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मध्यप्रदेश:राजनीति की द्रोपदी निर्वस्त्र बीच बजार

खरी-खरी            Oct 12, 2018


राम विद्रोही।
पक्का है अब हाथी गली-गली घूमेगा, साइकल अलग पटरी पर चलेगी। इनके अलावा भी गोगपा, सपाक्स, जयस आदि बहुत सारे दल चुनाव मैदान में होंगे। मतलब इस बार के विधान सभा चुनाव में राजनीति कम और सर्कस का मनोरंजन ज्यादा होगा।

हाथ झटक कर बसपा सुप्रीमो मायावती ने अपनी राजनीति की दिशा साफ कर दी है। उनके बारे में कांग्रेस अंतिम समय तक क्यों मुगालते में बनी रही, इसे लेकर कांग्रेस नेतृत्व की समझ पर सवालिया निशान लग जाता है। देश को चलाने का दावा करने वाले क्या इतने गफलत में जी रहे हैं?

बसपा की तरह सपा ने भी कांग्रेस से किनारा कर के अपना रास्ता अलग पकड़ लिया है। हाथी के पीछे अकेली साइकल ही नहीं चलेगी उसके पीछे चार और दल या मोर्चे भी होंगे जिनमें दो पहली बार चुनाव का स्वाद लेने वाले हैं।

कांग्रेस इस समय राजनीति के बियावान में निपट अकेली खडी नजर आ रही है। उसके सम्भावित साथी ही उसके रास्ते में गड्ढा खोदने के लिए पूरी तैयारी के साथ मैदान में होंगे। यह बात समझ से परे है किै कांग्रेस नेतृत्व विधान सभा चुनाव में महागठबंधन को लेकर कौन सी प्रत्याशा में था?

कुछ पीछे मुड़कर देखें तो गैर भाजपाई दलों ने अविश्वास प्रस्ताव के मतदान में ही महा गठबंधन की जांघ उघाड कर रख दी थी। यह बात कांग्रेस आला नेतृतव क्यों नहीं समझ सका।

अविश्वास प्रस्ताव पर संसद में कई विपक्षी दलों ने कांग्रेस को धोखा दिया था जो मतों की गिनती से ही साफ हो गया था फिर भी कांग्रेस मुगालते में जीती रही, उसी समय इन सहयोगियों की फितरद कांग्रेस को समझ जाना चाहिए था।

इस बार मप्र के विधान सभा चुनाव काफी मनोरंजक रहने वाले हैं, अकल्पनीय नजारे देखने के लिए लोगों को तैयार रहना चाहिए। मप्र में निरंकुश हो कर हाथी गली-गली घूमेगा। जो बसपा के साथ गठबंधन को लेकर कुलांचे भर रहे थे लगता है उन्हें समकालीन राजनीति का ककहरा भी समझ नहीं आता।

मायावती राज्यों में छोटे दलों के साथ गठबंधन कर के अपने को मजबूत करना चाहतीं हैं तब वह कांग्रेस के साथ कैसे आ सकतीं थीं? यह कोई चोरी छिपे की बात नहीं खुला खेल फर्रूखाबादी की तरह है।

कर्नाटक विधान सभा चुनाव में मायावती ने जेडीएस जैसे छोटे दल से खुद तो गठबंधन किया ही इसके लिए कांग्रेस को भी मजबूर किया। मायावती के कहने पर ही कांग्रेस जेडीएस के साथ आई। मगर हद तो तब हो गई जब विधान सभा में सब से बडा दल होने के बाद भी कांग्रेस ने मुख्यमंत्री की गादी एक छोटे दल जेडीएस को परोस कर दे दी।

राजनीति में उदारता की कोई जगह नहीं है, उदारता का मतलब कमजोरी ही होता है और कर्नाटक में कांग्रेस ने देश को यही संदेश दिया।

मप्र, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी मायावती इसी लाइन पर चल रहीं हैं। छत्तीसगढ में उन्होंने अजीत जोगी से गठबंधन किया है तो हरियाणा में उनके साथ चोटाला का इनेलो है। मप्र में वह किसी के साथ चुनावी गठबंधन की जरूरत ही नहीं समझतीं, इस लिए मप्र के चुनाव में हाथी पूरी निरंकुशता के साथ घूमने वाला है।

असल में मायावती की पूरी राजनीति अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव के आसपास घूम रही है। छोटे दलों को साथ लेकर वह किसी भी तरह बसपा की 50 लोकसभा सीटें जीतना चाहतीं हैं ताकि सत्ता की चाबी उनके हाथ में रहे जिससे प्रधान मंत्री बनने का उनका सपना पूरा हो सके।
मप्र की राजनीति आम तौर पर दो दलीय ही रही है। किंतु सन 1990 के विधान सभा चुनाव में दो सीटें जीत कर बसपा ने सभी को चोंका दिया था।

सन 1998 के विधान सभा चुनाव में इसका फायदा बसपा को मिला और उसने ग्यारह सीटें जीत कर अपनी धमाकेदार उपस्थिति दर्ज कराई। इससे पहले सन 1996 के लोकसभा चुनाव में भी मप्र से बसपा के दो सांसद चुने गए। इस तरह मप्र में बसपा तीसरी राजनीतिक ताकत बन कर सामने आई। हालांकि इसके बाद उसे खास सफलता तो नहीं मिली पर चुनाव में उसे मिलने वाले वोट उसकी जडों की गहराई की गवाही दे रहे थे।

मप्र के पिछले विधान सभा चुनाव में बसपा को 6.29फीसदी वोट मिले और उसे चार सीटों पर जीत हासिल हुई। वह दस सीटों पर दूसरे स्थान पर रही। 17 सीटों पर उसे 20 हजार से अधिक वोट मिले और 62 सीटों पर वह दस हजार वोट लेने में सफल रही। इतना ही नहीं तीन दर्जन सीटों पर बसपा 20 प्रतिशत वोट लेने में भी कामयाब रही। वोटों के इस आंकडे पर सत्ता के दावेदार कांग्रेस आदि दलों ने कभी होम वर्क करने की या तो जरूरत ही नहीं समझी या फिर उन्हें होम वर्क करना आता ही नहीं।

यह कितनी अजीब बात है कि जनता बदलाव को आतुर दिख रही है लेकिन खुद कांग्रेस इसके लिए तैयार नहीं है। राहुल गांधी या दूसरे नेताओं के आगमन पर कांग्रेसी खूब जोश दिखाते हैं और इसके बाद नींद की गोली गटक कर विश्राम की मुद्रा में आ जाते हैं।

उनकी सोच है कि जब राहुल जी, सिंधिया जी, कमलनाथ और दिग्विजय सिंह हैं तो उन्हें कुछ करने की जरूरत ही नहीं है। जनता झकमार कर कांग्रेस का नहीं तो किसका राजतिलक कोगी? प्रतिष्ठित कवि राजहंस सेठ एक कविता में व्यक्त करते हैं कि हाथी को मारने के लिए केवल चींटी जैसी चेतना की जरूरत होती है,कांगेसियों के पास शायद अब यह भी नहीं बची है।

आज के दौर में राजनीति में कुछ पाना है तो आशीर्वाद, अनुकम्पा और अनुग्रह से कुछ होने जाने वाला नहीं है, कुछ अपना भी पराक्रम रचना-दिखाना पड़ता है। यह बात पता नहीं कांग्रेस कब समझेगी? क्योंकि उसकी इन आदतों से विपक्ष कमजोर हो रहा है जो लोकतंत्र की सेहत के लिए ठीक नहीं है, इससे तानाशाही मनोवृति को बढावा मिलेगा।

मप्र की चुनावी राजनीति से पर्दा उठ चुका है और मंच के सभी पात्र अनावृत दिखाई दे रहे हैं। हालात ऐसे बने हैं-राजनीति की द्रोपदी नंगी बीच बजार, स्वयं परमात्म प्रभु करें धोती का व्यापार।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और चिंतक हैं।

 



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