मनोज श्रीवास्तव।
सती के समय काम को न जलाने और अब पार्वती के समय शिव के द्वारा काम को जलाने का अर्थ यह है कि एक पारिस्थितिकी काम कर रही है। शिव सदा कामशत्रु न थे।
अब संदर्भ बदल गया है। इस प्रसंग में वे हैं और काम का denial कर रहे हैं। बल्कि परिस्थिति से भी ज्यादा उनकी मनः स्थिति ऐसी है। हो गई है।
हालांकि पार्वती की 'टेक' और दूसरी है। वे कहती हैं कि तुम्हरे जान काम अब जारा/अब तक संभु रहे सविकारा/ हमरे जान सदा शिव जोगी/ अज अनवद्य अनादि अभोगी ।
और वे जानती हैं कि अभी से नहीं, सती से विवाह के पूर्व भी उनके शिवजी के यही हाल थे। तब भी इनके यही नखरे थे। तब भी वे अपने दुर्गुण पहले गिनाते थे। तब भी वे अपनी अव्यवहार्यताएं और अनुपयोगिताओं को शुरू में ही बता देते थे। लेकिन सती के हृदय को, स्त्री हृदय को ये ही उच्छृंखलताएँ ही अच्छी लगती थीं। प्यारा-सा बदमाश। सती को भी पर वही करना है-पता नहीं क्यों उसे प्यार करना जो भावनात्मक रूप से अनुपलब्ध (emotionally unavailable) है।
फिर धीरे-धीरे उसे रास्ते पर लाना। उसे 'इंसान' बनाना। वे उनकी इतनी प्रतीक्षा कर चुकी होती हैं, उनमें अपने संवेगों का इतना निवेश कर चुकी होती हैं कि वे उस पत्थर को पिघलाये बिना लौटने का सोच भी नहीं सकतीं। वे क्या कहीं यह जानती हैं कि यह जो ऊपर से जितना रूखा सूखा है, एक बार इसने अपने ‘गार्ड्स' हटाये तो इसके भीतर से प्यार का छलछलाता उत्स्रोत फूटेगा।
क्यों वे उसे प्यार करती हैं जो इस दुनिया के प्रतिमानों पर 'फिट' नहीं होता?
क्या शिव ने अपनी तरफ़ से ही ये 'रेड फ्लैग' पहले सती को नहीं बताये थे? लेकिन तमाम चेतावनियों के बावजूद शिव के swagger का आकर्षण है ही ऐसा कि न सती रुक पाती हैं, न पार्वती।
शिव के साथ एक एडवेंचर है। एक थ्रिल है, एक उत्तेजना है। यह कुछ ऐसा है जैसे हो यह living on the edge. सती और पार्वती दोनों स्वयं भी 'स्ट्रांग' व्यक्तित्व हैं । इसलिए शिव जैसा व्यक्ति जिसको 'काम' के हिसाब से बहुत ऊंची रेटिंग दुनिया के लोग दें न दें, अपने रहस्य (मिस्ट्री) और खतरे (Danger) जैसे प्रत्ययों के चलते सती/पार्वती द्वारा पसंद किया जाता है।
शिव ने 'काम' के सारे अलंकरणों से अपने को हमेशा मुक्त रखा। कोई उन्हें चाहे न चाहे, उसकी बला से। शिव परवाह नहीं पालते काम के 'नार्म' की। ये चीजें उनके भीतर कोई तरंग पैदा नहीं करतीं। वे चाकलेटी सूरत लिये नहीं घूमते । बल्कि सांप को गले में धारण किये हुए हैं।
जो शिवपुराण में देवताओं के समक्ष स्वयं को सती का उचित वर न बताते हुए "सदा अपवित्र और अमंगलवेशधारी" के रूप में अपना वर्णन करते हैं, तुलसीदास की पार्वती उन्हें "सदाशिव" कहती हैं । इसलिए पार्वती की दृष्टि में किसी परिस्थिति विशेष या किसी मनःस्थिति विशेष के कारण शिव और काम का विरोध नहीं है। यह 'मूड' नहीं है, स्वभाव है। यह प्रसंग नहीं है, वैयक्तिकता है।
'काम' का जलना देवताओं की पूरी योजना पर पानी फेर देना है। देवता जब काम की पैरवी करते हैं तो स्कन्द पुराण के अनुसार शिव "रुष्ट" होकर उन्हें भी दो बातें सुना देते हैं - 'देवगण । तुम सबको कामना रहित होना चाहिए। इन्द्रादि देवता जब-जब कामदेव को आगे रखकर चले हैं तब- तब अपनी मर्यादा से भ्रष्ट हुए हैं, दुःख में पड़े हैं और दीनता के भागी हुए हैं।
अतः मैंने सबकी शांति के लिए कामदेव को जलाया है। तुम सब देवता, असुर, महर्षि तथा दूसरे प्राणी भी अब निर्भय होकर तपस्या में मन लगाओ।' तब देवता नहीं महर्षि लोग शिव को कहते हैं कि 'काम इस सृष्टि का अधिष्ठान है। यह विश्व काममय है। इससे ऊपर उठे हुए आप परमेश्वर ही निष्काम हैं।' स्कन्द पुराण में इस अवसर पर काम को अनंग रूप में जीवनदान नहीं मिलता।
मुनि, सिद्ध और चारणों द्वारा भगवान शिव की स्तुति और वंदना के बाद भगवान वहां से अदृश्य हो जाते हैं। रति रोती रह जाती हैं। पार्वती 'सखी' रति को आश्वासन देती हैं कि मैं कामदेव को जीवन दिलाऊंगी और फिर रति तथा पार्वती दोनों की तपस्या शुरू होती है। यदि पार्वती का पुनर्जन्म शिव के लिए हुआ है तो वैसे ही रति के लिए काम का होगा। पहले शिव तपस्या करते रहे, अब रति करेंगी और पार्वती भी।
स्कन्दपुराण के इस विवरण में शिव 'आशुतोष' नहीं प्रतीत होते। वे काम को 'पापी' और 'दुःख की जड़' “आज मैं इसे जीवनदान नहीं दूँगा और
देवताओं को "तुम अवसर की प्रतीक्षा करो" कहकर अंतर्धान हो जाते हैं। यानी उस समय विशेष पर तो शिव राजी नहीं होते। लेकिन देवताओं व रति सबके लिए आशा का एक द्वार भी खुला छोड़ जाते हैं।
पार्वती उन का सहारा नहीं लेतीं जिन्हें काम लेकर चला था। यानी रंभा, पुंजिकस्थला, सुकेशी, मिश्रकेशी, तिलोत्तमा आदि का । वे उन्हें सखियों से प्रतिस्थापित हुआ पाती हैं, अब जया, विजया, माधवी, धना, सुश्रता, श्रुता, शुक, सुभगा, श्यामा, चित्रांगी, वारुणी, सुधा आदि सखियां उन गिरिजा की सेवा में रहने लगी हैं जो उसी स्थान पर एक वेदी स्थापित कर कठोरतम तपस्या के लिए विराजमान हो गई हैं जहां शिव ने काम को दग्ध किया था। पार्वती देवताओं के इस अयाचित हस्तक्षेप से खिन्न यदि हुईं भी तो कथा उसे कहीं उजागर नहीं करती। काम की दुर्दशा पर उन्हें दुःख होता है और वे रति के प्रति सहानुभूति भी दर्शाती हैं। बिना काम के रति संभव ही नहीं।
ध्यान दें कि स्कंदपुराण में इस प्रसंग में काम का महत्त्व- स्थापन देवताओं से न करवा के "सभी महर्षियों" से करवाया गया है। देवता शायद इस का कमजोर विज्ञापन होते। या वे अनुभव की बात करते, सिद्धांत की नहीं। अतः यहां बौद्धिक रूप से शिव को विश्वास दिलाने की चेष्टा की गई है।
काम मंगल से मंडित श्रेय/सर्ग इच्छा का है परिणाम। राममय सृष्टि को देखने वाले शिव के समक्ष काममय सृष्टि की बात करने में महर्षियों को कोई संकोच नहीं। वे इतने यथार्थवादी हैं। बृहदारण्यक उपनिषद् (6.45) में कहा गया : ‘काममय हवायं पुरुषः ।'
यह भी कि 'स वै नैव रमे तस्मादेकाकी न रमते स द्वितीयंमैच्छत्/स हैतावाना स यथा स्त्रीषुमासौ सम्परिव्यक्तौ। (1.4.3). यह भी कि 'अत्र त्रिवर्गो नाम धर्मार्थ कामाः /एव त्रिषु कामस्यैव प्राधान्यम्।' यह भी कि 'काम बिना सृष्टिरेव न भवति।' ऐसे अनेक वचन हमारे ग्रंथों में है। शिव फिर भी उस वक्त काम को जीवन दान नहीं देते।
यह उनके औढरदानी स्वभाव के विपरीत बात है। इसलिए शिवपुराण इसी कथा में कुछ दूसरी शैली प्रयुक्त करता है। यहां भी हिमवान भगवान शंकर की सेवा में पार्वती को उसकी दो सखियों सहित रखने का जब प्रस्ताव करते हैं तो शिव मना कर देते हैं।
यहां वर्णन थोड़ा विशद है। शिव 'उस परम मनोहर कामरूपिणी कन्या को देखकर आंखें मूंद लेते हैं और अपने त्रिगुणातीत, अविनाशी, परमतत्वमय उत्तम रूप का ध्यान करने लगते हैं। वे जब हिमवान को कन्या को उसी के घर में रखने और यहां न लाने का कहते हैं और कारण पूछने पर यहां भी इस कुमारी के सुंदर कटि प्रदेश से सुशोभित, तन्वंगी, चंद्रमुखी और शुभ लक्षणों से सम्पन्न होना बताते हैं।"
यानी एक तरफ शिव के अवगुण - तथाकथित अवगुण - पार्वती (और पूर्व में सती) के मन में आकर्षण पैदा करते हैं तो पार्वती के गुण और लक्षण शुभ होने के बावजूद शिव के मन में संकोच पैदा करते हैं। शिव के मन में यह जो हल्की सी दरार पैदा हुई है, एक दिन इसी से होकर पार्वत को उनके मन में प्रवेश कर जाना है बल्कि मन पर कब्जा जमा लेना है शिवजी 'कूल' होना दिखा रहे हैं। लेकिन उनके भीतर यह एक 'वीक स्पॉट’, यह एक निर्बल स्थल - पैदा तो हो गया है।
यों उनके मन में प्रसन्नता है और वह छिप भी नहीं रही। “यह सुनकर वृषध्वज शंभु हँसने लगे और हिमालय से बोले” या “पार्वती जी के इस वचन को सुनकर महती लीला करने में लगे हुए प्रसन्नचित्त महेश्वर हँसते हुए बोले।” “गिरिराज के ऐसा कहने पर लोकल्याणकारी भगवान शंकर हँस पड़े।" इसे क्या कहेंगे। मन मन भावे, मूँड हिलावे। वे इसी कारण कुछ रैटरिकल बातें भी करते हैं कि "स्त्री के संग से मन विषय - वासना उत्पन्न हो जाती है। भवत्यचलं तत्सङ्गाद विषयोत्पत्तिशां विनश्यति च वैराग्यं ततो भ्रश्यति सन्तपः । 'अतस्तपस्विना शैल न कार्या संगतिः/महाविषयमूलं सा ज्ञानवैराग्यनाशिनी' । सो वे कहते हैं कि तपस्वी को स्त्रियों का संग नहीं करना चाहिए क्योंकि स्त्री महाविषयवासना का मूल एवं ज्ञान-वैराग्य का विनाश करने वाली होती है।
पर क्या ये बातें सचमुच मन से कह रहे हैं? या अपने भीतर पैदा हो गई एक दरकन को छुपाने के लिए कह रहे हैं या वे पार्वती के आत्म-सम्मान और बौद्धिक ज्ञान की परीक्षा लेने के लिए कह रहे है ? पार्वती के सौंदर्य ने उनके मन में क्या भय पैदा कर दिया है? सारा डेसेन ने शायद ऐसे ही अवसरों के लिए कहा है Holding people away from you, and denying yourself love doesn't make you strong. If anything, it makes you weaker. Because you're doing it out of fear.
पार्वती, जिन्हें हिमवान 'काली' कहते हैं और पुराणकार इस समय के अन्य वर्णनों में भी काली कहता है, शक्ति हैं। अतः वे शिव के इस निषेध और अभिमत के पीछे का महत्व और मनोविज्ञान दोनों समझ जाती हैं। जनम जनम के अपने प्यार, अपने पति को ऐसे कमजोर वक्तव्य देते हुए वे कैसे देख सकती हैं? उनके पिता चुप भी हो जाते हैं, लेकिन स्त्री के बारे में किसी भी कारण से कहे गये किसी सेक्सिस्ट कथन को खंडित करने में स्त्री को विलंब भी क्यों करना चाहिए? शिवपुराण में शिव से इस सिलसिले में कहे गये पार्वती-शब्द इसलिए स्कंदपुराण की तरह उनकी दार्शनिक और बौद्धिक शक्ति का ही परिचय देने वाले नहीं हैं, वे उनके आत्मविश्वास का भी सूचक है। वे कहती हैं : 'योगीश्वर/मेरी उत्तम बात सुनिये। मैं प्रकृति हूं। आप पुरुष हैं। यह सत्य है। इसमें संशय नहीं है। मेरे अनुग्रह से ही आप सगुण और साकार माने गये हैं। मेरे बिना तो आप निरीह हैं। कुछ भी नहीं कर सकते हैं। आप जितेंद्रिय होने पर भी प्रकृति के अधीन हो सदा नाना प्रकार के कर्म करते रहते हैं। फिर निर्विकार कैसे हैं? और मुझसे लिप्त कैसे नहीं?"
ऐसा लगता है जैसे पार्वती स्वयं अपने रूपक का रहस्य खोल रही हैं। वो बता रही हैं कि आप और मैं एक हैं। कि हम दोनों लोग इन सब गलियों में कई बार साथ-साथ गुज़र चुके हैं। वो कह रही हैं कि बंद कीजिये ये आत्म-वर्जना ।
वो कहती हैं कि आपको लगता है आप तपस्या में शून्य हो जाते हो, मैं कहती हूँ आप मेरे बिना रिक्त हो जाते हो। ईमानदारी से कबूलो कि मुझे देखकर आपके कुछ सनातन संस्कार जागे कि नहीं। क्या आपको कुछ भी नहीं महसूस हुआ? कि कोई लौटकर आया है मृत्यु की अतल खाइयों से सिर्फ आपके लिए?
आपको क्या चीज परेशान कर रही है ? मुझे देखकर वो कौनसी कुछ छायाएं हैं जो आपको आवृत्त कर लेती हैं? वो कौन ज्योतियां हैं जो उस अंधेरे में जल जाती हैं जिसे आपने ओढ़ लिया है? क्यों कुछ आप इस तरह की प्रतिक्रिया दे रहे हैं यदि मेरे होना न होना आना न आना कोई मतलब नहीं रखता ? रह लेते निर्विकार ।
क्या इस बिंदु पर आकर नहीं लगता कि डेविड गेफेन (David Geffen) का वह कथन ठीक ही था कि : I believe we're all in denial about the people we love पार्वती पहचान जाती हैं और शिव पुराण इस कारण इसे सांख्य - दर्शन और वेदांत दर्शन के बीच का संवाद बताते हुए भी यह 'मेरा' और 'तेरा' वाला निजी संवाद का भाव भी ले आता है जो स्कन्दपुराण में नहीं मिलता।
यह जान लेना कि सामने वाले के मन में उन्हें लेकर हल्की सी एक खलिश है, यह पहले नहीं थी। क्या पार्वती को इसकी आहट नहीं आईं? सच कहें तो वे उनकी सेवा करने के लिए भी नहीं आईं, वे उनका उपचार करने आईं हैं। उनके क्षत विक्षत मन की 'हीलिंग' करने।
वे जानती हैं। शिव की आंखों में वो 'हर्ट' दिखता है। उनका वो बार-बार हँसना क्या पता उनके उसी 'हर्ट' को छुपाने के लिए है। कथा इसे यों कहती है कि पार्वती शिव की षोडशोपचार सेवा करती हैं। है यह उपचार ही। कितना बदल गया है पार्वती का पति इस बीच। कभी इतना पारदर्शी हुआ करता था कि उसे 'नग्न' कहा जाता था और अब अपने घावों पर तपस्या की और दर्शन की पट्टी कर ली है उसने। पार्वती को उसकी नर्सिंग करनी ही होगी। दंश को दर्शन बनाने से ये घाव नहीं भरेंगे। ये आज तक सती के उस दर्द की सलीब को कांधे पे उठाये हुए हैं और अपने को क्षमा भी नहीं कर पाए हैं।
मृत्यंजय पर वह एक मृत्यु भारी पड़ गई है।
( क्रमशः)
लेखक सेवानिवृत आईएएस हैं।
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