डा० राम श्रीवास्तव
" असहिष्णुता " पर इस समय पूरे देश में बवाल मचा हुआ है । पर असहिष्णुता का असली अर्थ क्या है कोई नहीं जानता । राजनैतिक अवसरवादी और उनके पिट्टू वर्ग के लोग असहिष्णुता की गुलेल से अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए भारतीय गणतंत्र के दहाड़ते हुए ,पूरी दुनिया में अपनी धाक ज़माने वाले शेर की आँख में निशाना लगाने की निरर्थक कोशिश कर रहे है। हमारा ध्यान उस ओर क्यों नहीं जाता जहां जिंदा लोग लाश बन गये हैं और कुछ बनने की कगार पर हैं। क्यों हमारा ध्यान उस भौतिक असहिष्णुता की तरफ नहीं जाता जो कई इंसानों को धीरे—धीरे लील रही है,जहरीले रसायनों के दुष्प्रभाव के कारण
असहिष्णुता का सही रूप देखना है तो मेरे साथ आइए और पीथमपुर स्थित उस भट्टी को देखिए जहाँ यूनियन कार्बाइड भोपाल का ज़हरीला , सैकड़ों टन कचरा जलाया गया है। इस कचरे को जलाने वाले कौन हैं ,क्या आप जानते हैं ? नहीं कोई नहीं जानता। सरकार ने ठेका कचरा जलाने वाली कम्पनी को दे दिया । कम्पनी ने एक लोकल ठेकेदार को पकड़ा , उस ठेकेदार के दलालों ने झाबुआ अलीराजपुर के मज़दूरी ढूंडने निकले उन दर्जनों मामा लोगो को इकट्ठा किया, जो दिन रात मेहनत मज़दूरी करके पेट भरने लायक दाड़की कमा रहे हैं । सबसे पहिले "मिक" गैस बनाने वाले 120 थैलों मे भरे ज़हरीले पदार्थ को सीमेन्ट गिट्टी में मिला कर एक—एक फ़ुट आकार के क्यूब बनाकर धूप में सुखाया गया और इन क्यूबों को वहीं पहाड़ी में गाड़ दिया गया ।
ज़हरीले कचरे के क्यूब बनाने वाले चार मज़दूर बेहोश हो गए कुछ को तत्काल अस्पताल में भेजा गया। कम्पनी ने उन सभी मज़दूरों को तुरन्त काम से भगा दिया। आज वह मज़दूर कहाँ हैं ?कैसे हैं ? कहॉ से उन्हें लाया गया था ? उन्हें काम पर लेकर कौन लाया था ? उन मज़दूरों में से कितने ज़िन्दा बचे हैं ? कितने अभी बीमार हैं ?, उन्हें क्या बीमारी है ? इसका न तो कहीं कोई रिकार्ड है न कहीं किसी मीडिया या सोशल वर्कर को यह सब जानकारी इकट्ठा करने की फ़ुरसत है। सब कुछ जानते हुए भी आँखें मूँदकर उन अनपढ़ ग़रीब आदिवासियों से ख़तरनाक काम कराना,फिर उन्हें भगा देना,उनपर ज़हरीले कचरे का अब तक क्या प्रभाव पड़ा है ,इसकी कोई जानकारी नहीं रखना, यह सब "असहिष्णुता " का असली रूप है ।

आइये ज़रा शहर के पास बनी इस झुग्गी के भीतर झाँक कर देखें । यहाँ पर एक टूटी हुई खाट पर नरकंकाल बना हुआ 28 साल की उम्र का एक आदिवासी पड़ा है । वह किसी कम्पनी में महेश नामक इलेक्ट्रिशियन के सहायक का काम करता था । दस साल पहले उसे बिजली के खम्भे पर चढ़कर हैलोजन फ़िट करना था। करेन्ट लगी , नीचे गिर पड़ा। रीढ़ की हड्डी टूटगई।
कम्पनी ने अस्पताल में भर्ती कराकर इलाज तो कराया पर फ़ायदा नहीं हुआ। आज भी लक़वे का शिकार हुआ ग़रीब मज़दूर अपनी ज़िन्दगी से जूझ रहा है । उसके अन्धे पिता , लाचार माँ और बेसहारा बीवी रोज़ाना मज़दूरी करके सबका पेट पाल रही है।
किसी समझदार ने लेबर कोर्ट में शिकायत दर्ज करा दी। पर "समरथ को नहीं दोष गुसाँई " की कहावत चरितार्थ यहाँ होगई। कम्पनी ने अपने रिकार्ड से उस बन्दे का नाम ही साफ़ कर दिया। यद्यपि कम्पनी के मुख्य द्वार पर चौबीसों घण्टे चौकीदार है भीतर कोई बिना अनुमति घुसकर अनजान आदमी बिजली के खम्भे पर कैसे चढ़ सकता है ? पर क़ानून तो सिर्फ़ अमीरों और ताकतवरों का हथियार हो गया है। ग़रीब आदिवासियों के लिये यह सिर्फ़ संवैधानिक चुनावी लॉलीपॉप बनता जा रहा है।
अन्यथा आज़ादी के समय से लेकर आज तक झाबुआ क्षेत्र में २७ सौ लाख करोड़ रूपये विकास के नाम पर ख़र्च होजाने के बाद क्या अभी तक किसी आदिवासी को इस बात की ज़रूरत होना चाहिए थी कि बह दो जून पेट भरने के लिए दर—दर भटके ? ........पर विकास के चश्मे का रंग और क़ानून का सुनहरा धुआँ, चुनावी भाषणों में ही बड़ा ही भव्य नज़र आता है। उसकी ...ज़मीनी हक़ीक़त कुछ और ही होती है ... यह है असली "असहिष्णुता " जिसे हम सब जानते परखते हुए भी अनदेखा कर देते हैं।
"असहिष्णुता " का और भी नज़ारा देखना हो तो आइये ज़रा देवगुराडिया पहाड़ी की सैर कर लीजिए। यहाँ आपको इन्दौर नगर का ट्रेंचिंग ग्राउण्ड नज़र आयेगा। इन्दौर नगर जहाँ पचास साल पहले पाड़ा-गाड़ी के पीछे मशक भर कर भिश्ती चलते थे , जो रोज़ शाम को एम जी रोड के फुटपाथों को पानी से धोते थे ,जहाँ कृष्ण पुरा पुल के नीचे बैठे लोग मछलियाँ पकड़ते थे। चिड़िया घर के पुल पर कल—कल करते झरने के बीच बच्चे,बूढ़े, जवान छलाँग लगाकर कूदते नहाते थे। कभी किसी ज़माने में रेजीडेन्सी कोठी और चिड़िया घर के बीच जहाँ गोरी मेम और सफ़ेद गुलाब जैसे बच्चे नाव चलाते थे। उसी इन्दौर में रिंग रोड और बायपास तो बन गया , पर देवगुराडिया और रालामण्डल पहाड़ियों के जल बहाव को रोक कर ख़त्म कर दिया गया।
अब इन पहाड़ियों का पूरा पानी ज़मीन के नीचे बैठ कर इन्दौर नगर के भूमिगत जल स्त्रोतों में मिल रहा है। यहीं पर अब गहरे गड्डे करके लाखों टन शहर का कचरा ज़मीन में दबाया जावेगा। इस कचरे में ज़हरीले इलेक्ट्रानिक ,प्लास्टिक ,खाद्य पदार्थों के अवशेष तथा अन्य खतरनाक कूड़ा कचरा है। पूरे इलाक़े में आज भयंकर बदबू आती है। हवा में छोटे छोटे कीड़े मक्खियाँ उड़ती रहती हैं। उस पर इस कचरे को जलाया भी जाता है ,जिसका हमेशा रबर टायर और प्लास्टिक से निकले कैंसर रोग फैलाने वाला बदबूदार धुअॉ गहराता रहता है । इसके कारण आसपास के ग्रामीण तथा शहरी निवासियों के स्वास्थ्य पर क्या असर हो रहा होगा ? कोई नहीं जानता ।
अब जब भविष्य में इस कचरे को ज़मीन में दफ़ना दिया जावेगा तो यह बरसाती पानी में घुलकर भूमिगत जल को कितना ज़हरीला करेगा इसका कोई हिसाब किताब अभी नगर निगम स्वास्थ्य विभाग या सरकार के पास नहीं है। पूरी दुनिया में घरेलू कचरे को दो अलग—अलग ड्रमों मे घर घर से इकट्ठा किया जाता । एक वह कचरा जिसे रीसाइकिल किया जा सके । दूसरा वह जिसे नष्ट किया जावे। घरेलू खाद्य पदार्थों और बची खुची सड़ने वाली सामग्री को घर घर में डिस्पेन्सर नामक मशीनों से बारीक पीस कर नाली में बहाया जाता है। इस सब पानी को रीसाईकल करके बगीचों सड़क के किनारे लगे घास पर सिंचाई करके वातावरण को हरा भरा किया जाता है ।
हमारे मुल्क में कचरे को अलग—अलग करने की व्यवस्था नहीं है। हम यह अच्छी तरह जानते हैं कि बम्बई में मेरीन ड्राइव में जैसे पानी के थपेड़ों को रोकने के लिए ब्लाक बनाकर रखे गए हैं , वैसे ही इस प्रकार के ब्लाक यदि इन्दौर के ट्रेन्चिंग ग्राउण्ड के कचरे को बारीक करके सीमेन्ट कांक्रीट मे मिला कर तैयार किए जावें ,और उन्हे नर्मदा जैसी नदियों के किनारों पर बिछादिया जावे , तो नदियों के बहाव से होने वाले मिट्टी के कटाव को रोक कर अरबों ख़रबों रूपयों की भूमि को जल क्षरण से बचाया जा सकता .........हम सब इस ज्ञान से परिचित हैं .....इसका पूरा तकनीकी ज्ञान हमारे पास है । पर हम सब कुछ जानते समझते हुए इसे लोकहित की सरकारी फ़ाइलेों में प्रवेश नहीं दे सकते हैं ,
हमारे काम करने की मानसिकता कैसी है इसका प्रत्यक्ष अनुभव मुझे 1987 में उस समय हुआ जब मैं स्वंय 'लन्दन बॉरो आफ ईलिंग '-लन्दन के भारतीय मूल के "मेयर- महापौर " रवीन्द्र नाथ पाठक को अपने साथ मिलाने इन्दौर नगर निगम के तत्कालीन प्रशासक 'श्रीवास' साहेब के पास ले गया था । श्री पाठक इन्दौर नगर की फुटपाथों को इंग्लैण्ड के साउथ हाल मे बसे भारतीयों की ओर से उपहार में उत्तम बनाना चाहते थे,पर तत्कालीन प्रशासक महोदय ने मेरे सामने योजना को स्वीकारने के पूर्व उनकी स्वंय की और उनके परिवार की विदेश यात्रा का इन्तज़ाम करने का प्रस्ताव रख दिया। यह हक़ीक़त है और यही है हमारे भाग्य विधाताओं की "असहिष्णुता " के अनोखे अघ्याय की।
क्या हम में से किसी में हिम्मत है इस प्रकार के सामाजिक कैंसर बनकर फैल रहे "असहिष्णुता " के रोग के विरोध में अपनी आवाज़ बुलन्द करने कर सके ?
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