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भारत में ईज़ ऑफ डूइंग बिज़नेस नहीं है, सरकार चाहे जो दावा कर ले

खरी-खरी            Aug 02, 2019


डॉ. प्रकाश हिंदुस्तानी।
सीसीडी मालिक की आत्महत्या के मामले में आयकर महानिदेशक (जाँच) बी. आर. बालकृष्ण की भूमिका?

क्या कैफ़े कॉफ़ी डे (सीसीडी) के प्रमुख वी. जी. सिद्धार्थ को आत्महत्या करने के लिए उकसाने वाले इनकम टैक्स विभाग के आला अफ़सर को बचाने की कोशिश की जा रही है?

क्या आत्महत्या करने से पहले लिखे गए सिद्धार्थ के ख़त को इसीलिए फ़र्जी साबित करने की कोशिश की जा रही है? इस मामले में आयकर विभाग के कामकाज के तरीके पर सवाल उठ रहे हैं।

इस घटना से कॉरपोरेट जगत में दु:ख और गुस्सा है। यह भारत की फिसलती अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा नहीं। यह घटना ऐसे समय हुई है जब सरकार देश की अर्थव्यवस्था को 5 खरब डॉलर तक ले जाने की बात कह रही है।

अर्थव्यवस्था के हाल पहले ही खराब हैं और उसे सुधारने की दिशा में कुछ तो नहीं ही किया जा रहा है, बची-खुची साख भी ख़राब हो रही है।

सिद्धार्थ ने अपने नोट में किसी का नाम नहीं लिया है, पर जिस अफ़सर ने सीसीडी के शेयर जब्त कर लेने का आदेश दिया था, वह बी. आर. बालकृष्ण हैं।

भारतीय दंड संहिता की धारा 306 के अनुसार, यदि कोई व्यक्ति किसी को आत्महत्या करने के लिए उकसाने का दोषी पाया जाता है तो उसे अधिकतम 10 साल तक की जेल की सज़ा दी जा सकती है।

इसके साथ ही उस पर ज़ुर्माना भी लगाया जा सकता है। इसी धारा में यह कहा गया है कि किसी को आत्महत्या के लिए उकसाने का दोषी कैसे माना जा सकता है।

कौन है दोषी? जो किसी को आत्महत्या करने के लिए उकसाए, किसी को आत्महत्या करने के लिए साजिश रचने वालों में शामिल हो या आत्महत्या करने में जानबूझ कर मदद करे।

क्या हुआ ईज़ ऑफ़ डूइंग बिज़नेस का? लेकिन इस आत्महत्या के गंभीर आर्थिक मायने हैं। इसके कई पहलू हैं। इस आत्महत्या से यह संकेत जाता है कि भारत में 'ईज़ ऑफ डूइंग बिज़नेस' यानी व्यापार करने में सहूलियत नहीं है, सरकार चाहे जो दावा कर ले।

नरेंद्र मोदी सरकार ने कुछ दिन पहले ही यह दावा किया था कि 'ईज ऑफ डूइंग बिज़नेस' में सुधार हुआ है, पर यदि 1.2 अरब डॉलर यानी 8,200 करोड़ रुपये के नेटवर्थ का आदमी ख़ुदकुशी करता है, तो कुछ तो गड़बड़ ज़रूर है।

सिद्धार्थ ने नोट में लिखा है कि किस तरह वह बहुत ही ज़बरदस्त दबाव में थे। वह बताते हैं कि उन्हें जानबूझ कर ग़लत तरीके से परेशान किया गया, आयकर विभाग के एक महानिदेशक ने भी उन्हें परेशान किया। सिद्धार्थ दीवालिया हो सकते थे, माल्या की तरह भाग सकते थे, लेकिन उन्हें आजीवन जेल में सड़ाने/ बदनाम करने की धमकी दी गई थी।

कई लोगों के लिए प्रतिष्ठा जान से प्यारी होती है। (प्रतिष्ठा के लिए ही एक संपादक और एक संत ने आत्महत्या की थी, याद है?) सुसाइड नोट में सिद्धार्थ ख़ुद को ज़िम्मेदार मानते हैं और कहते हैं कि किसी दूसरे को परेशान न किया जाए न ही उसे दोषी माना जाए। वह कहते हैं कि उनका मक़सद कभी भी किसी को धोखा देना नहीं था।

किसी भी व्यक्ति के मरते समय के बयान को अदालत में प्रमाणिक साक्ष्य माना जाता है। इससे यह साफ़ है कि सिद्धार्थ का यह बयान ग़लत या झूठ नहीं है। उनके इस बयान को अदालत में प्रामाणिक माना जाएगा? यदि आयकर विभाग उनके हस्ताक्षर पर संदेह करने पर अड़ा रहता है तो इसकी जाँच कराई जा सकती है।

 



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