अमेठी से ममता सिंह।
युग बदले समय सरकता रहा राजा-प्रजा सब बदलते रहे बस नहीं बदली तो मात्र स्त्रियों की नियति और उनके नियंताओं का दृष्टिकोण वो अब भी दैहिक उपादान थीं.....बौद्धिकता से परे...।
पर हर अँधेरी सुरंग में भी रौशनी का सुराग होता है.......लिखने - पढ़ने से महरूम इन स्त्रियों ने अपनी अभिव्यक्ति को गीतों में ढाला......जिन्हें लोकगीत कहा गया......इन लोक गीतों में स्त्रियों ने अपनी हृदय की हर पीड़ा...ख़ुशी....मान....अपमान सबको पिरो दिया.....और इसे मौखिक रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तान्तरित करती रहीं...।
पिछले पैंतीस-चालीस वर्षों में भले ही लोकगीत कम होते जा रहे , पर सदियों से इनकी एक सुदीर्घ , सुसंतुलित परम्परा रही है । ताज्जुब होता है कि कैसे जिन स्त्रियों को अक्षरज्ञान तक नहीं था , उन्हें भी समयानुकूल , सैकड़ों लोकगीत याद थे। वे प्रात: से प्रभाती गाना शुरू करतीं तो रात में लोरी गाने तक , दिनभर में जाने कितने गीत गा उठती......इनके गीतों में जीवन का हर राग , हर रंग छुपा होता...।जाँत पीसते जंतसार का गीत अलग ,धान की रोपाई का गीत अलग,निराई का अलग,तो फगुआ,कजरी,मेला-ठेला,शादी-ब्याह,जन्म यहाँ तक की मृत्यु के गीत भी...।
कुछ लोगों को मृत्यु पर गीत सुनकर अटपटा लगेगा , पर कई ऐसे लोग होंगे जिन्होंने गांव गिरांव में मृत्यु पर शव से लिपट रोती। बूढ़ी दादी,काकी,बुआ आदि को देखा होगा...उनका हृदयविदारक विलाप ऐसा जो पत्थर को पिघला दे.....क्योंकि उनका विलाप शहरी स्त्रियों की तरह मौन न होकर मुखर होता है......आंसू और गीत उनके आँख और होंठ से अनायास ही झरते हैं........कुछ तथाकथित सुसभ्य लोग उनके रोने पर चुटकी लेते हैं पर यदि जरा गौर से उस रूदन में छुपे गान को सुनें तो पाएंगे कि वो अपने भीतर छुपी जाने कबकी ,कितनी अनकही बातों, भावनाओं को आज रो-रोकर बता रहीं ।
इसी तरह मायके से आने या ससुराल के लिए जाते समय भी ये स्त्रियां अपने हृदय की पीड़ा,दुःख - दर्द ,शिकवा - शिकायतों को पिता-भाइयों से रो-रो और गा-गाकर कहतीं थीं। उस समय पिता भाई से ससुराल में मिली प्रताड़ना,सुख - दुःख आमने सामने बैठकर नहीं बताया जा सकता था.......सो उनके भीतर जो पीर बूँद बूँद बरसों इकट्ठी होती,वो पिता - भाई के कंधे और पैर से लिपटने पर द्रविताएं बन आँखों और गले से फूट पड़तीं.......वे रोतीं और गातीं और उसी में.....दूर देश में ब्याहना, सास-ननद का ताना, तीज त्यौहार पर मायके से किसी के न पहुँचने या बुलाने के उपालंभ पिता- भाई को देतीं।
लोकगीतों में ही रिश्ते-नातों के चुहल , जीवन की दुश्वारियों को सहल बनाने का हुनर,अपनी बेबसी , पति की प्रतीक्षा या उपेक्षा बचपन की खुशनुमा यादें , आने वाली पीढ़ियों को नसीहतें आदि छुपी होती थीं...। स्त्रियों के बीच सदियों-सदियों ये मौखिक महाकाव्यात्मक धारा अबाध रूप से झरती-बहती रही......परन्तु अब ये विलुप्त होने की कगार पर है....।
आज जरूरत है कि इस वाचिक परम्परा को सहेजा-संभाला जाय.....क्योंकि लोक को आत्मा लोकगीतों में बसती है और लोक के प्राण खेतों ,बागों और अपने जानवरों में बसते हैं...।यदि लोकगीतों को बचाना है तो पहले लोक को बचाना होगा...। आजादी के बाद से हमारे लोकतंत्र ने कृषि को उपेक्षित किया और इसे समझने के लिए किसी शोध की आवश्यकता नहीं......खेती के अलाभकारी होते जाने से लोक धीरे-धीरे मर रहा.....मरणासन्न लोकगीतों को मिस्र के पिरामिड की ममी बनाकर रखने के लिए लोग तत्पर हैं पर पूँजी के चक्रवात में फंसे लोक और अंततः मनुष्यता को बचाने के लिए कब कटिबद्ध होगा ये लोक,कब सन्नद्ध होगी लोक की सभा ?
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