राकेश दीवान।
क्या भाषाएं भी डायनासोर की तरह बिला जाती/सकती हैं ? कल 'एकलव्य' के कार्यक्रम में अमरीकी/जापानी लेखक आर्थर बिनार्ड से बातचीत करते हुए 'प्रगतिशील लेखक संघ' से जुडे ख्यात हिंन्दी कवि कुमार अंबुज ने खुद बिनार्ड के सवाल के जबाव में ऐसी ही टिप्पणी की। हिब्रू, संस्कृत के उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि भाष्ााओं का विलुप्त होना एक सहज, स्वाभाविक प्रक्रिया है और इसे लेकर ज्यादा बेचैन नहीं होना चाहिए।
क्या सचमुच ऐसा ही है ? गोंडी, भीली, बैगानी जैसी भाषाएं क्या इसी 'स्वाभाविक प्रक्रिया' के चलते धीरे-धीरे गायब होती जा रही हैं? मध्यप्रदेश में ही 42-43 जनजातियां निवास करती हैं और थोडे धीरज और उनके प्रति आदरभाव से देखें तो पता चल जाता है कि उनमें से सभी की अपनी-अपनी भाषा रही है। हां, जीवन-यापन की मजबूरी के चलते हुए विस्थापन और सत्ता से संबंध बनाए रखने की हुलस के कारण इन जनजातीय समूहों ने अपनी-अपनी भाषाओं का उपयोग करना छोड दिया।
गोंड, जो अभी कुछ सौ साल पहले तक मध्यप्रदेश के अधिकांश भू-भाग पर राज करते थे, अब उसी बोली या भाषा को अपनी मान लेते हैं जिस इलाके में वे बसे हैं। लेकिन भाषाओं का खात्मा उन समाजों, उनकी संस्कृतियों, रहन-सहन, खान-पान आदि के विलुप्त होने से जुडा है। इतिहास के प्रवाह में एक-दूसरे से होने वाले मेल-मिलाप भाषाओं को भी सम्पन्न बनाते हैं, लेकिन जबरिया विस्थापन, पलायन ने अनेक संस्कृतियों, भाषाओं को उनकी जडों से उखाड दिया है।
इस मसले पर थोडे विस्तार से अंजलि नरोन्हा जैसी मित्रों की मदद से और बात की जानी चाहिए। ध्यान रखिए अपने राजनीतिक विचारों के चलते दुनियाभर में डंका बजा रहे नोम चौम्स्की आखिर एक भाषाविद् ही हैं।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं,यह टिप्पणी उनके फेसबुक वॉल से ली गई है।
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