फिल्म समीक्षा: तथ्यों और कल्पनाओं का घालमेल द ताशकंद फाइल्स

पेज-थ्री            Apr 14, 2019


डाॅ. प्रकाश हिन्दुस्तानी।
द ताशकंद फाइल्स का डायलॉग है -ट्रूथ इज़ ए लग्ज़री। फिल्म यह लग्जरी बर्दाश्त नहीं कर पाई। दूसरे डायलाॅग भी कम दिलचस्प नहीं है।

जैसे टीवी के सामने बोलने के लिए नहीं, चुप रहने के लिए करेज की जरूरत होती है। राजनीति में कुछ भी सच नहीं होता, लोग सच नहीं, सच की कहानी सुनना पसंद करते हैं।

एक अन्य जगह गृह मंत्री कहते है कि सच से नहीं, अफवाहों से डरना चाहिए, क्योंकि अफवाहें इस तरह फैलती है कि लोग अफवाहों को ही सच समझने लगते है।

फिल्म कहती है कि ग्लोबलाइजेशन केवल कार्पोरेट गुलामी है और कुछ नहीं। लोकतंत्र वोट से नहीं विवेक और विचार से चलता है।

ऐसे ही डायलाॅग्स को मिलाकर शास्त्रीजी की मृत्यु के 53 साल बाद एक फिल्म बनाई गई है, जिसका मकसद मोटे तौर पर यही नजर आता है कि लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु हार्ट अटैक से नहीं हुई, उनकी हत्या की गई और उनकी हत्या में कुछ खास लोगों को फायदा हुआ।

अब आप अंदाजा लगाइए कि किन्हें फायदा हुआ था? फिल्म इस तरह जलेबी की तरह घुमा कर बातें कहती है कि खत्म होते-होते दर्शक को लगता है कि लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु सोवियत संघ की खुफिया एजेंसी केजीबी का षड्यंत्र थी।

फिल्म यह भी कहती है कि लाल बहादुर शास्त्री अगर जीवित होते, तो 10-15 साल उन्हें कोई चुनौती नहीं दे सकता था। वे भारत को सुपर पॉवर बनाना चाहते थे और परमाणु कार्यक्रम को आगे ले जाना चाहते थे।

वहीं यह फिल्म यह भी बताती है कि विजय लक्ष्मी पंडित लाल बहादुर शास्त्री के विरुद्ध संसद में अविश्वास प्रस्ताव लेकर आई थीं।

शक की बुनियाद कई बातों को लेकर खड़ी की गई है। शास्त्रीजी की मृत्यु पर सोवियत संघ की एजेंसी ने भारत सरकार के लिए अलग रिपोर्ट और सोवियत संघ की सरकार के लिए अलग रिपोर्ट क्यों लिखी?

शास्त्रीजी के खानसामे और डॉक्टर की मृत्यु बाद में सड़क दुर्घटनाओं में क्यों हुई? शास्त्रीजी जहां ठहरे थे, वहां ऑक्सीजन का प्रबंध क्यों नहीं था, जबकि 61 साल के शास्त्रीजी को पहले भी हार्ट अटैक आ चुका था।

एक मुस्लिम खानसामे को लेकर भी सवाल उठाया गया। यह दावा किया गया कि जब शास्त्रीजी की मृत देह दिल्ली लाई गई थी, तब वह काली पड़ चुकी थी और उनके शरीर पर कटने के निशान थे।

शास्त्रीजी के बहाने सुभाषचंद्र बोस की विमान दुर्घटना में मृत्यु, गुमनामी बाबा, जस्टिस सहाय की रिपोर्ट, 2जी, 3जी, बोफोर्स अनेक स्कैम्स आदि की भी चर्चा की गई है (राफेल को छोड़कर)।

द ताशकंद फाइल्स लोकसभा चुनाव को देखते हुए रिलीज की गई है। फिल्म में राजनीतिक षड्यंत्र के ईर्द-गिर्द कहानी बुनी गई है, जिसका आधार लिया गया है भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की 1966 में हुई ताशकंद में रहस्यमय मृत्यु।

शास्त्रीजी की मृत्यु को हार्ट अटैक माना गया था। उनका पोस्टमार्टम भी नहीं किया गया था और पंचतत्व में लीन कर दिया गया। पोस्टमार्टम की मांग न तो उनके परिवार की ओर से की गई थी और न ही पीएमओ या गृह मंत्रालय की तरफ से। बाद में बहुतेरी बयानबाजियां हुई।

शास्त्रीजी को न केवल 1965 के भारत-पाक युद्ध का हीरो बताया गया, बल्कि यह भी बताया गया कि वे ही इकोनाॅमिक रिफॉर्म्स के पहले जनक थे।

कुल मिलाकर फिल्म अलग-अलग तरीकों से यह कहने की कोशिश करती है कि लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु सामान्य हार्ट अटैक से नहीं हुई, बल्कि षड्यंत्र करके उनकी हत्या की गई।

शास्त्रीजी भारत और पाकिस्तान युद्ध के बाद पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री अय्युब खान के साथ एक समझौता करने के लिए सोवियत संघ गए थे।

वहां समझौते के बाद शास्त्रीजी का निधन हो गया था। पूर्व प्रधानमंत्री की मृत्यु को मर्डर मिस्ट्री की तरह प्रस्तुत किया गया है और अंत में डिस्क्लेमर लगाकर रचनात्मकता के नाम पर छूट भी ले ली है और जिम्मेदारी से मुक्त होने की कोशिश की है।

इमरजेंसी पर भी काफी टिप्पणियां है और इंदिरा गांधी के खिलाफ भी। ध्यान से देखे, तो यह फिल्म यह कहती नजर आती है कि शास्त्रीजी की मृत्यु से जिस व्यक्ति को लाभ हुआ, वह इंदिरा गांधी ही थी।

निश्चित ही देश के लोग जानना चाहते है कि भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु आखिर किन कारणों से हुई।चुनाव के मौके पर फिल्म बनाकर इस कहानी को भुनाने की कोशिश की जा रही है। फिल्म में अनेक जगह नाटकीयता की हद पार कर दी गई है।

इतिहास के विवादास्पद पहलुओं को चित्रित करना फिल्म निर्देशक की रचनात्मक आजादी हो सकती है, लेकिन उस आजादी का ऐसा उपयोग होगा, इसकी कल्पना कोई नहीं कर सकता। पूरी कहानी एक युवा पत्रकार के माध्यम से कही गई है।

युवा पत्रकार की भूमिका में श्वेता बसु प्रसाद ने कई जगह ओवर एक्टिंग की है। भाषणबाजी कई बार ऊबाऊ होने लगी। एक अंग्रेजी अखबार की प्रमुख पत्रकार को शास्त्रीजी की मृत्यु पर 5 दशक बाद स्कूप बनाने की सूझती है और उसे फीडबैक देने वाला कोई अज्ञात होता है।

वह शास्त्रीजी की मृत्यु पर तो खूब पड़ताल करती है और ताशकंद तक पहुंच जाती है, लेकिन यह जानने की कोशिश नहीं करती कि आखिर वह काम किसके इशारे पर कर रही है। फिल्म कहती है कि हमारे यहां राजनीतिज्ञ, पत्रकार, एनजीओ, सरकारी अधिकारी, डॉक्टर्स, न्यायाधीश, वकील, लेखक, इतिहासकार, कलाकार सभी कठपुतली है और वे किसके इशारे पर कार्य कर रहे है, यह कोई नहीं जानता।

फिल्म में नसीरुद्दीन शाह और मिथुन चक्रवर्ती ने नेताओं की और पल्लवी जोशी ने इतिहासकार की भूमिका निभाई है। ओमकार कश्यप, गंगाराम झा, जस्टिन कूरियन, इंदिरा जोसेफ राय, विनय पाठक आदि के रोल भी फिल्म में है।

पूरी फिल्म में ऐतिहासिक पुस्तकों, संदर्भों और तथ्यों का सनसनीखेज इस्तेमाल किया गया है। फिल्म बेहद खीची हुई और बोझिल लगती है। लाल बहादुर शास्त्री के नाम पर दर्शक उसे झेलते हैं।

 



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