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तुरंत लाभ की प्रत्याशा में दीर्घकालीन मूर्खता में प्रियंका के सियासी टोटके कितने कारगर

राजनीति            Mar 24, 2019


प्रकाश भटनागर।
यह मीडिया की कोई मजबूरी थी? किसी प्रतिबद्धता के चलते ऐसा किया गया? या इसके पीछे केवल यह भाव रहा कि मामला प्रियंका वाड्रा की ग्लैमरस छवि के साथ मेल नहीं खा पा रहा था। इनमें से कोई तो ऐसा कारण रहा, जिसके चलते कल के एक अहम घटनाक्रम को समाचारों में स्थान नहीं दिया गया है।

बात यह कि कल जिस समय कांग्रेस महासचिव प्रयागराज में गंगा की लहरों पर सियासी कश्ती की पतवार थाम रही थीं, तब वहां एक अलग किस्म का शोर गूंजा। उन कांग्रेसियों ने प्रियंका के खिलाफ नारेबाजी की, जो उत्तरप्रदेश को लेकर पार्टी नेतृत्व के ढुलमुल रवैये से आहत हैं।

यह धड़ा इस बात से खफा था कि इस राज्य को लेकर राहुल गांधी ने जो कुुछ कहा, पार्टी उसके ठीक उलट आचरण कर रही है। राहुल ने कहा था कि पार्टी उत्तरप्रदेश में फ्रंट फुट पर खेलेगी।

जाहिर था कि इसका मतलब अपनी दम पर चुनाव लड़ने से था। लेकिन ऐसा नहीं किया गया। पार्टी की नैया उस समय जोरदार तरीके से डगमगाती दिखाई दी, जब अहमदाबाद में आयोजित राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक के तुरंत बाद प्रियंका वाड्रा भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर रावण की मिजाजपुर्सी करने चली गयीं।

उनका यह जतन पार्टी के लिए गठबंधन के नाम पर मातमपुर्सी वाला साबित होता दिख रहा है। क्योंकि इस मुलाकात के बाद भी रावण ने वही कहा, जो पहले बोला था। उन्होंने कांग्रेस से हाथ मिलाने से साफ इनकार कर दिया।

इधर, नैया के खिवैया होने का दम भर रहे राहुल ने भी पार्टी के आत्मविश्वास को मूर्खता के भंवर की ओर मोड़ने में देर नहीं की। इस राज्य के लिए घोषित सीटों में से सात समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और उनके साथी दलो के लिए छोड़ दीं।

नतीजा यह कि मायावती और अखिलेश यादव ने हिकारत भरे अंदाज में कांग्रेस की यह पेशकश सार्वजनिक रूप से खारिज कर दी।

इन दो घटनाक्रम का ही नतीजा था कि जुम्मा-जुम्मा चार रोज पहले पार्टी की गतिविधियों में सक्रिय हुईं श्रीमती वाड्रा को अपने ही लोगों के गुस्से का सामना करना पड़ गया।

ब्रहृमलीन युग पुरुष पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य ने लिखा था, ‘बुद्धिमान वे हैं, जो बोलने से पहले सोचते हैं। मूर्ख वे हैं, जो बोलते पहले और सोचते बाद में हैं।’ अपने अधिकांश सार्वजनिक आचरणों के चलते राहुल गांधी उक्त वाक्य के दूसरे हिस्से में पूरी तरह फिट दिखते हैं।

यदि उन्हें सपा और बसपा की चिरौरी करना ही थी तो फिर कोई वजह नहीं थी कि ‘फ्रंट फुट’ वाली बात कही जाए, वो भी छोटा मुंह, बड़ी बात वाले बेवकूफाना तरीके से।

लगता है कि गांधी जोश-जोश में यह कह गये और जब होश आया तो वह लपककर बात संभालने के जतन में लग गये और वहां भी उन्हें औंधे मुंह की खाना पड़ गयी।

है तो ये आम के बौराने का समय और इसके साथ जुड़े चुनावी मौसम में राहुल गांधी बौराये हुए आचरण का सशक्त प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। किसी भी कीमत पर मोदी की हार के फेर में वह बौखलाहट से भरे दिखते हैं।

गांधी को यह समझना होगा कि कांग्रेस की प्राथमिक जरूरत जीत नहीं, संगठनात्मक ताकत है। उसकी इस ताकत का बुरी तरह क्षरण हो चुका है। कार्यकर्ताओं का मनोबल जमीन पर गिरे पारे की तरह इधर से उधर तैर रहा है, लेकिन किसी के हाथ नहीं आ पा रहा।

गांधी ने जरा अक्लमंदी का परिचय दिया होता तो वह बूझ पाते कि फ्रंट फुट पर खेलने की उनकी बात से पार्टीजनों का उत्साह किस चरम पर पहुंच गया था।

इस जोश को बनाये रखकर पार्टी दीर्घावधि में फिर से अपनी खोयी जमीन पा सकती थी, लेकिन श्रीराम शर्मा आचार्य की पंक्ति के दूसरे हिस्से का पेटेंट करा बैठे गांधी इस तथ्य को समझ ही नहीं सके।

उन्होंने पार्टी को फिर ‘जो दे उसका भला, जो न दे उसका भी भला’ वाली दयनीय हालत में ला पटका है। प्रियंका वाड्रा भाई के जनेऊ पर लटककर लाख गंगा की पूजा कर लें और मंदिरों के चक्कर काट लें, वे इन टोटकों का तात्कालिक सियासी लाभ तो ले सकती हैं, लेकिन कांग्रेस की उस बीमारी को दूर नहीं कर सकतीं, जिसे हतोत्साहित होना कहते हैं।

अंत में यही कहा जा सकता है कि फ्रंट फुट से पलटने के चलते गांधी को बैक पर फुट यानी शरीर के पिछले हिस्से पर चरण प्रहार का जो स्वाद चखना पड़ा है, वह उनकी नादानियों का परिणाम हो सकता है तो फिर उसके लिए पूरी कांग्रेस पार्टी को सजा क्यों दी जाए?

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और एलएन स्टार समाचार पत्र के प्रधान संपादक हैं।

 



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