डॉ.रजनीश जैन।
यही लगा सागर के रवींन्द्र भवन सभागार में। विलियम शेक्सपियर का नाटक 'औथेलो' बुंदेली पहनावों और बुंदेली पार्श्वसंगीत के साथ हो रहा था। मुझे हबीब तनवीर जी याद आ रहे थे। उन्होंने छत्तीसगढ़ी लोकगायन की विधाओं को नाटकों में प्रयोग कर उन्हें वैश्विक पहचान दे दी। अपने पति के आरोपों और कटाक्षों से विचलित नायिका डैसडिमोना की मानसिक उथलपुथल को दर्शाने का एक दृश्य सिर्फ बुंदेली के 'बंबुलिया' गान की धुन से मार्मिक हो उठता है।
बंबुलिया गान को आईडेंटीफाई न कर पा रहे हों तो आपको याद दिला दें कि इस अंचल में नवरात्रि पर एक भजन आप हर पंडाल पर सुनते होंगे "...सुमर चलो दोई बिरियाँ रे,...दोई बिरियाँ रे ...जगदंबा लगे हैं बेड़ा...पार हो,....सुमर चलो रे..." ! यही वह शैली है। सभी सहकलाकार बंबुलिया की धुन अत्यंत मंद लय में नासिका से उचारते हुए नायिका डैसडिमोना के गिर्द एक घेरे में घूमते हैं और नायिका अपने दोनों हाथ आकाश की ओर उठा कर मानो आर्तनाद करती है। आपके भीतर तक पैठ जाती है वह पीड़ा ऐसे दृश्य संयोजन से।
एक अन्यपात्र कैसियो के वेश्यागमन को चित्रित करने के लिए 'राई' नृत्य का प्रयोग नाटक को एक जिप्सी फ्लेवर देता है। राई भी दरअसल जिप्सी नृत्यों की ही एक विधा है। चक्कर लेकर घूमता चमकीला घांघरा अपने पूरे फैलाव में मंच को श्रंगारित करता है। ऐसे फ्रेम का महत्व और खूबसूरती आपको तब समझ आएगी जब यह प्ले बुंदेलखंड से बाहर मंचित हो रहा होगा।'बधाई' के वाद्यसंगीत और स्टेप्स तो इस प्ले का मूलसंगीत कहे जा सकते हैं।
घटनाक्रम परिवर्तन या पात्रों के इनक्लूड-एक्सक्लूड के दौरान ढीली कसी नगड़िया बधाई की लय में बजती है। नगड़िया वादन के स्वरों को कम तेज करके बधाई को आवश्यकतानुसार पिरो लिया गया। इस प्रयोग से साबित हुआ है कि बधाई के संगीत में नाट्यसंयोजन का तत्व हमेशा से मौजूद था लेकिन गोविंद नामदेव सरीखे रंगकर्मी की प्रतीक्षा उसे थी।आरंभ के पात्र परिचय में ही कहारों वाली डोली का लुक देकर जो स्केल बनाया गया है उसे आखिर तक कायम रखा गया। यहाँ से लगता है कि सभी कलाकार बधाई नृत्य के स्टेप्स में पारंगत होंगे लेकिन लय के साथ कदम ताल को दो घंटे के प्ले में मेंटेन नहीं रखा जा सका। यहाँ हबीब तनवीर, नगीन जी और उनकी टीम याद आती है कि उनके मंच पर यह त्रुटि क्षम्य नहीं होती।
यह औथेलो का प्रीमियर था। नाटक लगातार मंजेगा। अभिनय अंग जबरदस्त प्रभावी रहा। हम कह सकते हैं कि दीक्षासाहू, अश्विनी सागर और इयागो का पात्र करने वाले कलाकार मयंक या शायद हरिनारायण के रूप में तीन और उम्दा अभिनेता खोजे जा चुके हैं। यह ऐसे आयोजन का दीर्घलाभ है। गोविंद नामदेव निर्देशक के रूप में आज भी हर प्ले में उतने ही फिक्रमंद लगते हैं जैसे कोई कोच अपनी टीम को फाइनल मैच खिला रहा हो। दर्शक दीर्घा से उठके निरंतर नेपथ्य में घूम—घूम कर वे गाईड करते दिखे।
आज 20 व 21 फरवरी को दोपहर तीन बजे और शाम सात बजे जाइये रविंद्रभवन। आपको निराश नहीं होना पड़ेगा। किसी फिल्म से ज्यादा गेन होगा, खाली हाथ नहीं लौटेंगे। और मेरी एक सलाह है कि ब्रोशर को प्ले के पहले हाथ मत लगाइये। पूरे नाटक का आस्वादन करें और फिर अंत में फोल्डर खोलकर बाकी चीजें समझ लें।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।
Comments