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सागर ताल पर बगरा था पद्माकर का बसंत:भट्ट तिलंगाने को, बुंदेलखंड वासी कवि सुजस-प्रकासी पद्माकर सुनामा हो

वीथिका            Mar 07, 2017


सागर से डॉ.रजनीश जैन।
क्यों ऐसा है कि बसंत का मदनोत्सव कवि पद्माकर की स्मृति को अपने साथ लिए ही आता है।...क्या बसंत, उतरने के पहले सागर झील स्थित भट्टोघाट के किसी घर की सहन से पद्माकर को पुकार कर जगाने आता है कि उठो कवीश्वर अब कुछ दिन तुम्हें मेरे साथ रहकर मेरा ही गान करना है। किले घाट के रनिवासों की चहल पहल से गंगाघाट के एकांत तक सारे घाटों पर बिखरा यौवन संगीत सुनते हुए केलों के उपवनों में हम विश्राम करेंगे...फिर फागुन के साथ हम विदा ले लेंगे। यदि यह महज कपोल कल्पना है तो क्यों पद्माकर के बिना बासंती वर्णन अधूरा रह जाता है...।

1733 में सागर के भट्टोघाट पर मोहनलाल भट्ट के घर जन्मे पद्माकर की आरंभिक साहित्य रचनाओं में सागर का तालाब तरंगित होता है। पिता मोहनलाल मराठा शासक गोविंदपंत बुंदेले के आश्रय में थे और उनका बेटा नौ साल की उम्र में कवित्त लिखने लगा। ...युवावस्था तक सागर तालाब के घाट उनसे ऐसा लिखवा रहे थे कि आज भी मंच से सुनकर श्रोता लाज से शर्मा जाऐ।...

अधखुली कँचुकी उरोज अध आधे खुले
अधखुले बैष नख रेखन के झलकैं
कहैं पद्माकर नवीन अध नीबी खुली
अधखुले छहरि छराके छोर छलकैं
भोर जग प्यारी अध ऊरत इतै की ओर
भायी झिकि झिरिकि उघारि अध पलकैं
आँखैं अधखुलीं अधखुली खिरकी है खुली
अधखुले आनन पे अधखुली अलकैं ।।

इस छंद के साथ विचर लिऐ हों तो लौटें और यह अगला पढ़ें ताकि आप समझ सकें कि युवा पद्माकर ने तालाब के घाटों पर कितना सुनहरा समय गुजारा है...

ओप भरी कंचुकी उरोजन पे ताने कसी
लागी भली भाई सी भुजान कखियाँन में
त्योही पद्माकर जवाहर से अंग अंग
ईंगुर के रंग की तरंग नखियान में
फाग की उमंग अनुराग की तरंग ऐसी
वैसी छवि प्यारी की विलोकी सखियाँन में
केसर कपोलन पै मुख में तमोल भरें
भाल पे गुलाल नंदलाल अँखियान में ।।

(भावार्थ यह की अपने स्तनों पर चमकदार अंगिया कसे, भुजाओं को बगलों में दबाऐ, तब भी अंग अंग जवाहरातों से चमक रहे हैं। नाखूनों में सिंदूरी रंग की आभा लिए वह फागुन की उमंग में अपनी सखियों के बीच अलग ही नजर आ रही है, गालों पर केसर का रंग और मुंह में पान भरे , माथे पर गुलाल लगाऐ वह इतनी मदमस्त है मानों आँखों में कृष्ण जी बसे हों।)

साहित्य जगत झगड़ता रहे कि पद्माकर सागर में नहीं बाँदा में जन्मे। ....लेकिन उनकी रचनाओं को पढ़ें और सागर झील के किनारों का एक बार नाव से आनंद लें तो आप यह सहज घोषणा कर देंगे कि पद्माकर की विषयवस्तु यहीं है। अपनी युवावस्था के आरंभिक वर्षों तक वे यहीं रहे होंगे। यह सागर का ही आत्मविश्वास है कि युवा पद्माकर जयपुर नरेश जगतसिंह के दरबार में अपना परिचय कुछ यूं पेश करते हैं-

भट्ट तिलंगाने को, बुंदेलखंड वासी कवि
सुजस-प्रकासी पद्माकर सुनामा हो
जोरत कवित्त छंद-छप्पय अनेक भांति
संस्कृत-प्राकृत पढ़ी जू गुनग्रामा हो
हय रथ पालकी गेंद गृह ग्राम चारू
आखर लगाय लेत लाखन की सामां हो
मेरे जान मेरे तुम कान्ह हो जगतसिंह
तेरे जान तेरो यह विप्र मैं सुदामा हों ।।

कुछ समझे आप! बुंदेलखंड निवासी एक युवा रिज़्यूम प्रस्तुत करते हुऐ अपनी आर्थिक हैसियत पहले ही बताते हुए कि रथ, पालकी, कहारों और परिचारकों की टोली सहित लाखों की संपत्ति मेरे गृह ग्राम में है, फिर भी आप मेरे लिऐ कृष्ण और मैं आपका ब्राहम्मण सुदामा।...यानि अपना लमसम पैकेज और मित्र के दर्जे की अपेक्षा पद्माकर ने अप्रत्यक्ष ढंग से व्यक्त कर दी।...और यह सब उन्हें मिला। इसके बदले जयपुर दरबार को पद्माकर से 'जगद्विनोद' और 'प्रताप सिंह विरुदावली' सरीखी अनमोल रचनाऐं मिलीं। जगद्विनोद कालजयी काव्य है, उस पर देश भर में कई पीएचडी हो चुकी हैं।

पद्माकर अपने समय के सबसे मूल्यवान दरबारी कवि थे।उनका खुद का काफिला एक राजा की तरह ही होता था जिसमें सैनिक और गणिकाऐं तक होती थीं। ऐशो आराम से लबरेज़ उनका जीवन था। उनके बारे में एक समीक्षक ने उल्लेख किया है कि एक बार तो एक ही मौके पर पद्माकर को 56 लाख रू नकद, 56 गांव और 56 हाथी भेंट में दिऐ गये। अपनी 80 साल की उम्र तक सागर , नागपुर, दतिया, सतारा, जैतपुर, उदयपुर, ग्वालियर ,अजयगढ़ और बूंदी दरबारों में रहे। देशभर में उनकी इतनी जागीरें, गांव, संपत्तियां फैली थीं कि वे विपत्ति के समय कई राजघरानों को आर्थिक मदद करते थे।

आज देशभर में उनकी वंशपरंपरा साहित्य, फिल्म, संगीत, संस्कृति जगत में फैली है।उनकी मृत्यु गंभीर बीमारी से जूझते गंगातट पर कुछ साल बिताने के बाद 1833 में हुई। ...वे उस कठिन समय में भी अपनी अंतिम रचना 'गंगालहरी'लिख रहे थे।पद्माकर की कई संस्कृत रचनाऐं अप्रकाशित हैं, कई खो चुकी हैं। उनके दुर्लभ छंद संजोने के काम में एक साहित्यकार राजुल मेहरोत्रा सक्रिय हैं।

सागर में अब भी पद्माकर के कुछ वंशज रहते हैं लेकिन अपने इस मशहूर पुरखे के बारे में ज्यादा सूचनाऐं वे नहीं रखते।

लेखक मध्यप्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार हैं।


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