मनोज श्रीवास्तव।
ल्यूसीफर तो निषिद्ध फल खाने के लिए उकसा रहा था।पर यहां कामदेव वह कर रहे थे या करवा रहे थे जो देर सबेर विधि के विधान में और देवताओं के आग्रह में था। जिस 'सर्प' को इतना खलनायक गार्डन ऑफ ईडन में बताया गया है, वह सर्प भी भारत में आदर ही पाता है। वह शिव का आभूषण है।
वहां भी सर्प ने किया क्या था ? ज्ञान के वर्जित फल को चखने से मना करना । एक भी 'बाइट' तब मना थी आज एपल की एक 'बाइट' तो कितने मोबाइल/लैपटॉप पर है। क्या भगवान बौद्धिक उत्सुकताओं को वर्जित करेगा?
गीता में भगवान ज्ञाता को सभी भक्तों में श्रेष्ठ बताते हैं।
वहां ज्ञान से अमृत की प्राप्ति बताई गई है। वे कहते हैं : ज्ञानं लब्ध्वा परा शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।।
यानी ज्ञान को प्राप्त होकर वह बिना बिलंब के - तत्काल ही भगवत्प्राप्ति रूप परम शांति को प्राप्त हो जाता है।
एडम इसे सुनता तो कहता कि कौन सी शांति ? यहां तो धक्के देकर ईडन से बाहर निकाल दिया गया और भगवत्प्राप्ति की जगह भगवान से बिछुड़ गये ?
उस प्रसंग में 'आदम' और 'ईव' की सेब खाने के बाद पहली प्रतिक्रिया शरीर संज्ञान (bodily cognition) की है, जबकि शिव कामदेव को भस्मसात् कर अनंग बना देते हैं।
या कहीं एक बिन्दु यह तो समन्वय का नहीं कि ईश्वर (की 'ब्रीफ') को अधिलंघित नहीं करो।
जो कामदेव ने किया, वह महादेव का अधिलंघन था और जो एडम ने किया वह ईश्वराज्ञा का । सो एक जल गया और दूसरा गिर गया।
एक का सबक यह कि 'ईश्वर' को कमांड नहीं भेजी जा सकती, एक का यह कि ईश्वर की कमांड की अवज्ञा नहीं की जा सकती।
यह कहा जा सकता है कि वास्तव में कामदेव कोई बौद्धिक काम नहीं कर रहे थे। वे तो सेंसरी सिस्टम को संवेदन-तंत्र को, प्रभावात्मक (affective) तरीके से जीतना चाह रहे थे।
जब शिव ने काम को दग्ध किया तो उन्हें उन्होंने मनसिज/मनोज/मनोभव बना दिया। अब आज यदि सिंगापुर की सेक्स थिरेपिस्ट टैमी फोंटना कहती हैं कि सबसे महत्वपूर्ण सेक्स आर्गन 'माइंड' है तो इस परिप्रेक्ष्य को समझा जा सकता है। गुडविल, अपने पार्टनर से संतोष, सहयोग, तालमेल (compatibility), सम्मान यह सब, उनके विचार से, ब्रेन या माइंड से ही चलते हैं और ये ही यौन-सम्बन्धों को सफल बनाते है ।
मन की अप्रसन्नता शरीर में प्रतिबिंबित होती है। सो यह मनस्तरंग मिलने देने का इंतज़ार किए बिना काम का हस्तक्षेप किसी मतलब का नहीं।
काम शायद उस प्रक्रिया का द्रुतधावन (acceleration) करना चाहते थे, उसका परिणाम स्वयं काम के लिए ही विनाशकारी सिद्ध हुआ।
लेकिन यह 'काम' भी नेक दिल हो सकते हैं, देवता यही बात शिव से कहते हैं। भलाई का बदला भला ही होना चाहिए था, हुआ नहीं।
काम ने तो सबकी भलाई में ही अपनी भलाई देखी थी, उनका कोई कसूर न था और उन्होंने यह भलाई भी बे-गरज होकर की थी।
सो जिस काम पर ये लोग बदचलनी को प्रोत्साहित करने का आरोप लगाते हैं, उसी काम की नेकचलनी की सब देवता गवाही दे रहे हैं।
क्या शिव काम से ज्यादा स्वयं पर क्रोधित हो गये कि जिसमें काम निपट गये ? क्या शिव को लगा कि काम उन्हें उनकी स्वर्गीया पत्नी के प्रति ‘अनफेथफुल' समझते हैं?
या क्या शिव को यह लग रहा है कि कहीं वह फिर से तो नहीं होगा, फिर से तो नहीं खो जाएगी उनकी यह मासूम आकांक्षिणी?
काम क्या यह समझ रहे हैं कि ये शिव भूतनाथ हैं तो यह एक 'प्रेत' को जिंदा रखे हुए हैं।
सती जो उनके पिता के कहे अनुसार 'प्रेतलोक' में चली गई हैं, क्या यह 'कीपिंग द डेड अलाइव' अपने आप में एक कड़वे यथार्थ से पलायन है?
इतने युगों से, शिव सती की स्मृतियों के साथ अकेले हैं कि उनकी भूतजीविता ने उन्हें एक अलग तरह से भूतनाथ बना दिया है।
क्या काम ने शिव को यह बताया कि 'बहारें फिर से आयेंगी?' वो लेकर आये हैं। बसंत को।
लेकिन शिव सती के साथ गुज़रे अपने विगत को इतने idealize किये बैठे हैं कि वे मासूम पार्वती के निश्छल प्रेम के प्रति उदासीन रहने की कोशिश कर रहे हैं।
शिव नहीं चाहते उस नवागत प्रेम को concretize करना।
काम को भस्म में बदल देना, उसे मानसिक या अमूर्त कर देना उसे प्लेटोनिक बना देना है। Platonic love is not defined by bodily attraction सो काम का शरीर नष्ट कर दिया गया है।
लेकिन प्लेटोनिक लव से कुमार संभव नहीं होंगे। शिव और पार्वती अभी भी एक 'कपल' नहीं है। युगल नहीं है। लेकिन वे एक स्त्री और एक पुरुष भी नहीं रह गये हैं - दोनों के बीच उससे कुछ अधिक है।
एक तरह की पारस्परिक सराहना (mutual admiration) है। लगता है कि शिव उससे आगे नहीं बढ़ना चाहते। पार्वती समझती हैं अपने 'भूतनाथ' को । Molly Ringle के शब्द याद आते हैं : Ah, mate. My soul loves yours. It does. But this lifetime, my body won't get on board. इसलिए काम की 'देह' भस्म हो गयी। यानी शिव पार्वती के रिश्तों के विकास क्रम की यह एक स्टेज है जिसे इस बहुबिंबी रूपक के जरिए दिखाया गया है।
सती की मृत्यु के बाद, पता नहीं पर, जिसे लोगों ने तपस्या कहा, वह तपस्या थी या शिव का अकेलापन ? होक्स एवं राहे स्केल जो जीवन की सबसे ज्यादा तनाव-दबाव वाली घटनाओं (life's most stressful events) को नापता है, के अनुसार जीवन-साथी की मृत्यु सबसे ज्यादा अवसाद पैदा करने वाली होती है। शिव को उसके साथ सती की मृत्यु-पूर्व का वह सारा घटनाक्रम, जिसमें उनके द्वारा सती को मन ही मन त्याग देने से लेकर, सती को दक्ष-यज्ञ में जाने से न रोक पाने से लेकर, सती द्वारा अपने पति/शिव की प्रतिष्ठा को लेकर दांव पर लगा देने की बातें हैं, विशेषकर और भी अवसाद पैदा करने वाला लगा होगा।
क्या तो वे खा पाते होंगे। क्या तो वे सो पाते होंगे। ध्यान लगाने की कोशिश भी करते होंगे तो भी मन का क्षोभ न जाता होगा। 'मेरो सब पुरुषारथ थाक्यो' जैसी भावनाएं उमड़ती होंगी।
ब्रह्मा के साथ सावित्री रही आईं, विष्णु के साथ लक्ष्मी भी रही आईं। सिर्फ शिव के साथ उनकी जीवन-संगिनी को बिछुड़ना था। उसके जाने से पहले उससे माफी मांगने का मौका भी न मिला। वह उनकी दुनिया से बिना बोले ही चली गई।
एक अपराध भाव सा है जिसे शिव किसी से नहीं कहते। जिसे बिना कहे भी सिर्फ एक शख्स समझता है पूरी दुनिया में। वो हैं पार्वती जो स्वयं सती का ही पुनर्जन्म हैं।
शिव यदि इतने स्वतंत्र इतने निर्विकार होते कि वे इन सब भावों-अभावों-प्रभावों के पार होते तो वे सती की मृत्यु पर इतने उन्मत्त भी नहीं होते, इतने क्रोधावेश में भी नहीं आते। क्रोध तो, जैसा हमने स्कंद पुराण के इस प्रसंग के काम-कथन में देखा, काम का भाई है।
वह शिव में क्या कर रहा है? इसलिए शिव की निर्विकारता का अर्थ उनका पाषाण होना नहीं है। उन्होंने लोगों से मिलना जुलना बंद कर दिया, पाषाण जैसा चेहरा बनाए रखे, देवताओं के किसी क्लब में नहीं गये तो उनके स्वतंत्र और निर्विकार होने की और पुष्टि हो गयी। सती-सी पत्नी हो तो उसका जाना जिंदगी को हिलाकर न रख देगा?
शिव इतने लंबे समय तक सती की स्मृतियों के साथ जिये हैं कि सती के प्रति उनके प्यार की भावना सती की भक्ति में बदल गयी है। लेकिन भक्ति भक्ति है, प्यार का प्रतिस्थापन प्यार से ही होता है।
पार्वती उसी शून्य को भरने आई हैं।
शिव ने काम को तब नहीं जलाया था, जब सती से उनका विवाह होने को था। उसे तब जलाया जब पार्वती-प्रसंग उपस्थित हुआ।
यह इसी कारण हुआ क्योंकि शिव के मन में पार्वती की भावनाओं का आदर करने वाली मृदुलता तो थी, बस उसकी शारीरिकता के प्रति एक विरोध था।
वे उसे प्लेटोनिक ही रखना चाहते थे, प्लेटोनिक प्यार उन व्यवहार्यताओं को पूरा नहीं करता जिन्हें देव-समुदाय महसूस कर रहा है।
शिव से एक संतति चाहिए है, तारकासुर ने सती के साथ कैसी चालें खेली थीं, यह हम पूर्व में देख चुके हैं।
सती के प्रतिशोध का मिशन अधूरा है, देवता उसकी पूर्ति चाहते हैं, पर इसका क्या करें?
यह जो शिव के मन में प्रेम की शारीरिकता के खिलाफ एक जहर भर गया है। क्या यह उसी 'गिल्ट' का एक्सटेंशन है जो सती द्वारा सीता का 'रूप' रख लेने से हुआ था? तभी से 'फार्म' के प्रति शिव को एक विरति हो गई?
काम का 'फार्म' भी इसी कारण उन्होंने भस्मसात् कर दिया? सती की देह को हाथ न लगाऊंगा क्योंकि उन्होंने जगत्वंद्या सीता का रूप धार लिया।
हालात बिगड़ते बिगड़ते यहां तक पहुंचे कि शिव को सती की भस्म मिली। अब वे काम को भस्म बना दिये हैं। वे सती को श्मशान तक न ले जा सके लेकिन उनके भीतर का श्मशान अभी ज़िन्दा है।
एक पार्वती ही हैं जो उन्हें इस श्मशान से मुक्त कर सकती हैं।
लेखक सेवानिवृत आईएएस हैं।
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