Breaking News

गये क़ल और नये क़ल के बीच का पुख्तापुल थे श्याम मुंशी

वीथिका            May 05, 2022


रजा मावल।
ऊंचा कद छोटी चमकदार आंखें जो दुनिया देखती नहीं पढ़ती हैं। चाल ऐसी की फौज के अफसर कोई , शीरी जुबान , शीन काफ दुरुस्त, गज़ब का रंग, काली शेरवानी , चूड़ीदार पायजामा, फर की टोपी !

खुशनुमा खुशबूदार आमद, चाक - चोबंद, फिट-फाट, हाथ में छड़ी और चमकदार जूते!

ऐसा एक वाहीद शख्स जो हर फन-ओ-अदब के जलसे में आप को दिखाई दे। बल्कि ये कहना ज़्यादा मुनासिब होगा की हर महफिल की रौनक ये अज़िमो-ओ-शान शख्सियत जनाब श्याम मुंशी थे।

आगे बढ़ने से पहले में ये बताना ज़रूरी समझता हूँ कि श्याम मुंशी पर लिखना आसान नहीं हैं कम से कम मुझ जेसे जाहिल के लिए तो क़तई नहीं।

जिस तरह समंदर के किनारे बेठ कर उसकी बूसात का अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता उसी तरह श्याम भाई की शख्सियत भी एक समुद्र की तरहा है जिनके पास बेठ कर आप उनकी बुसात का अंदाज़ा नही लगा सकते!

हालांकि मैं पिछले 34 वर्षो से ज्यादा श्याम भाई के संपर्क में रहा फिर भी आप पर कुछ लिखने के लिए मुझे उनके निहायत ही क़रीबी दोस्तों की ज़ुबानी जो सुना, पढ़ा और देखा उसी का सहारा ले ये हिमाक़त कर रहा हूँ।

श्री श्याम मुंशी या यूं कहूं मुकम्मिल बर्रूकाट भूपाली जनाब श्याम मुंशी साहब भोपाल के एक ऐसे परिवार से ताल्लुख रखते हैं जिनका इतिहास भोपाल में 250 वर्षों से रहा है!

जहाँ फ़ारसी, अरबी, उर्दू, संस्कृत और हिंदी के एक से एक इल्म्दार इस्कालर इस परिवार ने भोपाल को दिए हैं।

मुझे ये लिखने में कोई अतिंश्योक्ति नहीं लगती कि इतनी भाषाओं के आलिम फ़ाज़िल, तहजीब-ओ अदब, साहित्य और संगीत की गंगोत्री अगर भोपाल में निकलती हैं तो वो हैं श्याम भाई का घर, जिसकी गंगा के विशाल पाट के उन घाटों पर शहर सहित सूबे तक ने ख़ूब डूबकियां लगाईं और इल्म हासिल किया हैं।

20 मई 1943 को भोपाल में जन्मे श्याम मुंशी जब पांच वर्ष के हुए तब तालीम की इब्तिदा आप के दादा मुंशी मोहनलाल साहब मरहूम ने फ़ारसी क़ायदे से कराईं!

घर की इब्तिदाई तालीम के बाद नागपुर के सेंट् जोन्स स्कूल में और महू में हुई आगे की तालीम भोपाल के हमीदिया कॉलेज से मुक्कमिल की।

श्याम भाई के वालिद मुंशी सुन्दरलाल साहब मरहूम कम्युनिस्ट पार्टी की बुनियाद रखने वालो में से एक और जंगे आज़ादी के सिपाही थे!

भोपाली उम्रदराज़ बताते हैं श्याम मुंशी में अपने वालिद की हूबहू छवि थे और वही जीवनभर उनके आदर्श और प्रेरणास्रोत रहे भी।

श्याम मुंशी सुप्रसिद्ध सारंगी वादक उस्ताद अब्दुल लतीफ़ खां साहब मरहूम के बाकायेदा गंडाबन्द शागिर्द रहें हैं।

खां साहब ने अपने इस शागिर्द को शागिर्द ही नहीं अपना बेटा माना श्याम जी बेटे का फ़र्ज़ आज भी बखूबी निभा रहें हैं।

श्याम मुंशी ने दुनिया की सबसे छोटी सारंगी अपने हाथो से बनाकर एक अजूबा दुनिया को दिया जिसका नाम लतीफ़ सारंग रख अपने उस्ताद के नाम समर्पित किया।

आप ने एक और सारंगी बनायीं जिसका नाम दिया हंसा बेला। श्याम मुंशी अभी तक दर्जनों क़िताबे लिख़ चुके हैं जिसमे प्रमुख ‘सारंगी के हमसफ़र‘ ‘सारंगी का दर्द’ ‘हिन्दुस्तानी संगीत में तवायफो का योगदान’ और भोपाल पर लिखी इनकी क़िताब ‘सिर्फ़ नक़्शे क़दम रह गए’ एक अनूठी और अभूतपूर्व क़िताब हैं।

इस क़िताब में भूपाल से भोपाल हुए शहर की तस्वीर और तहरीक़ को जानने समझने के लिए इसे पड़ना ज़रूरी हैं। आज भी श्याम जी लगातार लिख़ रहें हैं कुछ क़िताबे प्रिन्टिंग में हैं कुछ ज़ेहन में।

श्याम भाई के अजीबो—गरीब शोक़ हैं जिनका आपस में दूर दूर तक कोई लेनादेना नहीं हैं जेसे घुड़ सवारी, अच्छी नस्लों के कुत्तें पालना , बागवानी , खेतीबाड़ी , कभी रेडिमेड कपड़ो की दूकान तो कभी जिम चलाना और तो और जनाब उम्दा मोटर मेकनिक और पहलवानी का भी शोक़ रखते हैं।

साथ ही थियेटर से लगाव। नाटकों में बहतरीन अभिनय जो जग ज़ाहिर था। लगातार रेडियो प्रोग्राम और ना जाने क्या—क्या।

इक़बाल ने दुनिया को फ़तेह करने का एक मन्त्र दरियाफ्त किया था कि -
यकीं महकम , अमल पेहम मोहब्बत फ़तेह आलम
जिहादे ज़िन्दगानी में ये हैं मर्दों की शमशिरे।
शायद श्याम मुंशी इसी मंतर पर अमल करते थे।

श्याम भाई ने शादी बोहत देर से की कारण तो किसी को मालूम नहीं शायद इतनी विधाओं में पारंगत होना’ तो इस और ध्यान ही न गया।

हो खेर साहब देर आये दुरुस्त आये पत्नी भी ऐसी मिलीं जिनका तारूफ़ यहाँ कम अलफ़ाजों में करना मुश्किल ही नहीं ना मुमकिन है उनका ज़िक्र हम फ़िर कभी करेंगें।

किसी ने क्या ख़ूब लिखा है-श्याम मुंशी भोपाल की उन शख्सियतओ में से थे जिन्हें सम्भाल के रखा जाना बेहद ज़रूरी था। क्योंकि वे गये क़ल और नये क़ल के बीच का पुख्तापुल थे जिनके ना होने की सूरत में इस तरफ़ की अतृप्त लहरों की प्यास उस तरफ़ के बह चुके पानी के लिये सदियों पुकारती रहेंगी और गए वक़्त की तरह गया पानी भी दोबारा नसीब में नहीं होगा।

श्याम तो बोहत होंगे मुंशी भी बोहत होंगे पर इन साहब की शख्सियत इतनी फेली हुई थी गर समेट दो तो सिर्फ़ एक ही नाम रह जाता हैं - श्याम मुंशी ! श्याम भाई आप हमेशा हमारे ज़हन के किबाड़ो में ता उम्र दस्तक देते रहेंगे।

आखिर में यही कहूँगा - श्याम तो बोहत होंगे मुंशी भी बोहत होंगे पर इन साहब की शख्सियत इतनी फेली हुई थी गर समेट दो तो सिर्फ़ एक ही नाम रह जाता हैं - श्याम मुंशी। श्याम भाई आप हमेशा हमारे ज़हन में ता उम्र दस्तक देते रहेंगे।
आपका दोस्त और मुरीद - रज़ा मावल

 



इस खबर को शेयर करें


Comments