शिक्षा तंत्र पर बाजार प्रेरित कॉकस हावी

खरी-खरी            May 16, 2019


हेमंत कुमार झा।
सीबीएसई और आईसीएसई के अंक पत्र किसी परीक्षा के रिजल्ट से अधिक बाजार के प्रोडक्ट हैं। बाजार अगर अपने प्रोडक्ट की चमक बढाने की जुगत नहीं लगाएगा तो उसका बिजनेस कैसे बढ़ेगा?

जैसे कि... दिल्ली-एनसीआर सहित देश के अन्य महानगरों के अति महंगे डिजाइनर स्कूलों में नामांकन की मारामारी अब और बढ़ेगी। जैसे-जैसे इन स्कूलों की चेन खुलती गई हैं, रिजल्ट में अंकों के प्रतिशत में बढ़ोतरी होती गई है।

एसी क्लास रूम्स, एसी बसें, अति महंगी फीस, अति धनाढ्य घरों के बच्चे, सुव्यवस्थित और इनोवेटिव क्लास रूम एक्टिविटीज...। लेकिन...क्या इन्हीं सब से हिन्दी, अंग्रेजी, इतिहास आदि में 99 या 100 नम्बर आ जाते हैं?

नहीं, एक सिस्टम डेवेलप कर दिया गया है जिसने शिक्षा-शास्त्र को अपनी जेब में रख लिया है और बाजार के मैकेनिज्म को टेबल पर। किसी बच्चे को किसी विषय में 90 से कम आया नहीं कि मास्टर जी को शो कॉज...डैड को उलझन, मॉम को टेंशन। आखिर, एक बच्चे पर सालाना लाखों का खर्च है जी।

12वीं के बाद सीधे सेंट स्टीफेन में एडमिशन नहीं मिला तो किस काम के इतने खर्च, किस काम के ये डिजाइनर स्कूल?

सर्वे होना चाहिये कि 12वीं में ओवर ऑल 95 प्रतिशत से अधिक नम्बर लाने वाले तमाम बच्चों की बैकग्राउंड क्या है, वे किन स्कूलों से हैं, वे स्कूल किन शहरों में हैं।

शिक्षा-शास्त्रियों की भागीदारी वाली एक जांच कमिटी बननी चाहिये और उसे समय सीमा देकर हिन्दी, अंग्रेजी, इतिहास आदि कला विषयों की ऐसी तमाम कापियां सौंप देनी चाहिये जिनमें 99 से 100 प्रतिशत अंक दिए गए हैं।

यह जांच कमिटी देश को बताए कि आखिर उन उत्तर पुस्तिकाओं में ऐसा क्या था कि...जिसके आगे राह नहीं।

अब देश के बड़े और नामचीन कालेजों में ग्रेजुएशन के एडमिशन में उन बच्चों का एकाधिकार होगा, जो हैरत अंगेज नम्बर लाकर पास हुए हैं।

लगता है, इस पूरे तंत्र पर बाजार प्रेरित कॉकस हावी हो गया है जो मनमाने तरीके से काम कर रहा है। शिक्षा-शास्त्र की सैद्धान्तिकी और उसकी व्यावहारिकताएँ गई तेल लेने। बाजार के अपने नियम होते हैं, अपने खेल होते हैं।

रिजल्ट आते हैं, बाजार में उन स्कूलों की साख बढ़ती है जिनके अधिकतर बच्चे 97-98-99 प्रतिशत के साथ पास होते हैं। उन्हें फीस में और अन्य देनदारियों में मनमानी वृद्धि की सहूलियत मिलती है। अखबारों में बड़े-बड़े विज्ञापन, अपने प्रोडक्ट्स की फोटुओं के साथ, कोष्ठक में उनके प्राप्तांकों के साथ, ऊपर कोने में डायरेक्टर/प्रिंसिपल की फोटू।
जैसे, फेयर लवली का विज्ञापन लड़की की फोटू के साथ बताता है कि उसने यह क्रीम लगाई...और देखो जी, मैं कितनी गोरी हो गई।

केंद्रीय और नवोदय विद्यालयों के भी बहुत सारे बच्चे बहुत अच्छे-अच्छे वाले नम्बरों के साथ पास हुए होंगे, लेकिन बहार तो डिजाइनर स्कूलों के रिजल्ट्स की ही है। एक से एक अंग्रेजी नाम वाले स्कूल...जिनके बच्चे हिन्दी बोलने में भी शर्म महसूस करते हैं, जिन्हें हिन्दी बोलते पाए जाने पर डांट तक पड़ जाती है, जो घर मे ममा से रूठते भी अंग्रेजी में हैं। ताज्जुब यह कि परीक्षा में हिन्दी में सीधे 98-99 ले आते हैं। जी हां, 12वीं स्टैंडर्ड की हिन्दी में। कितने तो सीधे 100 में 100.

सुना, बिहार परिक्षेत्र के स्कूलों में रिजल्ट्स मात्र 66 प्रतिशत के करीब आए हैं। उनमें भी, अच्छे, महंगे स्कूलों के बड़े घरों के बच्चे ही अधिक प्रतिशत में होंगे।

यानी, बिहार के सामान्य स्कूलों के आधे बच्चे फेल कर गए। जहां नम्बरों की बरसात हो रही हो, वहां इतने बच्चे फेल? आखिर वे कौन से स्कूल हैं? उनकी पढ़ाई का स्तर क्या है? निश्चित ही, फेल करने वाले बच्चों की बड़ी संख्या निजी स्कूलों से होगी। बिहार के नवोदय और केंद्रीय विद्यालय इतने भी गए बीते नहीं कि उनके आधे बच्चे फेल हो जाएं। हालांकि, इसका कोई आंकड़ा फिलहाल उपलब्ध नहीं।

दिल्ली यूनिवर्सिटी सहित देश के अन्य बड़े कॉलेजों में बिहार, यूपी, उड़ीसा आदि के बच्चों का नामांकन वर्ष दर वर्ष कठिन होता जा रहा है। बावजूद इसके कि ये भी अंग्रेजी माध्यम से पढ़े हैं, प्राइवेट स्कूलों में पढ़े हैं। उन्हें 99 प्रतिशत जो नहीं आए। चुनिंदा बच्चे ही वहां तक पहुंच पा रहे हैं।

उनकी बात ही क्या करनी जिन्होंने बिहार-यूपी के सरकारी स्कूलों से 12वीं पास की है। ओवर ऑल 80-85 प्रतिशत अंक भी यहां बहुत अधिक हैं। 90-91 प्रतिशत में तो स्टेट के टॉप टेन में लोग आ जाते हैं।

एक संस्था से 90 प्रतिशत लाकर कोई बच्चा उदास होता है, वहीं, दूसरी संस्था से कोई 90 प्रतिशत ला कर खुशी से उछल रहा है।

और...ज्ञान के स्तर की वास्तविकता...? उससे किसे मतलब है। यहां तो जगह हथियाने की मारामारी है। अभी एडमिशन के लिए, कल नौकरी और बेहतर पैकेज के लिये। जानकी वल्लभ शास्त्री की कविता की एक पंक्ति याद आ रही है..."ऊपर ऊपर ही पी जाते हैं, जो पीने वाले हैं।"

शिक्षा के बाजारीकरण की कुरूपताएँ सामने आनी तो अभी शुरू ही हुई हैं। बाजार की प्रवृत्ति सर्वग्रासी होती है। आप उसके लिये रास्ते खोलेंगे, वह आपको बहा ले जाएगा। सब कुछ ग्रस लेगा। आपकी अस्मिता को भी।

लेखक पाटलीपुत्र युनिवर्सिटी में एसाशिएट प्रोफेसर हैं।

 



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