मनोज श्रीवास्तव।
शिव ने काम को भस्म कर उस भस्म को अपने अंग पर लपेटा, लेकिन गंगा या चंद्रमा की तरह उसे शिरोधार्य नहीं किया, उसे सिर नहीं चढ़ाया।
शिव ने क्रोध किया था या कि वह उनकी तीसरी आंख खुलने का सहज परिणाम था? अलग-अलग पुराण इस प्रसंग का अलग-अलग वर्णन करते हैं।
स्कंदपुराण और शिवपुराण दोनों में देवता ही काम का इस कार्यार्थ आवाहन करते हैं।
ये वर्णन जावा/बाली के वर्णनों से इस रूप मे भिन्न हैं कि भारतीय वर्णन पाणिग्रहण संस्कार से पूर्व के हैं जबकि जावा/बाली में विवाहोपरांत हैं।
भारत में काम देवताओं द्वारा इस कार्य में नियोजित किये जाते हैं, जावा में स्वयं पार्वती उन्हें नियोजित करती हैं।
स्कंद पुराण में यह कथा यों कही गई है : “तब पार्वती जी के लिए देवताओं के मन में बड़ी चिन्ता हुई वे सोचने लगे - 'भगवान महेश्वर गिरिजा का पाणिग्रहण कैसे करेंगे?'
तब उन्होंने कामदेव का आवाहन किया।
आवाहन करते ही इन्द्र का कार्य सिद्ध करने वाला कामदेव अपनी पत्नी रति और सखा बसंत के साथ आया और देवसभा में देवराज के सम्मुख उपस्थित हो गर्वयुक्त वचन बोलने लगा – शचीपते, शीघ्र आज्ञा दीजिए, आज मैं आपका कौन सा कार्य सिद्ध करूं।
मेरा स्मरण मात्र करने से कितने ही तपस्वी अपनी मर्यादा से भ्रष्ट हो चुके है। इन्द्र ! मेरे बल और पराक्रम को आप अच्छी तरह जानते हैं।
शक्तिनंदन पराशर को भी मेरे पराक्रम का ज्ञान है। इसी प्रकार ये भृगु आदि बहुत अन्य ऋषि-मुनि मेरी शक्ति जानते हैं।
महान बल और पराक्रम से सम्पन्न क्रोध ही मेरा भाई है, हम दोनों ने संपूर्ण चराचर जगत् को परास्त किया है। सबको हमने मोह महासागर में डुबो दिया है। "
स्कन्द पुराण के इस विवरण में काम एक गर्व के भाव से आते हैं, उन्हें अपनी शक्ति का अहंकार है।
काम का यह अहंकार उन लोगों के विरुद्ध भी है जो अपने आध्यात्मिक अनुशासन के लिए जाने जाते हैं।
पराशर, भृगु का तो वे नाम ही गिनाते हैं, विश्वामित्र का नाम पता नहीं क्यों नहीं लेते? यानी काम sapiosexuality के एक दूसरे ही ध्रुव की बात कर रहे हैं।
वे यह नहीं कहते कि अत्यन्त बुद्धिजीवी लोगों के प्रति लोगों का आकर्षण होता है, वह यह कह रहे हैं कि बुद्धिजीवियों और ज्ञानियों को भी उन्होंने अपने सामने झुका दिया है।
बड़े-बड़े तपस्वियों का तप तोड़ दिया है उन्होंने।
तब क्या हुआ कि शिव महाज्ञानी हैं, तब क्या हुआ कि शिव महातपस्वी हैं।
काम तो इंद्र को भी कहते हैं कि वे उनके बल पराक्रम से सुविदित हैं। यानी देवेन्द्र और महादेव एक समान। स्वयं काम भी 'देव' ही हैं।
वे ल्यूसीफर या शैतान या डेविल नहीं हैं। वे जीवन के चार पुरुषार्थों में से एक के विग्रह हैं। वे 'सर्ग इच्छा का है परिणाम' वाले काम हैं। उन्हें 'ईविल' की तरह नहीं गढ़ा गया है।
वे देवताओं का कार्य पूरा करते हैं, दैत्यों का नहीं, उनके कारण असुरों पर मुसीबत आती है।
चूँकि असुरों का विनाश विधाता की रचना से, उसकी योजना, उसकी समयसारणी से होना है एक खास आनुवांशिक लाइनअप से,अतः काम की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है।
लेकिन स्कंद पुराण 'काम' की भाषा से ऐसा लगता है कि काम को गर्व भी बहुत हो चला है और यह भी कि क्रोध के साथ उसकी जुगलबंदी पर भी उसे खूब नाज़ है।
वह अलग बात है कि गीता में “कामात् क्रोधः अभिजायते" के रूप में काम क्रोध का पिता नज़र आता है, जबकि यहां स्कन्द पुराण में काम को क्रोध का भाई बताया गया है।
पता नहीं ये दोनों अपना भाईचारा निभाते हैं या नहीं, इतना तय है कि दोनों के रिश्ते हैं ही।
यह संभव है कि काम की पूर्ति न होने पर क्रोध उत्पन्न होता है। मधुसूदन सरस्वती ने इसी आधार पर काम और क्रोध के रिश्तों की चर्चा की है : ‘तस्मात्कामास्कुतश्चित्प्रतिहन्यमानान्तत्प्रतिघातकविषयः ऽ भिज्वलनात्माभिजायते।'
क्या हमें इस पूरे प्रसंग को पढ़कर नहीं लगता कि हम मनोविज्ञान/ मनोविश्लेषण के पहलुओं का पाठ कर रहे हैं? शिव काम की इन्हीं pedagogies और पूर्वाग्रहों का खंडन करेंगे।
यह जो उन्हें अपनी क्षमता पर गर्व है, फ्रायड और उनके अनुयायियों को भी इससे भिन्न गर्व है। काम के दावे बहुत सामान्यीकृत हैं।
शिव ही आगे जाकर उसे यौनिक आत्मपरकताओं (sexual subjectivitis) से परिचित करवाएंगे। यही आत्मपरकता कामदेव का मनोभव होना है। यदि यह आत्मपरकता न हो तो कितनी जल्द काम-कमोडिफिकेशन हो जाता, इसका अनुमान ही लगाया सकता है।
काम की अग्नि की महिमा होगी लेकिन शिव की तपश्चर्या की अपनी अग्नि है।
कामदेव को अभी उस रुद्र का सामना करना है जो अग्नि हैं, जिनकी तपस्या का अपना तप है और जिनके त्रिनेत्र की अग्नि और भी प्रखर है।
वह गांधारी या मुचकंद के नेत्र खोलने से भी कहीं ज़्यादा ज्वलनशील है। इन तीन अग्नियों के सामने काम की अग्नि की प्रभावशीलता की परीक्षा करनी है।
काम शिव की शक्ति का अवमूल्यांकन करता है पर होगा यह कि यही आग बड़वानल बनेगी। यह वह प्रलयाग्नि है जो समस्त खगोल में व्याप्त हो रही है।
यह शिवाग्नि काम को भस्म करके भी शांत नहीं होगी। शिव की अग्नि को शांत करने के लिए मंदिरों में शिवलिंग के ऊपर एक जलपात्र रखा जाता है जिससे बूंद बूंद जल गिरता रहता है।
काम की शक्ति का गर्वयुक्त कथन सिर्फ भौतिक या दैहिक शक्ति को ही नहीं बताता।
इसमें काम के मानसिक प्रभावों का उल्लेख है कुछ यों, “मेरा स्मरण करने मात्र से कितने ही तपस्वी अपनी मर्यादा से भ्रष्ट हो चुके हैं।"
यह कहने वाला काम एक प्रतिध्रुव के बारे में जानता है, काम- स्मरण।
राम-स्मरण के विरुद्ध काम-स्मरण।
तपश्चर्या में मानसिक संयम का अपना सौंदर्य है, काम-स्मरण में कुछ मानसिक छवियाँ बनती होंगी। फंतासियां।
एल्मर हुसैन लिखते हैं - और उनके लिखे से उस मर्यादा-भ्रष्टता को अधिक अच्छी तरह से समझा जा सकता है कि No society can reject the fact that sexual thoughts float through a man's brain, on average, many times each day. The reason lies in the design of male brain, which devotes two and a half times to sexual drives in comparison with female brain. Strict prohibition against emotional contact with her only trigger the sexual fantasy of the male brain, which in turn leads to sexual savagery and aggressiveness making discomfort both for the person himself and for others.
काम-स्मरण से तप-च्युति की शक्ति का अहंकार पूर्वक बयान करते समय कामदेव ये भूल जाते हैं कि यहां उनका पाला जिनसे पड़ने वाला है वे काम-स्मरण नहीं कर रहे, वे राम भक्त हैं और राम-स्मरण करते रहते हैं।
कहते हैं कि शिव ने राम-चरित्र का वर्णन सौ करोड़ श्लोकों में कर देवता, दैत्य और ऋषि मुनियों में उनका समान बंटवारा कर दिया।
एक श्लोक बचा उस पर भी ये तीनों झगड़ने लगे तो 32 अक्षर वाले अनुष्टुप छंद के दस-दस अक्षर उन्होंने इन तीनों में बांट दिये और शेष बचे दो अक्षर 'रा' और 'म' को उन्होंने किसी को भी देने से इंकार कर उन्हें अपने कंठ में धारण कर लिया।
लोगों को उनका कंठ में हालाहल धारण करना याद रहा, उनका यह राम नाम कंठ में धारण करना याद न रहा।
तुलसी बताते हैं, नाम प्रभाव जान सिव नीको/ कालकूट फलु दीन्ह अमी को। (1/19/8 रा.मा.) और तुलसी की निगाहों से यह राम-स्मरण और काम-स्मरण का भेद भी कैसे छिप सकता था, सो उन्होंने स्पष्ट कहा : तुम्ह पुनि राम राम दिन राती/सादर जपहु अनंग आराती। (1/108/4)।
कहते हैं कि चूंकि मुर्दा श्मशान तक ले जाते समय 'राम नाम सत्य है' का स्मरण किया जाता है, इसलिए शिव मुर्दे की भस्म अपने अंगों पर लगाते हैं।
सो भस्म के साथ काम कथा ही नहीं जुड़ी हुई है बल्कि, राम-कथा भी जुड़ी हुई हैं।
सो शिव जब काम-स्मरण कर ही नहीं रहे, तब कामदेव की गर्वोक्ति की कोई प्रासंगिकता ही नहीं।
वे क्रोध को अपना भाई बताने में गर्वित होते हैं, अभी उन्होंने शिव के रोषानल को भुगता कहाँ है?
( क्रमशः)
लेखक सेवानिवृत आईएएस हैं।
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