शेखर गुप्ता
जेएनयू मामले में सरकार को बहुत पहले दख़ल देना चाहिए था। विश्वविद्यालयों में, कैंपस में विद्यार्थी नारे लगाते ही हैं। अगर लड़के-लड़कियां कैंपस में शोर शराबा नहीं करेंगे तो कहां करेंगे? इसके ज़रिए भड़ास निकल जाती है।
सरकार की सबसे बड़ी ग़लती यह हुई है कि इसमें दिल्ली पुलिस को नहीं उलझना चाहिए था। अगर ये आक्रामक नारे भी थे तो वाइस चांसलर को कहना चाहिए था कि जांच करो, किसी को निलंबित कर दो। लेकिन इसमें दिल्ली पुलिस का उलझना और वह भी इतनी बेवकूफ़ी के साथ कि देशद्रोह का मुक़दमा कायम कर दिया जो देश की किसी भी अदालत में नहीं टिक सकता। जब तक कोई हथियार उठाकर किसी पर गोली न चलाए या षड्यंत्र करके रेलगाड़ी को न गिराए तब तक यह अदालत में टिकता ही नहीं है। ऐसे बहुत सारे फ़ैसले हैं, विशेषकर सुप्रीम कोर्ट के, जिसने साफ़ कर दिया है कि किसी को भी उसके विचारों के लिए, नारों के लिए, सहानुभूति के लिए देशद्रोही नहीं कहा जा सकता।
यह बहस अति-राष्ट्रीयता की ओर धकेल दी गई है, जो देश के लिए अच्छी बात नहीं है। दिल्ली पुलिस प्रमुख इस समय टीवी स्टार बने हुए हैं, वह जो कहें उसकी स्टोरी (ख़बर) बनती है और वह कहने से रुकते भी नहीं हैं। आज तो उन्होंने कुछ कविता भी सुना दी।
भारत की जो शासन व्यवस्था है उसे मीडिया से बात करना सीखना चाहिए। मशहूर सब होना चाहते हैं, सभी मौक़े पर ही बोलना चाहते हैं लेकिन अगर कुछ लोग चुप होकर अपना काम करें तो अच्छा रहेगा। इससे स्थिति क़तई बेहतर नहीं हो रही है। कन्हैया कुमार के जिस ख़त को दिखाकर यह संकेत दिए जा रहे हैं कि वह झुक गए हैं उसमें उन्होंने संविधान में आस्था की बात कही है - इसे क़तई भी झुकना नहीं कहा जा सकता।
वकीलों के मारपीट पर उतरने से यह साफ़ देखा जा सकता है कि वह राजनीतिक रूप से कहीं जुड़े हुए हैं। वैसे ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि उन्होंने गुंडई की है, ऐसा पहले भी हुआ है। मद्रास हाईकोर्ट में एक जज का घेराव कर लिया गया था और फिर उन्हें छुड़ाने के लिए पुलिस बुलाई गई तो पुलिस पर केस कर दिया।
दरअसल वकीलों की तादाद बहुत है और हर किसी के पास काम भी नहीं। फिर हमारी अदालतों का ढांचा ऐसा है कि केस एक के बाद एक मुल्तवी होते रहते हैं और इस तरह वकीलों को कुछ न कुछ मिलता रहता है, बाकी समय वह फालतू घूमते रहते हैं।
बहरहाल यह बहुत दुखदायी और शर्मनाक वाक़या है जो हुआ क्योंकि यह अदालत के परिसर में हुआ है। क्योंकि एक बार जब पुलिस किसी को पकड़ लेती है तो फिर उसकी सुरक्षा की ज़िम्मेवारी सरकार की होती है - फिर चाहे वह लश्कर-ए-तैयबा का चरमपंथी क्यों न हो, क़साब ही क्यों न हो। उसे जेल या फ़ांसी जो भी देना हो वह सिर्फ़ अदालत ही दे सकती है।
अब इस तनाव को ख़त्म करने की ज़िम्मेदारी प्रधानमंत्री पर ही है। जैसा कि उन्होंने मुंबई में आमिर ख़ान से मुलाक़ात करके किया। थोड़ी बात कर ली, खाने पर बुला लिया, सर पर हाथ फेर दिया - बस इसी से सारा तनाव ख़त्म हो जाता है।
साभार बीबीसी
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