अनुराग अमिताभ।
दुष्यंत:स्याही नहीं खून उगला और सफों पे लिखा क्रांति
खण्डहर बचे हुए हैं इमारत नहीं रही,अच्छा हुआ कि सर पर कोई छत नहीं रही। जिन्हें कभी जिंदगी के रदीफ़ की फिक्र नहीं रही काफिये के तंग होने का खयाल नही रहा।जिंदगी जी तो बेलौस न हुकूमत का डर रहा,न हालातों का ख़ौफ़, जिये तो बादशाहों की तरह खत्म हुए तो शहंशाह की तरह। इस तरह की उनके लिखे हुए लफ़्ज़ों ने तब हंगामा बरपाया जब जुबां पर लगाम थी,आज भी हंगामा खड़ा करते हैं जब संसद से सड़क तक किसी तकरीर में सियासतदां उन्हें दोहराते हैं।
हम बात कर रहे हैं उस शायर की उसकी जिसकी कलम ने स्याही नहीं खून उगला ओर सफों पे लिखा क्रांति। वो लफ़्ज़ों का जादूगर था बल्कि है दुष्यंत कुमार। जिसका आशियाँ आज उजाड़ा जा रहा है उस शहर को खूबसूरत बनाने के लिए जिस शहर में उसने इतिहास रचा।उसी शहर में उसी मकां से जहां अब आवाज आती है कहाँ तो तय था चिराग हर एक घर के लिए कहाँ चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए।
आज उन सबों के लब खामोश हैं जिन्होंने मुश्किलातों के दौर में नाउम्मीदी के वक्त में पढ़ा कैसे आकाश में सुराख नही हो सकता एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों,पढ़ के उठे, उठ कर चल दिये उम्मीदों को रोशन करने। कोई आंदोलन खड़ा करने को तैयार नही ,सियासतदां क्रांति मचाने के लिए राजी नहीं कि कैसे इस इतिहास बनाने वाले के आशियाँ को जमींदोज होने से बचाया जाए।कैसे बचाया जाये इस लफ़्ज़ों के बाजीगर के उस घर को जहां नामवर हस्तियों ने महफ़िल जमाई।आज मिट रहा है वो लफ़्ज़ों का महल एक शहर की सूरत बदलनी के लिए।चंद लोग लेकिन अबभी हैं जिनकीं जुबा कह रही है कि वो मुतमईन है कि पत्थर पिघल नही सकता, में बेकरार हूँ आवाज में असर के लिए।
दुष्यंत का मकां सिर्फ ईंट गारे की निशानी नही थी,निशानी थी आपातकाल के दौरान उठे आम इंसान के जज्बातों की। इस धरोहर को जमींदोज किया जाना उन दरख्तों को सुखाने जैसा है जो दुनिया को छाया देते हैंं।
बहारहाल अब भी उम्मीद है कि सियासतदां समझेंगे ओर कोशिश करेंगे दुष्यंत के निशां बचाने की ताकि आने वाली पीढ़ी समझ सके कि विद्रोह कैसे लफ़्ज़ों में बयान किया जाता है कैसे उम्मीदें जिंदा रखी जातीं है। इसी उम्मीद में चंद लोग अब भी मशाल उठाये हुए है और कह रहे है कि तेरा निज़ाम है कि सिल दे जुबान शायर की ये एहतियात जरूरी है इस बहर के लिए।
वरिष्ठ पत्रकार ब्रजेश राजपूत के फेसबुक वॉल से
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