मनोज श्रीवास्तव।
अलबत्ता कामदेव शिकायत कर सकते हैं। ताजवर नजीबाबादी के शब्दों में - 'उफ वो नज़र सो सबके लिये दिल नवाज है/मेरी तरफ उठी तो तलवार हो गई’।
पार्वती को शिव-दृष्टि से ऐसी कोई शिकायत नहीं है, वे तो चाहती है कि शिव उनको नजर भरके देख लें। वे कब से इन अहल-ए-नजर का इंतजार कर रही हैं।
वो नजर जो उनके लिये चराग-सी है, उसने कामदेव को जला के रख दिया है, अब इच्छा की भस्म में हाथ भी डाला गया तो शोला निकलेगा।
इच्छा राख की जा सकती है, किन्तु तपस्या स्वयं ही अग्नि है, इच्छा झुलसा देती है किन्तु तपस्या पिघला देती है।
फिर भले ही पार्वती की तपस्या और चलनी हो, कोई मलाल नहीं उन्हें, वे ये कोशिश भी करके देखेंगी, लेकिन इस लौ को नहीं बुझा सकता कोई जो उनके मन में है।
सती के रूप में वे मर चुकी हैं तो पार्वती के रूप में जिंदा रहना उन्हें आ गया है।
काम पर नहीं, उन्हें स्वयं पर विश्वास है।
यह उनके प्यार का अपमान ही था, जो देवताओं ने भी उसे काममूलक समझा, पार्वती का रोमांस उनका अध्यात्म है, उनका रहस्यवाद है, जिसके रहस्य को वे अपने वर के साथ अनुभूत की जाने वाली अंतरंगताओं में ही जानेंगी, उसकी भौतिकताओं में नहीं।
देवताओं को तारकासुर के उत्पातों के कारण बस एक शीघ्रातिशीघ्र बायोलॉजिकल रिजल्ट ही चाहिये तो वे काम के रूप में अपना क्विक-फिक्स तैयार कर ले आते हैं।
पार्वती की तपस्या उस प्यार का प्रतीक हैं जिसने धीरज खोना नहीं सीखा है।
देवताओं की अधीरता समझी जा सकती है, सती के योगाग्नि में भस्म हो जाने से उनका प्रोजेक्ट वैसे भी काफी विलंबित हो चुका है।
इस बीच तारकासुर के अत्याचार बढ़ते गये हैं, लेकिन भले ही देवता उतनी संख्या और सौंदर्य में हों जितने आकाश में सितारे, पर यह भी सच है कि ये उन्हीं की असावधानियां हैं, जो तारकासुर संहार में विलंब पैदा कर रही हैं।
जब सती दक्ष यज्ञ में अपने पिता के द्वारा अपमानित हो रही थीं, तब देवताओं को तुरत हस्तक्षेप करना और मुखर् होकर दक्ष को सावधान करना था, लेकिन वे तो बाद में आये क्रुद्ध शिवगणों से भी युद्ध करते रहे। रुद्र के गण उन देवताओं के अंग-भंग भी कर देते हैं।
जिस शिव का पुत्र उन्हीं के काम के लिये जनमना है, उसी के गणों से युद्ध करने की मूर्खता क्या दक्ष के सत्कार का प्रतिदान थी?
फिर जब पार्वती- शिव के युगल का संग-प्रसंग होने को है, तब ये बड़ी जल्दबाजी दिखा रहे हैं और प्रेम का प्रतिस्थापन काम से करना चाहते हैं।
तब भी शिव-शक्ति की अवमानना थी, अब भी है।
अब स्कंद पुराण की कथा में ही आगे चलते हैं । अब कामदेव को भस्म होते देख देवताओं में बड़ा हाहाकार मच जाता है । "देवता बोले- देवदेव ! महादेव! आप देवताओं को वर दीजिये। हमने ही गिरिराजनंदिनी पार्वती की सहायता के लिये कामदेव को यहां भेजा था । उसका कोई अपराध नहीं था। आपने महातेजस्वी काम को व्यर्थ ही दग्ध किया है। विश्व के एकमात्र बंधु शिव! आपको अपने उत्कृष्ट तेज से इस समय देवताओं का कार्य सिद्ध करना चाहिये। शंभो ! आपके द्वारा इस पार्वती के गर्भ से जो पुत्र उत्पन्न होगा उसी से हमारा सब कार्य सिद्ध होगा। महादेव! तारकासुर ने हम सब देवताओं को बहुत सताया है। उसके भय से हमारी रक्षा करने के लिये इस कामदेव को जीवनदान दें। आप पार्वती जी का पाणिग्रहण करें महाभाग ! देवताओं का कार्य सिद्ध करने में आप अपनी शक्ति लगावें... भगवन ! यह कामदेव देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिये आया था। यह हमारे उपकार में संलग्न रहा है। अतः आपको इसकी रक्षा करनी चाहिये।"
यह भारतीय दृष्टि को परिभाषित-सी करने वाली बात है। यहां 'काम' को देव कार्य में लगा बताया गया है। ईसाइयत में काम (temptation) का परिप्रेक्ष्य दूसरा है।
वहां Temptation is an invitation from the devil not just to turn away from God, but to deny who and what God is. वहां काम का मतलब है : to disobey God's revealed Word. शैतान ने सबसे पहले सांप के रूप में आदम और ईव को ललचाया था। जेम्स 1:13 में कहा गया- When tempted, no one should say, God is tempting me. For God cannot be tempted by evil, nor does he tempt anyone."
इधर भारत में काम स्वयं एक देवता हैं और देवताओं का कार्य सिद्ध करने में लगे रहते हैं। जैसे हनुमान राम कार्य में लगे रहते हैं, वैसे काम-कार्य देवानुसार है। कामदेव इस हेतु अपनी जान की बाजी भी लगा देते हैं।
उनकी लक्ष्यनिष्ठता भी कम नहीं है, भले ही तौर तरीके पुराने हो, घिसेपिटे हों, उसमें हनुमान की तरह वह मौलिक सोच नहीं हो जो सुरसा का सामना करने में दिखाई दी थी।
कामदेव ये नहीं समझ पाये कि प्यार में फार्मूले काम नहीं आते। प्यार में तो दोनों के बीच सीधे रिश्ते होते हैं और उसमें दोनों एक-दूसरे को उसका अवकाश और उसका आकाश देते हैं। यह कोई ऑफिस मीटिंग नहीं है कि इसमें बसन्त का, फूलों का, अप्सराओं का (पावर प्वाइंट) प्रेजेन्टेशन किया जाये।
यह विश्वामित्र-मेनका जैसा मामला नहीं है जिसमें किसी अप्सरा का असर हो जाये।
यहां जिन पार्वती की बात है, वह अपनी तरह से शिव से पूर्व-परिचित हैं और उनको यह भी पता है कि शिव के निषेध और अनुमति दोनों के पीछे क्या प्रेरण है।
कामदेव पुराने फार्मूलों से नये समाधान प्राप्त करना चाह रहे थे। लेकिन कार्य तो देवों का ही करना चाह रहे थे। तारकासुर के अत्याचार से विश्व पीड़ित था।
कामदेव से अकेले इन्द्र ने नहीं, सब देवताओं ने आग्रह किया था, ठीक है कि रामकाज न था, कामकाज था। लेकिन था तो परहित का कार्य।
काम को सांप की तरह न देखकर देवता की तरह देखने में शायद यही भाव है कि उससे भी परहित सधता है।
जिससे सृष्टि की कोई मांग पूरी हो रही हो, जिससे सृष्टि का उपक्रम चल रहो हो, उसे ईश्वर से प्रतिकूल कैसे माना जा सकता है?
क्या यह वही बात नहीं है जो बच्चन ने इन शब्दों में व्यक्त की :
यदि प्रणय जागा न होता इस निशा में/सुप्त होती विश्व की संपूर्ण सत्ता/ वह मरण की नींद होती जड़-भयंकर/और उसका टूटना होता असंभव/प्यार से संसार सोकर जागता है/इसलिये है प्यार की जग में महत्ता/हम किसी के हाथ के साधन बने हैं/सृष्टि की कुछ मांग पूरी कर रहे हैं/ हम नहीं अपराध कोई कर रहे हैं।
धर्मवीर भारती ने भी लिखा : अगर मैंने किसी के होंठ के पाटल कभी चूमे/अगर मैंने किसी के नैन के बादल कभी चूमे/महज इससे किसी का प्यार मुझ पर पाप कैसे हो/महज इससे किसी का स्वर्ग मुझ पर शाप कैसे हो।
इसलिये यहां के कामदेव की तुलना वहाँ के ल्यूसीफर से करना ही ग़लत है।
लेखक सेवानिवृत आईएएस हैं।
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