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शिव किसी निर्मित प्रेम में यकीन नहीं रखते थे-5

वीथिका            Feb 14, 2023


मनोज श्रीवास्तव।

क्या वह सन्नाटा इन आवाज़ों का पर्दा था? ये किसने पर्दा हटा दिया है? ये अशोक, चंपा, आम, जूही, कदंब, चिरौंजी, अमलतास, चमेली, अंगूरलताएं, नागकेसर वृक्ष हरे-भरे और फले-फूले कैसे दिखने लगे?

ये सब ऐसे आ गये जैसे पाहून आ गये हों बहुत-सारे, जैसे बहुत से दोस्त आ धमके हों किसी पढ़ाकू दोस्त के घर में। ये उनकी शाखों की जुम्बिश, ये उनके फूलों की खुशबू,  कलियां कवियों को कविता सुनाती हुई। फूलों के पहलू सोती हुई शबनम।

शिव को पार्वती पर शक नहीं होता जबकि उसका आना भी ऐसा ही हो सकता है।

ऐतबार साज़िद की ग़ज़ल-

फूलों में वो खुशबू वो सबाहत नहीं आई,

अब तक तिरे आने की शहादत नहीं आई ।

पार्वती शिव के पास पहले भी आती रही हैं,  प्रतिदिन आ रही हैं इन दिनों,  तब तो यह सब इतना बदला-बदला नहीं लगा।

शिव की तपस्या के साथ-साथ पार्वती की यह तपस्या भी चलती रही कि वे उनकी तपस्या भंग न होने देंगी। जिसे वे इतना चाहती हैं, उसे वे उसके संकल्प के साथ ही चाहती हैं, चाहती रहेंगी।

अन्यथा कामदेव यहां प्रकृति के ‘दृश्य' दिखा रहा है, उधर पार्वती प्रकृति के 'दर्शन' पर शिव से बहस कर उन्हें इतना प्रभावित तो कर चुकी हैं कि शिव ने उन्हें प्रतिदिन अपनी सेवा करने की अनुमति दे दी है।

दरअसल शंकर ने हिमवान् को मना कर दिया था कि वे पार्वती को लेकर उनके पास न आया करें।

जब हिमवान् ने उसका कारण पूछा तब शिव ने हँसते हुए कहा था कि “यह कुमारी सुंदर कटि-भाग से सुशोभित पतले अंगों वाली तथा मृदु वचन बोलने वाली है। अतः मैं तुम्हें बार-बार मना करता हूं कि इस कन्या को मेरे समीप न लाना"।

इसका अर्थ यह है कि पार्वती ने अपने सौंदर्य और अपनी वाग्मिता से शिव को विचलित करना शुरू तो पहले से ही कर दिया था और यह स्वाभाविक प्राकृतिक बात थी लेकिन शिव उसे नकार रहे थे।

पार्वती ने इसी कारण शिव से कहा था " आप जैसे महात्मा के मन में जो यह विचार उत्पन्न हुआ है, वे केवल इसलिए कि यह तपस्या निर्विघ्न चलती रहे।

परंतु मैं आपसे पूछती हूँ - आप कौन हैं और यह सूक्ष्म प्रकृति क्या है? महादेव बोलते हैं कि "सुंदरी मैं उत्तम तपस्या के द्वारा ही प्रकृति का नाश करता हूं।

प्रकृति से विलग रहकर अपने यथार्थ स्वरूप में स्थित होता हूँ। इसलिए सिद्धपुरुषों को प्रकृति संग्रह कदापि नहीं करना चाहिए।"

तब यह "मृदुभाषिणी” कही गई पार्वती कहती हैं "शंकर! आपने जिस उत्तम वाणी द्वारा जो कुछ भी कहा है, क्या वह प्रकृति नहीं है? फिर आप प्रकृति से अतीत कैसे हैं?

मेरी यह बात सुनकर आपको तत्व का यथार्थ निर्णय करना चाहिए। यह संपूर्ण जगत् प्रकृति से बंधा हुआ है। प्रभो ! हमें वाणी द्वारा विवाद करने से क्या प्रयोजन ?

आप जो सुनते है, खाते हैं और देखते हैं, वह सब प्रकृति का ही है । प्रकृति से परे होकर आप इस समय इस हिमालय पर्वत पर तपस्या कैसे करते हैं? प्रकृति से आप मिले हुए हैं, क्या इस बात को नहीं जानते?

आप प्रकृति से परे हैं और आपकी यह बात सत्य है तो भी आपको अब भय नहीं मानना चाहिये । "

यह एक उच्चस्तरीय संवाद है,  बहुत से संकेतार्थों से भरा।

महाभारत के भीष्म पर्व में श्रीमदभागवत गीता पर्व के अंतर्गत 37वें अध्याय की और सांख्य दर्शन की याद दिलाता हुआ।

यहां पार्वती ईश्वर की अनादि सिद्ध मूल प्रकृति बात कर रही हैं,  वे गीता की तरह त्रिगुणात्मक संपूर्ण पदार्थों में प्रकृति देखती हैं।

कार्य और करण को उत्पन्न करने में जो हेतु हैं- आकाश, जल, वायु, अग्नि और पृथ्वी, यह पांचों सूक्ष्म महाभूत स्पर्श, ये पांचों इंद्रियों के विषयों का वाचक कार्य।

बुद्धि, अहंकार और मन और ये तीनों अन्तः करण घाण, श्रोत्र, नेत्र, रसना और त्वचा - ये पांचों इंद्रिय रस, रूप, गंध, श तथा हस्त, उपस्थ, वाक, पाद व गुदा - पांचों कर्मेन्द्रियों का वाचक ।

 यहां 'करण' है। ये तेईस तत्व प्रकृति से उत्पन्न हैं। सांख्यकारिका भी यही कहती है। बस वहां एक आत्म (पुरुष), 3 अंतःकरण, 5 ज्ञानेन्द्रियाँ, 5 कर्मेन्द्रियां, 5 तन्मात्राएं और 5 महाभूत मिलाकर 24 तत्व है।

पार्वती के द्वारा शंकर को इस बात के लिए कन्विंस कर लेना ही उनकी बड़ी सफलता थी क्योंकि अब शिव उन 'साधुभाषिणि को प्रतिदिन सेवा करने की अनुमति दे देते हैं।

यह एक बड़ी ओपनिंग थी और धीर-धीरे पार्वती शिव को मना ही लेतीं लेकिन, देवों की अधीरता और कामदेव के गर्व ने मामला बिगाड़ दिया।

कामदेव की प्रकृति एक आयोजन का हिस्सा है, पार्वती जिस प्रकृति की बात कर रही थीं वह तात्विक है।

कामदेव ने 'प्रकृति' को अपनी तरह से 'रिअरेंज' किया है इसलिए शिव पार्वती को कुछ भी नहीं कहते। उनमें और कामदेव में बहुत फर्क है। वे शिव बौद्धिक रूप से भी एंगेज करती हैं। कामदेव जिस तरह से संवेग को 'इंजेक्ट' करते हैं, वह एक तरह का 'क्विक - फिक्स' सोल्यूशन है। उसमें भावनाओं के क्रमशः विकास को कोई स्थान नहीं है।

 प्रेम साहचर्य से भी विकसित होता है, लेकिन कामदेव उस लुत्फ को नहीं जानते,  उन्हें तो अपना 'टास्क' निपटाकर घर जाने की जल्दी थी।

कहाँ उन्हें एक ही टारगेट पर इतना वक्त लगाने की फुर्सत है।

क्या वह शिव से इतना डरते भी थे कि तुरत-फुरत अपना काम निपटाकर बिना अपने पांवों के निशान छोड़े निकल लेना चाहते थे।

या पार्वती के प्रेम और कामदेव के काम में यही अंतर था कि प्रेम इंतजार करना जानता है, काम को अधीरता रहती है।

पार्वती के पास प्रार्थना है। कामदेव के पास प्रभुसत्ता। पार्वती धूप हैं, काम बाण है। पार्वती दीपक हैं रातभर जलता हुआ, काम बुलबुला है। पार्वती तर्क करती हैं, काम कोई आर्ग्युमेंट सहन नहीं करता।

ऐसा नहीं कि प्रेम में काम नहीं होता, लेकिन यह है कि प्रेम काम की तरह अहंकार में नहीं होता।

वह उस मीठे से अहसास में भी होता है, जिसके तहत शिव (प्रिय) पार्वती को देखकर इतना तो विचलित महसूस करते हैं कि उनके पिता को मना कर दें उन्हें उनके पास लाने के लिए। एक मीठी-सी मुस्कान तो खिल ही गई होगी पार्वती के मन में शिव की इस मनाही से।

यानी वे शिव के मन में एक मरोर तो पैदा कर ही रही हैं।

 उस वर्जना, उस निषेध का मतलब ही यह है कि उन्होंने शिव को इतना प्रभावित कर ही लिया है।

यह कोई जन्मजात आकर्षण पार्वती के व्यक्तित्व में है कि शिव स्वयं को उसके वृत्त में खिंचता पाते हैं।

पार्वतीजी के मन में अपने प्यार की पवित्रता को लेकर इतना आत्मविश्वास है कि उन्हें अपनी निर्योग्यता (unworthiness) का ख्याल तक नहीं आता, जैसे एक भक्त को भगवान के सामने आता है।

वे शिव से ये नही कहतीं कि मैं इस योग्य नहीं हूँ बल्कि उनके प्रश्नोत्तर तो ये बताते हैं कि वे अप्रत्यक्षत; कह रही हैं कि मैं क्यों नहीं?

शिव जिसे प्रकृति संग्रह कह रहे हैं, वे उसे स्वाभाविक मानती हैं और उसके प्रति लज्जित भी नहीं हैं, संशयग्रस्त भी नहीं।

उन्हें कहीं अपने मूलस्वरूप का भी भान है जिसमें शिव पुरुष हैं और वे प्रकृति।

मनोवैज्ञानिक रूप से देखें तो शिव-पार्वती चर्चा के मायने यह हैं कि शिव अपनी सहजवृत्तियों (natural instincts) के प्रति संकोच में भर रहे हैं, पार्वती उन्हें उस अपराध-बोध से मुक्त कर रही हैं।

ध्यान दें कि काम डर रहा है, इसलिए वृक्ष या शिला के पीछे से शर-संधान कर रहा है, लेकिन पार्वती नहीं डर रहीं। प्रेम निर्भय है, काम में भय है।

पार्वती को 'रिजेक्शन' का भी भय नहीं है,  वे शिव के निषेध के भीतर का माधुर्य समझती हैं। वह 'रिजेक्शन' नहीं है, वे जानती हैं।

काम कायर है,  इसलिए उसका प्रहार परोक्ष है। प्रेम आक्रमण नहीं है, अनुरोध है। प्रहार नहीं है, प्रार्थना है।

( क्रमशः)

लेखक सेवानिवृत आईएएस हैं।

 

 



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