मसीहोर से शैलेष तिवारी।
भौतिकता की चकाचौंध में खोये हम, सिक्कों की खनखनाहट सुनते ही ईमान धर्म और ज़मीर सब कुछ बेचने को तैयार हो जाते हैं। लोभ और लालच हर काल में और परिस्थिति में अपना रंग दिखा कर असर जमाता रहा है। लेकिन देश के लिए जिन्होंने सब कुछ सहकर आज़ादी की मशाल हमारे हाथों तक पहुचाई है। उन्हीं का पुण्य स्मरण करने की पावन बेला है।
थोड़ा सा रुकिए, उन सभी हुतामात्माओं का वंदन। लेकिन यहां चर्चा उस शख्स की जिसने देश की माटी का गौरव एक अलग अंदाज में बढ़ाया। शायद उन्ही के कौशल का जादू था कि उस समय हर हिन्दुस्तानी गर्व से कहता होगा, विश्व विजयी तिरंगा प्यारा।
आइये इस सस्पेंस को ख़त्म कर उस शख्सियत से और उसके कारनामों से आपको अवगत कराएं। जिन्होंने मुझे अपनी उस घटना से गहरे तक अहसास करा दिया कि देश भक्ति का एक अंदाज ये भी है।
घटना है मेजर ध्यानचंद के जीवन की, बिलकुल ठीक पहचाना आपने। वही हाकी के विश्व विख्यात जादूगर ध्यानचंद। उनके सुपुत्र अशोक ध्यानचंद से पिछले दिनों सीहोर में एक कार्यक्रम में मुलाक़ात हुई। बातचीत में उन्होंने ही अपने पिता के जीवन से जुडा एक किस्सा सुनाया ।
किस्सा कुछ यूँ था कि भारतीय हाकी टीम बर्लिन ओलिम्पिक में खेल रही थी। ध्यानचंद जी के जादुई खेल से लोगों को ये तक भ्रम हो गया कि उनकी स्टिक में कोई चुम्बक लगी है। स्टिक बदल कर खेलने के बाद भी ध्यानचंद जी का जादुई खेल जारी रहा। हर विरोधी टीम के गोल पोस्ट के पटिये गोल दर गोल बजते रहे। भारतीय टीम फाइनल मैच भी जीत गयी।
किस्मत की बात है कि उस मैच को तत्कालीन तानाशाह शासक हिटलर भी देख रहा था। मैच के बाद हिटलर ने ध्यानचंद की अपने पास बुलाया और उनसे ये कहा कि भारत देश आपको क्या देता होगा, आपके इस शानदार हाकी के खेल के बदले।आप जर्मनी के लिए खेले, मैं आपको अपनी सेना में शानदार ऊँचा ओहदा देंगे और अन्य सुविधाएं भी। जो आपको भारत में नहीं मिलती होंगी।
इस आकर्षक प्रस्ताव को सुनकर हिटलर जैसे तानाशाह के सामने दृढ़ता के साथ ये जबाव दिया कि, मैं भूखा रह सकता हूँ। जो मुझे मिल रहा है वो भी ना मिले लेकिन मैं भारत से ही खेलना पसंद करूंगा।
जबाव सुनकर हिटलर ने क्या कहा या क्या सोचा। इसका अंदाज कुछ हद तक लगाया जा सकता है। परन्तु उस जबाव ने हम भारतीयों के रोंगटे आज भी खड़े कर दिए हैं। वन्दे मातरम।
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