मनोज श्रीवास्तव।
स्कंद पुराण आगे बताता है कि "कामदेव के गर्वीले वचन सुनकर इंद्र ने उसकी पीठ ठोकते हुए कहा - वीरवर !
पूर्वकाल में तुमने जो जो कार्य किये हैं उनका किसी प्रकार वर्णन नहीं हो सकता। हम सब देवता तुमसे परास्त हो चुके हैं। मदन! तुम सदैव हमको जीतने में समर्थ हो।
इस समय देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिए तुम भगवान शंकर पर चढ़ाई करो ।महामते, ऐसी चेष्टा करो जिससे भगवान शिव पार्वती के साथ विवाह कर लें। “
यहां इंद्र भी कामदेव को चने के झाड़ पर चढ़ा रहे हैं लेकिन उसी के साथ एक महत्वपूर्ण बात यह कह रहे हैं कि देवता काम से परास्त हो चुके ।
यानी यदि काम एक पुरुषार्थ है तो देवता भी इसे निभाते हैं और यदि काम एक दोष है तो देवता भी उससे मुक्त नहीं हैं। देवत्व काम से मुक्ति नहीं।
काम पर विजय नहीं है। देवता के रूप में आपका स्वीकार तब भी है। देवत्व उत्कर्ष की अंतिम अवस्था नहीं है । वह कोई मध्यवर्ती अवस्था है, जिसमे काम से पराजय की गुंजाइश रहती है।
पर 'मॉरल ऑफ द स्टोरी' यह है कि चने के झाड़ पर देवता भी चढ़ायें तो न चढ़ना चाहिए ।
देवताओं के होने की अभिस्वीकृति बाइबल में भी है।
ऐसा लगता है कि बहुदेववाद से उनका वैसा इंकार नहीं था जैसा इन दिनों जताया बताया लाता है।
अन्यथा "who is like unto thee; O Lord among the gods? यह Among the gods there is none like into thee, O Lord, (Ex. XV, 11)" कहना संभव ही न हो पाता। ( Ps. IXXXVi,) और And the Lord God said. Behold the man is become as one of us (Gen., iii, 22) और न Ex. XXii, 28 का निदेश संभव होता : Thou shalt not revile the gods यह कथन भी कैसे संभव था कि The Lord is a great God, and a great king above all gods. Ps. SCV, 3, बहुदेववाद को माने बिना यह कैसे कहा जाता : The Lord is a great God and a great king above all gods. यह "great God" क्या महादेव का ही अनुवाद नहीं है?
यही बात जोहोवा को मानने वाले यहूदियों के साथ है। वे बाल, तम्मुच, केमोश, मोलोच आदि अन्य देवताओं को भी मानते थे। ये सब देवता अपनी अपनी कमजोरियों के साथ देवता हैं।
इस कथा में स्वयं देवता अपने ऊपर काम की जीत मान चुके हैं। वह सिर्फ सामर्थ्य की बात नहीं है कि “मदन ! तुम सदैव हमें जीतने में समर्थ हो" । बल्कि तथ्य की बात है कि हम सब देवता तुमसे परास्त हो चुके हैं।
Tsering Wangms Dhompa ने तिब्बती देवताओं के बारे मे लिखा : Power deities, for all their strength are very much like humans. They are subjects to periods of despair and are not free from the crippling consequences of emotions. देवता काम को भगवान शिव पर आक्रमण करने की सलाह देते हैं- यह तारकासुर के आतंक से उत्पन्न उनकी व्यग्रता (desperation) को दिखाता है।
अब स्कंद पुराण के अनुसार मदन अप्सराओं को साथ लेकर बड़ी उतावली के साथ चला। उसके मन में पिनाकपाणि पर विजय पाने की अभिलाषा जाग उठी थी।
रम्भा, उर्वशी, पुंजिकस्थला, सुकेशी, मिश्रकेशी, सुन्दरी तिलोत्तमा तथा इसी श्रेणी की अन्यान्य अप्सराएं वहां कामदेव के कार्य में सहायता देने के लिए आयीं । “प्राकृतिक वातावरण भी मनोरम हो गया।"
पुराण के शब्द ध्यान देने लायक हैं, शंकर के लिए यहां पिनाकपाणि शब्द का प्रयोग हुआ है। यानी एक तरफ “धनुर्धर कामदेव ने देवदार वृक्ष की छाया में बैठकर अपने धनुष पर पांच बाण चढ़ाये” और दूसरी तरफ पिनाकपाणि।
शिव का धनुष राम-सीता के बस की बात है, वह धनुष प्रलयंकारी है। वैसे धनुर्धर के सामने ये कोमल धनुर्धर काम।
और ये अप्सराओं की फौज शिव के सामने क्या सोचकर ले गये थे काम ? शिव क्या इतने लंपट हैं? या कि इनमें से हर अप्सरा की 'सेड्यूस' करने की अपनी शैली है?
इनमें से कोई राबर्ट ग्रीन के वर्गीकरण के अनुसार 'द सायरन' है, कोई 'द चार्मर', कोई 'द नेचुरल', कोई 'द डैंडी', कोई 'द करिश्मेटिक' है , तो कोई 'द स्टार'।
कामदेव अपने साथ ये पिकअप आर्टिस्ट्स लेकर चले ही क्यों ? लक्ष्य तो शिव के मन में पार्वती के प्रति अनुराग जगाना था। इन्द्र के निर्देश भी वही थे। तब क्या यह स्पष्टतः ब्रीफ का उल्लंघन नहीं था?
और कथा भी यह नहीं बताती कि इन अप्सराओं ने काम के साथ वहां जाकर किया क्या? काम को यह तो कहा नही गया था कि शिव को डॉन जुआन या केसानोवा बनाना है।
उन्हें इंद्र ने बस यही कहा था कि कुछ ऐसा करो कि शिव पार्वती से विवाह कर लें। क्या पार्वती के प्रति विशिष्ट प्यार उभाड़ने से पहले कामदेव स्त्री के प्रति एक सामान्य (General) प्यार उभड़ना चाहते थे जो इन अप्सराओं की भीड़ से तय होता।
पता नहीं, कैसी सोच थी? जो भी थी शिव के प्रति बहुत सम्मानजनक नहीं थी। ये कौन सी देहों की गूंज थी, जो काम शिव के कानों तक पहुंचाना चाह रहे थे।
काम के इन सारे प्रयासों से यही लग रहा था कि उसने अपने 'टारगेट' का, अपने 'गेम' का सही-सही अध्ययन नहीं किया है।
इस तरह की उकसाने वाली हरकतों का परिणाम वही होता हो होना था, जो हुआ। पार्वती जी का स्वयं का आकर्षण कोई कम है कि उन्हें सापेक्ष या तुलनात्मक उपस्थितियों का सहारा लेना पड़े?
ध्यान दें कि स्कंदपुराण के अनुसार "बसंत सहित कामदेव ने महादेव को जब अपने बाण से बींधने की इच्छा ही की थी, उसी समय परम मंगलमयी जगज्जननी गिरिजा अपनी सखियों के साथ पूजा करने के लिए सदाशिव के समीप आयी थीं।
वे चंद्रमा की किरणों के समान मनोहर थीं। उन्होंने नीलकंठ के कंठ में धतूरे के फूलों की माला पहना दी। इसी बीच में बसंत की सहायता पाने वाले कामदेव ने संमोहन नामक बाण से महेश्वर को बींध डाला।
बाण का आघात लगने पर शंकर ने धीरे से नेत्र खेलकर पार्वती की ओर देखा जो सम्पूर्ण मंगलों को भी मंगलमय बनाने वाली एक मात्र देवी हैं।
लोकपावनी गिरिराजनंदिनी की ओर दृष्टि डालते ही कामदेव ने उन्हें व्याकुल कर दिया, वे पार्वती के दर्शनमात्र से मोहित हो गए।”
कामदेव का यह 'इंजेक्शन' लगाना और पार्वती का वहाँ उपस्थित होना स्कन्द पुराण में साथ-साथ हुए हैं।
पार्वती प्रतिदिन शिव-दर्शन को आती थीं। इस बार लेकिन उनकी छव दूसरी थी। उनकी ढब दूसरी थी। यानी ‘संमोहन' नामक बाण का चुभना और शिव का मोहित होना साथ-साथ हुआ।
शिव की प्रतिक्रिया यहां द्विधात्मक बताई गई है। यहां शिव अपने मोहित होने पर प्रश्नाकुल हो गये।
वे अपने मनोविश्लेषण पर उतरते हैं, लेकिन जल्द ही जान जाते हैं कि इसमे कुछ इंजीनीयर्ड हैं, कुछ बहिर्भूत हैं। कथा इसे यों बताती है : फिर , सहसा अपनी स्थिति का ध्यान आते ही शिव के नेत्र आश्चर्य से खिल उठे। उन्होंने मन ही मन खेद प्रकट करते हुए कहा- मैं स्वतंत्र हूं, निविकार हूँ तो भी आज इस पार्वती के दर्शन से मोहित क्यों हो गया?
कहाँ से किससे और किसने मेरा यह अप्रिय कार्य किया है। तदनंतर शंकर ने सब दिशाओं की ओर दृष्टि दौड़ाई। उसी समय दक्षिण दिशा में कामदेव दिखलाई पड़ा जो हाथ में धनुष लेकर शिव पर प्रहार के लिए उद्यत था।
उसने चढ़े हुए धनुष को मंडलाकार कर रखा था और पुनः बाण संधान करके उन्हें बाँधना चाहता था। तब तक भगवान महेश्वर की रोषपूर्ण दृष्टि उस पर पड़ी। भगवान ने तीसरा नेत्र खोलकर उसकी ओर देखा।
देखते ही मदन आग की उठती हुई लपटों में घिर गया। "
शिव एक तपःपूत हृदय के स्वामी हैं इसलिए, सबसे पहले उन्हें अपने वैचारिक स्खलन पर ही खेद होता है। वे अपने भीतर के 'मैं' का साक्षात्कार करते हैं। यह सूरत उनकी तो नहीं थी। यह विकार और उनमें। ये कौन सा मोह का जंगल उनके अंदर छुपा था?
उनके जीवन के समतल में यह कैसा उच्चावचन है? उनके भीतर यह कशिश कैसे बाकी रह गई? वे तो अपनी धुरी पर स्थित थे।
वे कब से स्वतंत्र थे और अब यह उनका मन कैसे वशाधीन हो चला? रह रह के ये क्या जागता है हृदय में? कहां से? किससे? किसने?
सारी ‘क' प्रश्नातुरताएं उनके समक्ष आ खड़ी हैं और इनमें से किसी के लिए पार्वती को दोषी नहीं ठहराते।
ये कुछ बाहरी हवाओं का दबाब है? स्कंद पुराण के ही कुछ उदाहरण लें तो ये असमय में आकाश को आच्छादित करने वाली कोयलें कहां से आ गई हैं?
पहले तो न कौवे थे न कोयल। कोई कूक नहीं थी। ये मीठे गीत कहां से झूलने लगे हैं अधर में? यहां तो न चमगादड़ों के बगीचे थे और न पपीहा ही कुछ बोलता था।
एक निस्तब्धता सी थी। उस निस्तरंग में ये मधुर ध्वनियों की लहरियां कहां से चली आईं। कल तक बल्कि अभी थोड़ी देर पहले इतना चुप-चुप क्यों था? और अब क्या हुआ है? हो गया है?
( क्रमशः)
लेखक सेवानिवृत आईएएस हैं।
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