग में परिणत होने में है।
हम ऊपर वीर्यसंभवा संतति-कुमारसंभव की बात कर रहे थे।
इसे जीसस के सम्बन्ध में प्रचलित उस आधारभूत सिद्धांत के सामने रखकर देखें कि Jesus Christ was conceived without the agency of human father or male sperm. शिव महादेव हैं तब भी कुमार कार्तिकेय को जन्म देने के लिए पार्वती आवश्यक हैं, उन दोनों का परिणय आवश्यक है।
वैसे एक दृष्टि से देखें तो जीसस की निवृत्तिमूलकता और काम की अनुरति दोनों ही यहां पढ़ी जा सकती हैं। विरागी जीसस के लिए यह कि And the Word became flesh and dwelt among us (St. John 1: 14) और अनुरागी काम के लिए यह कि The Flesh became feeling and dwelt among us.
इस कारण शिव की ज्ञानाग्नि ने भस्म हुए काम को ‘संकल्पयोनि' (काम का पर्याय) में परिणत कर दिया।
कामेच्छा (सेक्सुअल डिज़ायर) के वस्तुकरण (objectification) का यह नकार था।
कामदेव तो फिर भी देव थे इसलिए उन्होंने तो मात्र एक उद्दीपक वातावरण रचने की ही सजा भुगती।
अब तो यह आब्जेक्टिफिकेशन रसातल की ओर इस तरह से अग्रसर है कि उसकी कोई सीमा नहीं है। पर तब वह शिव नहीं है, कीचड़ है।
( क्रमशः)
लेखक सेवानिवृत आईएएस हैं।
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