मनोज श्रीवास्तव।
पर पार्वती को अपने पूर्वजन्म का जब ज्ञान है तब महाकाल कहलाने वाले शिव क्यों नहीं पहचान पा रहे हैं? वे शिव अभी तक सती-प्रसंग के बाद तपस्या के एकान्त में ही अपने को सुविधा में मान रहे हैं और यहां यह पार्वती खलल डालने चली आई हैं।
पार्वती सती का ही पुनर्जन्म हैं, शिव में यह बोध जागा नहीं है। उन्हें कुछ कुछ वैसा सा लगता है, कुछ संस्कार जागते से लगते हैं लेकिन सती के प्रति शिव का जो अपराध बोध है, वही अब इस निषेध में परिणत हो रहा है?
शिव के भीतर कुछ भी क्षय नहीं हुआ है। सती की स्मृति भी इतने वर्षों के बाद भी ताजा बनी हुई है। विस्मृति कई बार समय का प्रवाह होती है। लेकिन महाकाल के सामने उसका अर्थ है? धारणा और ध्यान वाले इस योगी को यादों के मुरझाने (fading out) की भी सुविधा नहीं।
वह घाव रिसता है और उसी के कारण पार्वती के प्रति यह नकार है। और कौन जाने काम की उद्दंडता भी इसी कारण शिव को अखर गई हो? एक सती योगाग्नि में भस्म हो गई थी, एक काम रोषाग्नि में भस्म हो गया।
कौन जाने सती-प्रसंग में अपने को माफ न करने वाले शिव अभी तक खुद को उन्हीं यादों की अग्नि से संतप्त रखे हो ? क्या यह उनका फिक्सेशन है? पार्वती ही हैं जो उन्हें इससे बाहर ला सकती हैं। शायद इसीलिए शिव ने उन्हें सेवानुमति दी है। पार्वती शिव को प्यार ही नहीं करती, शिव का उपचार भी करती हैं।
शिव के भीतर यह एक प्रेतयुद्ध (war of ghosts) चल रहा है। भूतनाथ स्वयं भूतजीवी, अतीतजीवी हो गये हैं। ऐसे सारे लोकदायित्व वे निभाते हों, लेकिन भीतर ही भीतर व्यतीत की उन्हीं छायाओं से उनकी लड़ाई होती रहती है। शिव ने उन यादों का दमन नहीं किया है।
स्वयं को दंडित करने का उनका वही तरीका है। वे स्वतंत्र और निर्विकार हैं तो उनके भीतर यह सब भी नहीं होना चाहिए था। लेकिन लोगों को उनका तप दिखता है, उनका ताप नहीं दिखता।
जब उनकी इन मनःस्थिति को समझे बिना कोई उन्हें राग के मार्ग पर ले जाने की हड़बड़ी दिखाता है तो यह ताप अग्नि में बदलकर उसे ही राख कर देता है। पार्वती शिव के मन को पहचानती हैं। सृष्टि के आदि से वे शिव के साथ साथ हैं।
शिव पुरुष हैं तो वही हैं। वे प्रकृति हैं तो रूप बदलती रहती हैं। कभी सती बनकर आयी थीं, अब पार्वती बनकर आयी हैं।
शिव जो समस्त विद्याओं के दाता हैं, को भी जिंदगी ने एक सबक दिया है। यह भी एक विष-विषय था जो अब शिव को कंठस्थ है। पार्वती इसीलिए धैर्य का शिव-संदर्भ में महत्व जानती हैं, काम नहीं जानते।
उनके पास तो चालू टोटके हैं जो वे सब पर आजमाते फिरते हैं। शिव की 'अद्वितीयता' को ध्यान में रखकर कोई विशिष्ट और संदर्भ-संवेदनशील रणनीति बनाने की ताब भी उनमें नहीं है।
काश शिव को कोई पश्च- विस्मृति (retrograde amnesia) ही हो गई होती तब भी काम की निकल पड़ी होती। लेकिन महाकाल को पूर्व का सब कुछ याद है।
वे जिस आग में जल रहे हैं, वह जब तक छेड़ी न जाये तभी तक कुशल है। कामदेव आग से खेल रहे थे, आग में जल गये।
उनकी गलती यह थी कि वे शिव की स्टीरियोटाइपिंग कर रहे थे, वे उस 'सिचुएशन' को नहीं समझ पाये, जिसमें शिव थे। सबको बसंत की पुड़िया नहीं पकड़ाई जा सकती।
जिसके डमरू की नाद से विश्व में ध्वनियों का उदय हैं, उसे कोयल-ध्वनि के जुमलों में सेट नहीं किया जा सकता। वे ही अप्सरायें, जो देवों को लुभाती हैं, लेकर महादेव को, देवाधिदेव को लुभाने चले काम।
उनके कुछ टर्न ऑन करने के नुस्खे हैं। पता नहीं कैसा निशाना लगाया था कि शिव का त्रिनेत्र ट्रिगर कर गया। उनके हृदय को जीतने की जगह कामदेव ने 'संप्रेरण' के लिये आक्रामकता (aggression) से काम लिया।
भले ही यह 'आक्रामकता' वैसी हो जिसे मनोवैज्ञानिक साधनमूलक आक्रामकता (instrumental aggression) कहते हैं लेकिन कामदेव यह नहीं समझ सके कि उनके ये साधन, ये फार्मूले, ये सूत्र घिस चुके हैं और शिव के सामने उनकी कलई घुल जायेगी।
इन सतही चीजों का शिव पर असर नहीं होता, कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है।
इसी कारण शिव के लिये यह जरूरी हो गया कि वे काम का सतहीपन खत्म कर उसे मन की भीतरी परतों में घुसाये ताकि वह हरेक की मनःस्थिति के अनुसार सक्रिय हो।
पार्वती शिव को एक तरह से भावनात्मक स्वतंत्रता (इमोशनल फ्रीडम) देती हैं। वे शिव के नकार से असुरक्षित या अपर्याप्त नहीं महसूस करती।
काम भावनात्मक वेग देता है, स्वतंत्रता नहीं। पार्वती इस अर्थ में मुक्तिकारी (लिबरेटिंग) हैं अपने प्रेम की तरह। कामदेव इस अर्थ में बंधनकारी हैं अपने गर्व की तरह। वह बींधता है या बांधता है। कामदेव को फार्म या फ्रेम पर बहुत यकीन है, पार्वती को एसेंस पर।
शिव काम की 'फार्म' नष्ट कर सकते हैं, रूपांतरित कर सकते हैं- लेकिन पार्वती के 'एसेंस' को कुछ नहीं कर सकते। उसके सामने एक दिन उन्हें ही समर्पण करना पड़ेगा। प्रेम चेतना का एक अनंत समुद्र है, काम की लिमिट्स हैं।
शिव काम की उन सीमाओं को अदृश्य कर देते है । 'What dies is the Form. The matter is immortal जॉन फाउल्स ने यही कहा था।
जब तक कामदेव का 'फार्म' था, तब तक एक मानकीकरण (standardization) भी था। शिव ने काम का जब अमूर्त्तन किया तब उन्होंने मानकों की तानाशाही से भी मुक्त किया। पार्वती का प्यार अमूर्त्तन में भी है।
जब वे रातों में अकेली सोती हैं, शिव का जो ख्याल उन्हें आता है, वह अमूर्त है। वे जिस तकिये को शिव की प्रतीक्षा में अपने वक्ष से चिपका लेती हैं, वह शिव नहीं है, अमूर्त्त है।
वे शिव की अपने पास आती हुई पदचाप सुनती हैं, वह अमूर्त है । शिव नहीं, शिव के आइडिया के साथ वे जी रही हैं। प्यार अधिकतर समय अमूर्त्तन में ही बिताता है।
काम यदि भौतिक है, विज्ञान है तब भी वह अमूर्त्तन से बच नहीं सकता। फुल्टन जे. शीन (लाइफ इज वर्थ लिविंग) सही कहते हैं कि "Remember that every science is based upon an abstraction. All sciences are differentiated by their abstraction. कृष्ण जब राधा से अलग हो गये तब यह उनके प्यार का अमूर्त्तन ही था जो उन्हें जीवित रखा।
यही अमूर्त्तन सीता और राम का उस अपहरण-अवधि में धीरज बना। मीरा के साथ यही अमूर्त्तन उन्हें एक अनजाने आनंद से भरता रहा।
काम का ठोसत्व (concretion) अब जब अमूर्त्तन बना तो वह उतना ही महत्वपूर्ण मानसिक कार्य व्यापार हो गया जितना, हम कह सकते हैं कि फ्रायड के दिमाग में था। फर्क यही है कि काम का कार्य व्यापार भारतीय परिभाषानुसार ज्यादा विस्तृत है|
शिव-दृष्टि के सामने पार्वती ठहरती हैं, काम नहीं। अपने हृदय के इस तट पर वे कब से ठहरी हुई हैं। जैसे यहीं उनकी जड़ें हैं। उनके दिल ने प्यार में धीरज खोना नहीं सीखा है। उनके मन की ग्रह-कक्षा ही यही है ।
जैसे शिव-दृष्टि को ही उनकी दृष्टि ढूंढ़ती है उनके मन के सारे खाली कोनों को वह एक दृष्टि ही भरती है। इस कामदेव-प्रसंग से ऐसा लगता है कि पार्वती की नजर को नजर लग गई है। उनके मन में कोई चोर नहीं था, इसलिये उन्होंने शिव से नजरें चुराई भी नहीं।
एक पल को भी उन्हें शिव की निगाह अजनबी-सी नहीं लगी। जिस शिव की नजर की गर्मी से कामदेव का पूरा अस्तित्व ही राख हो गया, उस शिव की नजर के तिलिस्म को पार्वती जनम- जनम से जानती हैं।
जिन शिव ने कामदेव को आंखें दिखायी, उन शिव की नजर में, पार्वती कहीं मन ही मन जानती हैं, उनके लिये बेरुखी नहीं है।
( क्रमशः)
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