आबादी में राष्ट्रवाद का भाव भरपूर मगर कर चुकाने में सबसे पीछे भारत
खरी-खरी
May 16, 2016
आकार पटेल।
कुछ साल पहले, हर सुबह संगीत सिखाने के लिए एक व्यक्ति हमारे घर आते थे। वो बुज़ुर्ग भले व्यक्ति थे और दशकों से यह काम कर रहे थे। हम नियमित तौर पर मिल रहे थे, इसलिए हम लोग क्लास के बाद विभिन्न मुद्दों पर बात करने लगे थे। जिस तरह से संगीत को लेकर उनका भाव था, वैसा ही वो देश के लिए भी सोचते थे, एकदम जुनून से भरा हुआ।
भ्रष्टाचार और हमारे नेताओं के बारे में उनकी राय बेहद स्पष्ट थी। वो 'गाना' रोज़ सिखाने आते थे, इसलिए उनकी फ़ीस की रक़म ठीक ठाक हो जाती थी। पहले महीने जब मैंने उन्हें फ़ीस के लिए चेक देना चाहा, तो उन्होंने नक़द की मांग की। उन्हें अपने देश से बहुत प्यार तो था, लेकिन टैक्स चोरी करने में कोई समस्या नहीं थी। क्या उनका व्यवहार अप्रत्याशित था? नहीं, हक़ीक़त तो यही है कि वो वही कर रहे थे, जो चलन बन चुका है।
हम एक अजीब विरोधाभास वाले देश में रहते हैं, जहां बहुत बड़ी आबादी राष्ट्रवाद के भाव से भरी हुई है और हमेशा भारत माता की जय के नारे लगाने के लिए तैयार रहती है। लेकिन लोग अपने देश को बेहतर बनाने के लिए ज़रूरी शुल्क चुकाने के लिए तैयार नहीं है। यह केवल भारत में ही नहीं होता। पाकिस्तान हो कर आए लोगों ने देखा होगा कि वहां के एयरपोर्ट पर कर चुकाने वाले लोगों के लिए अलग क़तार होती है। यानी कुछ लोग, जो आयकर चुकाते हैं, उन्हें विशेष सुविधाएं मिलती हैं। भारत में भी सरकार ने जो आंकड़े दिए हैं, वो भी निराश करने वाले हैं।
पहली बात तो यही है कि भारत में केवल एक फ़ीसदी आदमी ही आयकर चुकाता है और क़रीब दो फ़ीसदी लोग आयकर रिटर्न दाख़िल करते हैं। इस आंकड़े को समझने के लिए हमें यह जानना चाहिए कि अमरीका में क़रीब 45 फ़ीसदी आबादी आयकर चुकाती है।
दक्षिण अफ्रीका में क़रीब 10 फ़ीसदी लोग आयकर भरते हैं। ऐसे में भारत में भी बदलाव होना चाहिए, लेकिन भारत में सुधार के कोई संकेत नहीं दिख रहे हैं। दूसरी बात, भारत के लोग आयकर चुकाने से इसलिए नहीं भागते हैं कि उन्हें ज़्यादा दर पर कर चुकाना होता है।
भारत में आयकर के दरों में कमी करने से भी कर चुकाने वाले लोगों की संख्या में बढ़ोत्तरी नहीं देखी गई है।कोई भी सरकार इसमें तभी बदलाव ला सकती है, जब वह कठोरता से कर वसूले और इसे नहीं देने वालों को सज़ा दे।
1965 से 1993 तक आयकर जमा कराने पर भारत में हुए एक अध्ययन के मुताबिक़ भारत में कठोरता से आयकर की जांच का नकारात्मक असर देखने को मिला है। इसमें देखा गया है कि परंपरागत तौर पर जांच, जुर्माना लगाने का भी भारतीयों पर सीमित असर हुआ है। इस अध्ययन के लेखकों को इस बात पर बड़ी उलझन हुई थी कि भारत के समान जीडीपी वाले देशों की तुलना में भारत का आयकर संकलन इतना कम क्यों हैं?
तीसरी बात यह है कि भारत का अधिक आय वाला वर्ग किसानों पर टैक्स छूट लेने का आरोप लगाता रहा है। हालांकि भारतीय किसानों का बड़ा तबक़ा बहेद ग़रीब है। ऐसे में शहरों में फ़ॉर्महाउस में रहने वाले किसानों को, जिनके पास दूसरा कोई आर्थिक आधार भी होता है, उन्हें इसके लिए दोषी ठहराया जा सकता है। लेकिन हज़ारों साल तक किसानों पर ही टैक्स होता था। अगर आज़ादी के बाद उन्हें थोड़ी राहत मिली है, तो हम उन पर कोई एहसान नहीं कर रहे हैं।
चौथी बात यह कि ओईसीडी देशों में, जिनमें यूरोप और उत्तरी अमरीकी देश शामिल हैं, आयकर और जीडीपी का अनुपात 34 फ़ीसदी के क़रीब है।
कुछ विकसित देशों में, मसलन डेनमार्क में यह अनुपात 50 फ़ीसदी से ज़्यादा है। भारत में आयकर और जीडीपी का अनुपात 10 फ़ीसदी के क़रीब है। इसे बढ़ाए बिना हम विकसित नहीं हो सकते हैं। 2014 में चीन में आयकर और जीडीपी का अनुपात 19 फ़ीसदी था, लेकिन हमारे यहां यह अनुपात बढ़ने के संकेत नहीं मिल रहे हैं। पांचवीं बात, कुल राजस्व की आमदनी में प्रत्यक्ष कर की हिस्सेदारी आधी होती है। 2015-16 में यह 51 फ़ीसदी था, जो दस सालों में सबसे कम था। इससे ज़ाहिर है कि अप्रत्यक्ष करों (बिक्री कर इत्यादि) में बढ़ोत्तरी हो रही है।
हालांकि इसका बढ़ना दुर्भाग्य ही है, क्योंकि इसका असर ग़रीब सहित सभी भारतीयों पर पड़ रहा है, जिन्हें उत्पादों और सेवाओं के लिए ज़्यादा भुगतान करना पड़ रहा है। इसमें सुधार तभी हो सकता है, जब अधिक आय वाले वर्ग पर ज़्यादा आयकर लगेगा। छठी बात यह है कि भारत में अमीर और ग़रीब सभी टैक्स की चोरी करना चाहते हैं। नैतिकता, संस्कृति और मूल्यों के लिहाज़ से भारत के विभिन्न आय वर्गों में आयकर चुकाने के लिहाज़ से कोई अंतर नहीं दिखता, चाहे वह शिक्षित हों या नहीं हों। लंबे समय से हम लोग शहरों में रहने वाले, पढ़े लिखे लोगों और कर चुकाने वाले लोगों के लिए 'मिडिल क्लास' शब्द का इस्तेमाल करते हैं।
अब हम जानते हैं कि ये लोग महज़ एक फ़ीसदी हैं।हम उन्हें मिडिल क्लास नहीं कह सकते हैं, वो अपर क्लास के हैं। हमारे यहां तब तक विशाल ब्लैक इकोनॉमी भी जारी रहेगी, जब तक भारतीय कर चुकाने से इनकार करते रहेंगे। अगर हम अपने देश को महान बनाना चाहते हैं, तो हमें अपनी आदतों में बदलाव लाना होगा। इसे समझना होगा कि भारत में आयकर चुकाने वालों की सबसे बड़ी संख्या नौकरी पेशा लोगों की है, जिनका आयकर अपने आप कट जाता है, उनके पास आयकर नहीं चुकाने का विकल्प ही नहीं होता। इससे यह संख्या और भी भयावह हो जाती है। जब तक ये स्थिति रहेगी, तब तक हम एक सामान्य देश नहीं हो सकते।
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